बुधवार, 14 अप्रैल 2010

मेरे दो निहित स्वार्थ

गतांक से आगे :

जन्म से लेकर आज तक हम केवल उस प्रभु की कृपा के सहारे ही जी रहे हैं और उस पल तक जीते रहेंगे जिस पल तक वह पालनहार हमें जीवित रखना चाहता है. परमात्मा द्वारा निश्चित पल के बाद हम एक सांस भी नहीं ले पाएंगे , प्राण पखेरू अविलम्ब नीड़ छोड़ उड़ जायेगा, सब हाथ मलते रह जायेंगे.

अपना यह जन्म मरण का चक्र चलता ही रहेगा. पिछले जन्मों के प्रारब्धों का बोझ ढोते ढोते हम थक गए हैं. हमें इससे छुटकारा पाना है . इसके लिए विशेष प्रयास करने हैं. ये प्रयास कैसे होंगे आधिकारिक तौर पर मैं (-आप जेसा ही एक साधारण मानव ) कुछ भी कह पाने की क्षमता नहीं रखता. इस समस्त जीवन में बचपन से आज ८१ वर्षा की अवस्था तक जो कुछ भी गुरुजनों से सुना है, सीखा है उसमे से जितना कुछ अभी तक याद है वह सब का सब आप की सेवा में पेश करना चाहता हूँ .

इसमें मेरे दो निहित स्वार्थ हैं..
  • पहला ये कि आप से बात करने में मैं असंख्य बार अपने प्यारे प्रभु को याद करूँगा और" हमारी याद "उनकी दया" में रूपांतरित हो मुझे प्राप्त होगी.
  • मेरा दूसरा स्वार्थ है कि इसे पढने वाले जब पढ़ते पढ़ते "अपने प्रभु" को याद करेंगे उनका भी कल्याण होगा ही होगा .

क्रमशः .

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