शनिवार, 24 जुलाई 2010

JAI MAA JAI MAA

जय माँ जय माँ 
माँ आनंदमयी की कृपा दृष्टि

अगली शाम ह्म माँ के पंडाल में समय से काफी पहले पहुँच गये. उस दिन "रास लीला" का कार्यक्रम था. लालचन ,ह्म कल की तरह आज भी सबसे आगे बैठना चाहते थे.हमे माँ के सामने बैठने का आनंद जो कल मिला था उसका सुखद एहसास ह्म आज एक बार फिर करना चाहते थे.पर आज वहाँ हमे कोई पूछने वाला नह़ी था कल के "वी . आई .पी" आज फुट-पाथी (जन साधारण )बन गये थे. कल की दूध सी सफेद चादर के नीचे पड़े मोटे कालीन की जगह आज ,(जल्दी आने के बावजूद) हमे चौथी कतार में लाल काली स्ट्राइप वाली धूल धूसरित दरी पर ,श्री श्री माँ के चरण कमलों से लगभग २० मीटर की दूरी पर बैठने की जगह मिली. 

थोड़ी देर में ,शंखनाद के साथ श्री श्री माँ आयीं .उनकी साक्षात देवी लक्ष्मी सी मनोहारिणी छवि देखते ही हमारा मन पवित्रता एवं दिव्यता के प्रकाश से भर गया. कल के सत्कार के कारण उभरा मन का अहंकार और आज अपनी असली हैसियत पहचान कर ,अपनी साधारणता का ज्ञान होने पर ह्मारे मन में उठा क्षोभ का सैलाब ,माँ के दर्शन मात्र से ,पल भर में छूमंतर हो गया .

रासलीला कब शुरू हुई कब खतम हुई ,उसमे क्या क्या हुआ,हमसे न पूछिये; हमारी निगाहें तो माँ के मुखारविंद पर,उनके अति आकर्षक दिव्य विग्रह पर टिकी हुई थीं .वहाँ
से हटना ही नहीं चाहती थीं. बताऊं क्यों? एक तो उनका दिव्य आकर्षण और दूसरी थी : हमारी क्षुद्रता या मानवीय कमजोरी;.बता ही दूँ जब सच बोलना है तो क्या छुपाना? मेरे मन के किसी कोने में एक चोर बैठा था. मुझसे कहता था ,कल तुमने भजन सुना कर माँ को इतना प्रसन्न किया , माँ आज भी तुम्हे पंडाल के भीड़ भाड़ में जरूर खोज रहीं होंगी उस समय पुनः हमे अहंकार नामक चोर ने अपने वश में कर लिया था. मेरे प्यारे स्वजन देखा आपने मानव कितना असहाय, कितना बेबस, कितना मूर्ख बन जाता है. अभी कल ही माँ ने ,अहंकार शून्य करने की सीख दी .और आज ह्म, वापस जाने के बजाय झूठे अहंकार की डगर पर चार कदम आगे ही बढ़ गये .

मैं उचक उचक कर अपने आप को प्रदर्शित करने का निष्फल प्रयास करता रहा.माँ ने मेरी और देखा तक नहीं. वह कृष्ण लीला का आनंद लूट रहीं थीं. उन्हें उस लीला में,उनके इष्ट राधा-कृष्णा के साक्षात् दर्शन हो रहे थे. मेरी निराशा की सीमा नहीं थीलीला समाप्त भी हो गयी.सब जाने लगे .माँ भी उठीं. मचान से उतरीं. मैं अपनी जगह पर ही खड़ा हो गया श्री .माँ हमारी तरफ न आकर दूसरी और मुड गयीं. मुझे निराशा का एक और धक्का लगा. दुख़ी हो मैंने अपनी आँखे बंद करलीं. रोने को मन कर रहा था .माँ कल बाबा मुक्तानंद के गणेशपुरी आश्रम जा रहीं थी.अब मुझे माँ के दर्शन कब और कहा हो पाएंगे ?

 माँ के आगे पीछे लोग इधर उधर भाग रहे थे. मैं यथा स्थान खड़ा रहा ,आंसू भरी बंद आँखें लिए और दोनों हाथ जुड़े हुए,नमस्कार की मुद्रा में. कुछ पलों में ऐसा लगा जैसे माँ ह्मारे आगे से निकल कर दूर चलीं गयीं . मैंने धीरे से आँखें खोलीं.प्रियजन क्या देखता हूँ क़ी उसी पल ,हमसे काफी आगे निकली हुई माँ,अनायास ही घूम गयीं और मेरी तरफ देख कर उन्होंने आशीर्वाद के मुद्रा में अपना हाथ उठाया .संयोग देखिये उस पल भी मेरे और माँ के बीच कोई व्यक्ति या अन्य कोई व्यवधान नहीं था .वह मेरे इतने निकट थीं क़ी मैं  सुनहरे फ्रेम के नीचे से चमकती हुईं उनकी दोनों आँखों को साफ़ साफ देख पाया.

मेरे अतिशय प्रिय स्वजन ,मैं बयान नहीं कर पाउँगा क़ी श्री माँ की उन दोनो आँखों में कितना आशीर्वाद और कितनी स्नेहिल शुभ कामनाएं भरीं थीं. मेरी अपनी जननी माँ की आँखों में जो वात्सल्य,करुणा और प्यार दुलार की घटाएं मैं ४० -५० वर्ष पूर्व देखा करता था ,वही आज श्री श्री माँ की आँखों से उमड़ घुमड़ कर मेरे सम्पूर्ण मानस पर अमृतवर्षा कर रही थी, मेरा जीवन .मेरा तन मन सर्वस्व धन्य हो गया था .मैं नख से शिख तक रोमांचित था.  अभी इस समय भी मेरी कुछ वैसी ही दशा हो रही है. आगे लिख न पाउँगा .
अब जो कहूँगा कल ही कहूँगा

निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला" .

कोई टिप्पणी नहीं: