बुधवार, 18 अगस्त 2010

JAI JAI KAPISOOR (18/8/10)


हनुमत कृपा -निज अनुभव 

गतांक से आगे 

प्रियजन आप दुख़ी हो रहे होंगे मेरी आरजा  की दासतां सुन कर आप यह भी सोच रहे होंगे क़ी  "हनुमत कृपा के निज अनुभव" सुनाने के बजाय यह .सरफिरा इंसान क्यों अपने दुखड़े रोने बैठ गया  है.आपकी नाराजगी बिलकुल जायज़ है.माफ़ी का तलबगार हूँ. लेकिन मेरे प्यारे स्वजनों ज़रा मेरी मजबूरी समझो ,जरा सोंच कर देखो क़ी यह जो कुछ लिखा जा  रहा है, क्या ये मैं ही लिख रहा हूँ ? क्या ये सब मेरी ही सोच है.?

"हाथों में हथकड़ी है पैरों में बेड़ियाँ ,
औ जीश्त क़ी सब गुत्थियां ह्म खोल रहे हैं.

"प्यारे स्वजन ये  इश्क का कौतुक सराहिये,
 ह्म जी रहे हैं  मस्तियों में डोळ रहे हैं".

 "है कलम उँगलियों में,सियाही दवात में,  ,
  मैं लिख रहा हूं वही जो "वह" बोल रहे हैं"

चलिए अब अपनी ग़ुरबत की कहानी सुना कर आपको दुख़ी नहीं करूंगा .सच तो यह है क़ी मैं उन १५-२० दिनों की जो भी बात बताऊंगा ,मेरी आप बीती तो होगी लेकिन होगी मेरी 
सुनी सुनाई .आप जानते ही हैं क़ी उन दिनों मेरे साथ जो भी गुजरी उसकी ज़रा  सी भी  
याद मुझे नहीं है. मैं तो अब तक यह भी नहीं जानता क़ी तब मैं कोमा में था ,या मुझे  सिडेत किया गया था. जो भी हो मैं उनदिनों .बिलकुल बेहोश था.

कभी कभी. जो पल दो पल को आंख खुलती थी और कानो में एकाध वाक्य पड़ जाते थे थोड़ी बहुत उनकी याद अभी भी कभी कभी अवश्य आ जाती है.

एक दिन कानो में अपनी प्यारी गुडिया नंदिनी की आवाज़ पड़ी. "दादी मैं जगाउंगी नहीं मैं 
तो बाबा को सुला रही हूँ,दादी फूंक कर मैं उनका दर्द भी कम कर रही हूँ". तुरत मुझे फ्लेश बेक हुआ, जब गुडिया २-३ वर्ष की थी ,कहीं गिर गयी,थोड़ी चोट आयी,रोयी,मैं पास में ही था ,उसे गोद में उठा कर मैंने चोट  के  स्थान पर फूंका और आँख बंद कर के अपने इष्ट को याद किया, प्रभु कृपा से उसकी पीड़ा घट गयी. प्रियजन मेंरे इस कृत्य में  नाटक अधिक वास्तविकता कम  थी.पर मेरी गुडिया पर इसका जो प्रभाव पड़ा वह,आज प्रत्यक्ष नजर आ रहा था. हां उस दिन, उसकी मीठी मीठी बातें सुनते सुनते मैं  पुनः अपनी तन्द्रा में प्रवेश कर गया..गुडिया का जो अंतिम वाक्य मैंने उस दिन सुना वह था,"देखा दादी, बाबा मुस्कुराते मुस्कुराते  सो भी गये., दादी मैंने ये ट्रिक बाबा से ही सीखी थी"

क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

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