शुक्रवार, 14 मई 2010

WHO AM "I"?

"मैं" कौन हूँ?

पाश्चात्य संस्कृति और कानूनी प्रक्रियाओं को अपनाकर हम आज तक न्यायालयों में,दफ्तरों में ,यहाँ तक की भारत के राष्ट्रपति भवन में भी शपथ लेते समय कहते हैं " मैं विश्वम्भर श्रीवास्तव (भोला) ----------- यह कहता हूँ , वह कहता हूँ...आदि ---आदि ". ज़रा विचार कीजिए , क्या हमारा यह कथन सत्य है ? क्या मुझे जिस नाम से पुकारा जाता है ,वास्तविक "मैं" वही व्यक्ति हूँ? अथवा "मैं" कोई और हूँ.

यह प्रश्न अनादि काल से आज तक उठता चला आ य्र्हा है. हर काल के, हर देश के , हर धर्म के जानकार विद्वानों ने अपनी अपनी मान्यताओं , परम्पराओं और खोजों के अनुरूप इस प्रश्न का उत्तर भी दिया है.

भारत के मनीषी ऋषि-मुनि , वैदिक काल में ही इस आसान से लगनेवाले अति कठिन प्रश्न का उत्तर जान गये थे. उनका द्रढ.मत था की वास्तव् में "मैं" "जीव"हूँ. ."मैं" देह में हूँ परन्तु देह नही हूँ . " मैं" का देह से तादात्म्य करना अथवा अपने को देह समझना भ्रामक है.

अर्जुन को उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण ने गीता में उनसे कहा:"इस लोक में, मेरा सनातन अंश , मानव जीव है"

ममैवांशो जीवलोके जीवभुतः सनातन:

तुलसी ने रामचरित मानस में कहा है:

ईश्वर अंश जीव अविनाशी - चेतन अमल सहज सुखराशी

अस्तु आध्यात्मिक दृष्टि से ,हम सब तनधारी-मानव ,वास्तव में ,अपने परमपिता परमात्मा के ही अंश हैं .हम उन्ही की तरह अविनाशी हैं , चैतन्यस्वरूप हैं, और सहज सुखराशी हैं. हमे भी सत्य,प्रेम,और करुणामय जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए. हमे उन्ही के समान सब प्राणियों पर खुले हाथ अपना प्यार लुटाना चाहिए. सत्यपथ पर चलना चाहिए. दीनदुखियों और आर्तजनो की सेवा करनी चाहिए. अनुमान लगाइए, हमारे परमपिता ,हमे उनकी ही राह पर चलते देख , कितने प्रसन्न होंगे. सच पूछिए तो हमारी वह "दीन-दुखी- नारायण" की सेवा "परमात्मदेव " की सेवा ही है, हमे वही पुन्य ,वही शबाब मिलेगा जो विधिपूर्वक पूजा-पाठ करने अथवा पांचो वख्त की नमाज़ अदा करने पर भक्तों और नुमाज़िओं को मिलती है.


निवेदक :व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

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