शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

साधक साधन साधिये # २ ५ ०

हनुमत कृपा 
अनुभव               
                                             साधक साधन साधिये 
                                                  साधन (२)


श्रीभगवानुवाच - 

                               "नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेजज्या" 
                                              (गीता अध्याय ११, श्लोक ५३)
कुरुक्षेत्र में अर्जुन को अपना दिव्य स्वरूप दिखाकर श्री कृष्ण ने उनसे कहा क़ि " बड़े बड़े तपस्वियों , दानियों, ज्ञानियों और यज्ञ करनेवालों को भी मेरा यह दर्शन दुर्लभ है ! वेद, तप, दान और यज्ञ से मेंरी (ईश्वर-प्रभु की ) प्राप्ति नहीं हो सकती"!                                                          


प्रश्न उठता है क़ि फिर कौन से वे साधन हैं जिन्हें अपना कर जीव सरलता से अपना, अभीष्ट पा सकता है ? गीता में ही इस शंका का समाधान करते हुए श्रीकृष्ण ने अन्यत्र कहा है ! 
श्रीभगवानुवाच --
मन्मना  भव  मद्भक्तो  मद्याजी  मां नमस्कुरु !
मामेवैश्य सि सत्यम ते प्रतिजाने प्रियोअसि मे !! (गीता -अध्.१८ -श्लोक ६५ ) 
श्रीमदभगवत गीता के उपरोक्त श्लोक में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ईश्वर प्राप्ति के साधन बताते हुए कहा :-
"मन लगा  मुझमे , भजन कर, वंदना कर ,भक्त बन! 
             एक हो जायेंगे ह्म तुम, प्रिय सखा , मैं कर रहा प्रन !! (भोला)        
हे अर्जुन ! मुझमें अपने मन को स्थिर कर , मेरा भक्त बन , भजन और वन्दना कर !  ऐसा कर के तू अवश्य ही मुझे पा जायेगा , मुझमे मिल जायेगा ! मैं प्रण करके कहता हूँ क्योंक़ि तू मुझे अतिशय प्रिय है !)


इस प्रकार श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय सखा अर्जुन को भगवत कृपा प्राप्ति के तीन प्रमुख साधन बताये   (१) ध्यान,(२) अर्चन, (३) नाम संकीर्तन .


श्रीमदभागवत पुराण के षष्ठ स्कंध में श्री वेदव्यास नें भी साधकों के लिए "हरि कृपा प्राप्ति " के विविध साधन बताते हुए कहा है क़ि इस जगत में जीवों के लिए यही सबसे बड़ा कर्तव्य है  क़ि वे नाम कीर्तन, अर्चन और ध्यान  आदि उपायों से भगवान के चरणों में भक्तिभाव प्राप्त करें ,यही परमधर्म भी है !

क्रमशः 
निवेदक : व्ही एन श्रीवास्तव 'भोला' 

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