सोमवार, 24 मई 2010

मन की आँखों से देखो

गतांक से आगे
"उनकी" कृपा के उदाहरण

बड़े बुजुर्गों से सुनते आये हैं क़ि अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों का बखान निज मुख से कभी नहीं करना चाहिए. कहते हैं क़ि इससे साधक को अहंकार हो जाता है.और अपनी सिद्धि द्वारा अधिकाधिक सांसारिक ऐश्वर्य और धन दौलत कमाने के चक्कर में पड़ कर वह आध्यामिकता की राह छोड़ देता है.

इस सन्दर्भ में अपने बचपन की एक घटना याद आ रही है अपनी अम्मा को घेरे रहने वाली महिलामंडली से सुना था क़ि अम्मा को कभी कभी भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं. अम्मा इस बात को कोई महत्व नहीं देतीं थीं और अक्सर इसको झुठलाने की कोशिश करती रहतीं थीं. हम सब भी छेड़ छाड कर उनसे इस विषय में पूछ ताछ करने से चूकते नहीं थे पर वह थीं क़ि कुछ भी नहीं बताती थी.

लेकिन एक बार-----आज से लगभग ७०-७५ वर्ष पूर्व--------. १९३७--३८ में (जब हम ७-८ वर्ष के थे), बसंत ऋतु की एक चान्दिनी रात, हम सब कानपुर-छावनी में ताऊ जी की सरकारी कोठी के उद्यान में खुले आकाश तले मच्छरदानी ताने सोये थे. क़िसी कारण मध्य रात्रि में मेरी नींद खुल गयी, अम्मा की याद आयी और मैं.उठ कर उनकी चारपाई की ओर भागा. जाली उठा कर जो दृश्य देखा आज तक भूल नही पाया हूँ.

अम्मा अपनी चारपायी पर आँखे मूंदे बैठी थीं ,जैसे ध्यान में हों . हम काफी देर तक वहीं बैठे रहे , उन्हें जैसे कुछ पता ही नहीं लगा . मैं मन्त्र मुग्ध सा अम्मा को देखता रहा. उस समय की उनकी छवि निराली थी. चेहरे पर मधुर मुस्कान थी और उनके होठों से झाँक रहे , सामने वाले ऊपर के दो दांत जैसे उनके अन्तर का आनंद दरसा रहे थे. माँ परमानंद की साकार मूर्ति के समान हमारे सन्मुख थीं. मैं बच्चा था फिर भी रोमांचित हो गया. उनकी आँख खुली तो मैंने सहज भाव से उन्हें छेड़ते हुए पूछा "क्या आपको भगवान दिखाई दे रहे थे". उसी सह्जता से बात बदलते हुए उन्होंने कहा "तुम भी देखोगे क्या ?" हाँ कहने पर उन्होंने मुझे ऊपर नीले आकाश में,  दूर तक छितराए सफेद कजरारे बादलों से झांकता हुआ चंदा दिखाया आँख मिचोली करतीं सितारों की टोलियाँ दिखायीं , सुगन्धित फूलों से लदी रात की रानी दिखा कर कहा "बेटा अपना भगवान सर्वव्यापी है इस सृष्टि के कण कण में है , तुम में है, हम में भी है. मन की आँखों से देखोगे तो दिख जायेगा "

हमारी अम्मा ने हमे प्रकृति के उस मनोहारी चित्र में ही उस कलाकृति के महान चित्रकार का स्वरूप दिखाने का प्रयास किया . छोटा ही था तब कुछ समझ नहीं पाया हमे तो केवल एक अनूठे आनंद की अनुभूति हुई थी. उस समय. मेरे रोंगटे खड़े हो गये थे.  आंखे भर आयीं थीं .यह भी इसलिए याद है क्योंकि आंचल से आंसू पोंछ कर अम्मा ने उस रात मुझे अपने साथ सुला लिया था और सारी रात मैं अम्मा की गोद में लेटेलेटे उनके ह्रदय की हरेक धड़कन में सुनता रहा उनके इष्ट का नाम "रामरामराम" और राम नाम की वह सुमधुर झंकार आज तक हमारा मार्ग दर्शन कर रही है.

तब ७ वर्ष की अवस्था में, मैं कुछ समझ न पाया था . पर आज जब ८१ का हो रहा हूँ , ऐसा लगता है जैसे उस रात ही हमारी पहली नाम दीक्षा हुई., और उस प्रथम दीक्षा के उपरांत जीवन भर गुरुजनों के स्नेहिल आशीर्वाद का पात्र बना रहा . देखा कितनी कृपा है उनकी हम पर.

क्रमश:.

निवेदन : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला

3 टिप्‍पणियां:

S. C. Mehta ने कहा…

दिल को छूने वाली इस आपकी आपबीती से मैं ही इतना आनंद महसूस कर रहा हूँ तो सोच सकता हूँ की कितने आनंदित हुए होंगे, वास्तव में ये कोई आपके पहले (पिछले जनम की) के खाते की पूंजी थी जिसकी झलक से आप को इतनी अमूल्य अनुभूति मिली कि हमारे जैसे बहुत लोगों का कल्याण हुआ , परमेश्वर से अनुरोध है कि ऐसे प्रशाद मिलते रहें ............सुभाष मेहता

Bhola-Krishna ने कहा…

स्नेही सुभाष जी ,पूरे दो वर्ष बाद इस आलेख पर आपकी टिप्पडी ने ह्रदय द्रवित कर दिया ! इतिहास सुनिए - सेलार्स्बर्ग में २००९ वाले यू एस ए सत्संग में महाराज जी के दर्शनमात्र से बेट्री चार्ज हो गयी थी ! उनकी प्रेरणा की लहर उठी ,मेरा मन मेरी बुद्धि अकस्मात जागृत हो गयी ,मैंने लिखना प्रारंभ किया ! सर्व प्रथम पूर्वजों की ही याद आई जिसमे 'माँ' सर्वोपरि थीं , हैं और सदैव रहेंगी ! अस्तु उनकी कहानी सबसे पहले सुनाई !

Shivnarayan R. Varma ने कहा…

जय श्री राधे बहुत अच्छा लगा पढ़ कर आपके अनुभव। आपका सेवक।