रविवार, 7 नवंबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 2 1 2

हनुमत कृपा
के अनुभव

प्रियजन ! हम सबने अपने अपने ढंग से, अपनी अपनी इच्छा शक्ति,मनोबल ,सामर्थ्य के अनुरूप कल "लक्ष्मी पूजन" के पर्व पर "माँ" को मनाने का प्रयास किया !करोडपतियों ने लाखों ,लखपतियों ने हजारों और मध्यम बर्ग के जन समुदाय ने जितना बन पाया उतने की सेवा '"माँ के श्रीचरणों पर अर्पित की!

स्वयं मैंने उस अवसर पर क्या किया ? प्रियजन यदि आप मुझसे यह न पूछें तो ही बेहतर होग़ा !

प्रियजन वास्तविकता यह है क़ि मैं स्वयं कुछ कर ही नहीं पाया ! कहते हैं न क़ि "छूछा चना बाजे घना"! अधजल गगरी की तरह मैं छलकता रहता हूँ ! दूसरों को उपदेश देता रहता हूँ और स्वयं कुछ नहीं करता ! आप तो जानते ही होंगे अंग्रेज़ी की वह प्रसिद्ध कहावत "It is easier to preach then to practice " So I choose the easier way और आज मैं उसी लोकोक्ति को चरितार्थ कर रहा हूँ ! क्यों कर रहा हूँ मैं ऐसा ?

इसका कारण ,मैं बहुत पहले यह "ब्लोग " लेखन शुरू करते समय, बता चुका हूँ ! मुझे नवजीवन देकर हॉस्पिटल के Critical Care Unit में ही प्रभु ने सूक्ष्म रूप मे मेरे चिन्तन और मेरी भावनाओं में प्रगट होकर मुझे आदेश दिया था क़ि मैं उनसे प्राप्त जीवन दान के इस Extended Life Term में समय बितानें के लिए अपनी आध्यात्मिक उप्लाबधियों का लेखन कर डालूँ ! जब मैंने "उनसे" यह कहा क़ि "मेरी तो कोई उपलब्धि ही नहीं है ! मेरे पास लिखने को कुछ है ही नहीं !मैं नाना विकारों से युक्त एक अधमाधम प्राणी हूँ !-- ,"कवि न होऊं नहि चतुर कहावौं , मति अनुरूप राम गुण गावों"!

मैं कुछ भी नहीं लिख पाऊंगा!"

प्रभु ने तब मुस्कुराते हुए मुझसे प्रश्न किया था " तुम लिखोगे ? ये मुगालता भी कैसे हो रहा है तुम्हे ? करने
कराने वाला कौन है ? यह भी नहींजानते"! इसके अतिरिक्त उन्होंने मुझे आश्वासन दिया क़ि वह मेरे सभी लेखों के प्रेरणा स्रोत बनेंगे ! और उन्होंने अपना वह वादा भली भांति निभाया भी !

आज मैं २१२ वां ब्लॉग लिख रहा हूँ और आज भी वह अपने वादे पर अटल हैं ,वादा निभा रहे हैं ,प्रेरणा प्रदान कर रहे हैं ! मेरे इस आलेख में भी वह ही मेरे मन में भाव भर रहे हैं ,और उन्हें भाषा का जामाजोड़ा पहना रहे हैं ! आज अभी भी कम्पूटर पर बैठते ही मेरी उंगलियाँ "उनसे" ही प्राप्त जानकारी को संदेश में परिणित कर रहीं हैं !

एक बात और बताऊँ ,अगर कभी कभी मेरा मानव मन इधर उधर भटक कर कुछ लम्बी हाकने लगता है तब ह्मारे प्यारे भगवान जी निःसंकोच, तुरत ही मेरी अनाप शनाप बातों को कम्प्यूटर से ऐसा गायब करते हैं क़ि फिर उसको खोज पाना असम्भव हो जाता है ! यहाँ तक क़ि उन भावों और शब्दों की भी ऎसी विस्मृति हो जाती है क़ि उसे दुबारा लिख ही नहीं पाता !इस प्रकार प्रभु मुझे एक गलत काम करने से बचा लेते हैं.!

हंसना नही भाई उनकी इस जबर्दस्त "केंची क्रिया" के कारण मैं मजबूरन आजकल उनको अपने संदेशों का Editor in Chief (प्रमुख सम्पादक) कह कर संबोधित करता हूँ

भैया ! सोंच के बैठता हूँ क़ि पिताश्री के अनुभव लिखूँगा और "उनकी" कैंची चल जाती है , कुछ और ही लिखवा देते हैं !

आशा है अगले अंक में अनुभव कथा आगे बढ़ा पाउँगा !

क्रमशः





निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"