सोमवार, 26 अप्रैल 2010

प्रभु की महती कृपा-प्रसाद - "सद्गुरु रूपिणी माँ"

The divine gift "Mother" - as "Sadguru"

"हरि अनंत हरि कथा अनंता"

प्रियजन, केवल हरि ही नही, हरि की अनन्य कृपा स्वरुप प्राप्त "माँ" भी अनन्य है, और उनकी महिमा अनंत है. जैसा मैंने अन्यत्र कहा है, "माँ", सत्य, प्रेम तथा करुणा की साकार मूर्ति हैं, "परहित" उनका धर्म है. एकमात्र "हिंदी" के अक्षर-ज्ञान वाली हमारी माँ ने केवल तुलसीदास की रामायण ही पढ़ी तथा उसमें दिए "धर्म" के लक्षणों को अपनी जीवन शैली में ज्यों का त्यों उतार लिया.

जब हम छोटे थे, हमारा सिर अपनी गोद में लेकर वह मानस की इन सारगर्भित पंक्तियों का गायन करती थी और उनका भावार्थ हमें बताती थीं. वह अपने साथ हम से भी उन चौपाइयों का सस्वर गायन करवाती थीं. हमसे "पाठ" सुनकर वह बहुत प्यार से भोजपुरी भाषा में कहतीं, "बबुआ, तोहार गला ता खूब मीठा बा, काल फेर सुनहीआ".

देखा आपने, भारत के सबसे पिछड़े प्रदेश की एक अशिक्षित महिला किस चतुराई से अपने नन्हे बालक को जीवनोपयोगी मानव धर्म के लक्षण सिखा रही है और साथ साथ उसको "गायन" के लिए प्रोत्साहित कर रही है. मानस की जो चौपाइयां उन्होंने बचपन में सिखायीं और जबरदस्ती बार बार गवा कर भली भांति याद करवा दीं _

धरम न दूसर सत्य समाना . आगम निगम पुरान बखाना ..
परम धरम श्रुति बिदित अहिंसा . पर निंदा सम अघ न गरीसा ..
पर हित सरिस धरम नहि भाई . पर पीड़ा सम नही अधमाई ..
अघ की पिसुनता सम कछु आना . धरम की दया सरिस हरि जाना ..

प्रभु कृपा से मिली मेरी "प्यारी माँ" ने इस प्रकार लोरी सुनाते, गाते बजाते, खेल खेल में, हमें मानव "धर्म" के आधार तत्वों सत्य, प्रेम, करुणा तथा सेवा से न केवल परिचित कराया वरन उनकी अमिट छाप हमारे मानस पर अंकित कर दी.

क्रमशः

कोई टिप्पणी नहीं: