मंगलवार, 14 सितंबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR(Sep.15.'10)

हनुमत कृपा - निज अनुभव
गतांक से आगे
 हॉस्पिटल के आई सी यू में मैं कितने दिन अचेत पड़ा रहा और कितने दिन मेरी भौतिक आँखें बंद रहीं थीं ,मुझे याद नहीं ! पर उतने दिन मेरा बाह्य जगत से कोई भी सम्बन्ध नहीं था ,यह पक्का है ! उतने दिन मुझे किसी प्रकार की कोई मानसिक अथवा शारीरिक पीड़ा महसूस ह़ी नहीं हुई !उल्टे उन दिनों जो चमत्कारिक अनुभव मुझे वहाँ हुआ वह अविस्मरनीय है !

प्रियजन ! वह अनुभव ही हमारे इस मानव जीवन की सबसे अनमोल उपलब्धि है ! इसकी प्राप्ति के बाद ,मुझे ऐसा लगता है क़ि अब मुझे इस ज़िंदगी में अन्य कुछ पाने की इच्छा ही नहीं बची है !

मेरी बंद आँखों के परदे पर जो दृश्य उनदिनों लगातार चल रहा था उसकी सुन्दरता और मनोहरता शब्दों में वर्णन कर पाना मेरे जैसे निरक्षर प्राणी के लिए असंभव है!कोई भी भाषा, शैली,कोई भी लिपि उतनी सक्षम नही कि उस विलक्ष्ण आनंद दायक सुन्दरता का वास्तविक शब्द चित्र खींच सके ! यदि उर्दू शायरों की जुबान में कहूँ तो शायद ऎसी तस्वीर बनेगी

मुझे उस मदहोशी में बो तस्कीने दिल मिल रहा था जो चिलमन के सरक जाने पर पर्दे के पीछे से छुप छुप कर अपनी महबूबा का दीदार करने वाले दीवाने आशिक को होता है जो उस पल तक केवल तसव्वुर में ही उसकी तस्वीर देखता रहा है ! अभी अभी लेपटोप पर ही एक गजल बन रही है:

मुझको मुंदी नजर से ही सब कुछ दिखा दिया
तेरे खयाल ने मुझे तुझ से मिला दिया!!
 

मुझको दिखा के चकित किया रंग सृष्टि का
आनंद भरा रूप प्रभू का दिखा दिया !!

चेहरा पिया का खेंच कर मन की किताब पर
मे रे हृदय को प्यार का गुलशन बना दिया !!


मेरी   दशा वैसी थी जैसे प्रेयसी का घूँघट उठ जाने पर उसका सुंदर मुखड़ा एकटक निहारते किसी प्रेमी क़ी होती है ! शायद बिलकुल ऐसा ही सुख, ऐसा ही आनंद ,जीवन भर की लम्बी प्रतीक्षा के बाद ,दर्शनाभिलाषी भक्त को अपने प्रियतम इष्ट देव के दर्शन से प्राप्त होती है !
आज इतना ही ! कल इस कथा का समापन होग़ा !

निवेदक:-व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

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