सोमवार, 10 जनवरी 2011

साधन-सिमरन # 2 6 5

हनुमत कृपा 
अनुभव 
                                                  साधक साधन साधिये 
गतांक से आगे                               साधन-"सिमरन"

वात्सल्य भक्ति से व्याकुल अपने हृदय में सिमरन का घनत्व बढाने के लिए बुआ कुंती ने परमात्म स्वरूप भतीजे श्रीकृष्ण के समक्ष वरदान के रूप में दुःख, पीड़ा और विपत्ति प्राप्ति की अर्जी दाखिल कर दी ! प्रियजन ,यह है विपत्ति का महत्व ! आपको विदित है कि केवल मैंने ही नहीं वरन अनेकों भुक्त भोगियों नें कष्टों के कारण अधिक भाव भक्ति से अपने इष्ट का सिमरन किया और उनके कृपापात्र बने ! 

काशी के महान संत स्वामी रामानंद जी से नाम दीक्षित संत "कबीर" (जिनके जीवन का एक एक पल कपड़ा बुनने के साथ साथ नामजाप और सिमरन में लगता था ) ने  अपने निजी  अनुभव के आधार पर ही यह कहा होग़ा :
                               
                              दुःख में सुमिरन सब करें , सुख में करे न कोय !
                              जो सुख में सुमिरन करें   , दुःख  काहे  को होय !

"तुलसी" के शब्दों में, ""रामभक्त सेवक  अनुगामी"- ह्मारे "इष्ट महाबीर विक्रम बजरंगी श्री हनुमान जी" ने सीता जी की खोज के उपरांत श्रीराम से , लंका की अशोक वाटिका में  विपत्तियों से घिरी "जनकसुता जगजननी जानकी"  की कुशल-क्षेम का वर्णन करते हुए कहा कि " हे प्रभु ,सतत आपके ध्यान मे तन्मय ,पल पल केवल आपके सिमरन में ही निमग्न "मा" को विपत्ति कैसी ?

               "कह हनुमंत विपति प्रभु सोई , जहं तव सिमरन भजन न होई "

हनुमत बोले "प्रभु विपत्ति तो वहाँ होती है जहाँ आपका सिमरन नहीं होता ! माता सीता 
आपके नाम का चौकीदार बिठा कर दिन रात ,ध्यान रूपी द्वार पर पलकों का ताला डाले  केवल आपके सिमरन में लगी हैं ,उनका अनिष्ट कैसे हो सकता  है ?"
                            
                            नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट !
                            लोचन निज पद  जंत्रित जाहिं प्रान  केहि बाट !!

चलिए अब दिव्यात्माओं के सिमरन प्रयोगों से नीचे उतर ह्म मानव स्तर पर आजायें !

१९५९ में सिमरन साधन से मेरा प्रथम औपचारिक परिचय कराने वाले थे ह्मारे परम श्रद्धेय गुरुदेव स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ! ऐसा नहीं क़ि इसके पूर्व मैं सिमरन करता ही नहीं था ! अपनी अम्मा की गोद में ही मैंने "सिमरन-ध्यान" का पहला मधुर स्वरूप देखा था ! सिमरनरत मा के मुखारविंद से झांकते उनके आगे के दो दांत , हमें उनके हृदय से छलकते परमानन्द का दर्शन कराते थे और अपने उस मूक शैशव अवस्था में भी मैं बरबस ही प्रफुल्लित हो कर  खिलखिला पड्ता था !(ऐसा मैंने अम्मा के मुख से सुना था)

सद्गुरु सत्यानंदजी महराज ने अतिशय कृपा कर के मुझे नाम दीक्षा दी और उसके बाद 
अधिष्ठान और माला दे कर उन्होंने मुझसे उनकी "अमृतवाणी" पुस्तिका से कुछ पढकर सुनाने को कहा ! 

मैं तब ३० वर्ष का था, अपनी छोटी बहेन को रेडिओ आर्टिस्ट बनाये रखने की धुन  में मैं पिछले १५ वर्षों से उसे घंटों रियाज़ करवाता था और जैसी क़ि एक कहावत है क़ि " बाटन वारे को लगे ज्यों मेंहदी को रंग " वह तो रेडिओ पर १९५० वर्ष से  गाने लगी ,मेरा गला भी सध गया ! (लोग कहते हैं क़ि मैं काफी अच्छा गा लेता हूँ )

महराज जी के सन्मुख गाते गाते मेरी ऑंखें भर आयीं कंठ  अवरुद्ध हो गया , गायन थम गया ,उस समय मैं गा रहा था 
                                    " राम नाम  सिमरो  सदा , अतिशय मंगल मूल !
                                       विषम विकट संकट हरण, कारक सब अनुकूल!!                                  
आज इतना ही शेष कथा अगले अंकों में ! 


हाँ एक बात और कहनी है ,श्री राम कृपा से ,मैं अब बिल्कुल स्वस्थ  हूँ ! स्वस्थ न होता तो  इतने बड़े बड़े संदेश कैसे भेजता आप को !

निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
78, Clinton Road ,Brookline MA 02445 , USA

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