बुधवार, 12 जनवरी 2011

साधन - "सिमरन" # 2 6 6

हनुमत कृपा 
अनुभव                                         साधक साधन साधिये 
                                                        साधन-"सिमरन"

स्वामी जी महराज के आदेशानुसार मैं अमृतवाणी का पाठ कर रहा था ,मेरी आँखें डबडबा गयीं मेरा गला भर गया ! मैंने पाठ कैसे पूरा किया होग़ा (मन ही मन या जोर से गाकर) यह मुझे अभी  बिल्कुल याद नहीं क्योंकि ये लगभग ५० वर्ष पुरानी बात है और अब इस उमर में मेरी याददाश्त भी उतना साथ नहीं दे रही है !

वह १९५० का दशक जब स्वामी जी ने मुझे "नाम" दिया था वह आज ,२०११ के दशक से बहुत भिन्न था ! तब आज की भांति एक साथ सैकड़ों लोग एक स्थान पर  दीक्षित नहीं होते थे ! मेरी दीक्षा मुरार ,ग्वालियर में पूज्यनीय श्री देवेन्द्रसिंह जी बेरी के निवास स्थान पर बिल्कुल एकांत में हुई थी ! केवल मैं था और स्वामी जी महराज थे उस कमरे में और कोई नहीं था ! इतना याद है क़ि उस प्रकोष्ठ में बहुत हलका प्रकाश था ! मैं बाहर आँगन की धूप से आया था ,मेरी आँखें वैसे ही चकाचौंध थीं ,इसलिए कुछ क्षणों तक  मुझे कमरे के भीतर का कुछ भी दिखाई नहीं दिया !केवल द्वार पर मुझे उस कमरे के नीरव शून्य आकाश को प्रकम्पित करती एक अद्भुत ध्वनि-तरंग सुनायी दी ! मैं वैसे ही बहुत सहमा हुआ था क्योंकि  उस दिन तक  मुझे  किसी इतने सिद्ध  संत महापुरुष के निकट जाने का और उनके सानिध्य को पाने का सौभाग्य  नहीं मिला था ! औपचारिक और अनुशासित  साधना पद्धति से तो  मैं  सर्वदा ही अनभिज्ञ था ! 


प्रियजन !नाम- दीक्षा की बात चला कर ,लगता है मैं फिर अपने विषय विशेष- "सिमरन" से भटक  गया ! शायद जिस "ऊपरवाले" ने भटकाया है ,वही अब वापस पटरी पर आने का आदेश दे रहा है !


महाराज जी के सन्मुख अमृतवाणी का पाठ करते करते मैं "सिमरन" प्रसंग के दोहे # १३ पर रुक गया था (पिछले अंक में देखें) !आज जब "सिमरन" की बात चली तो याद आया  क़ि "सिमरन" से मेरा विधिवत  प्रथम परिचय "अमृतवाणी" के इस प्रसंग से ही हुआ था ! चलिए आपको सुना ही दूँ क़ि महाराज जी ने अमृतवाणी के १३ वें दोहे से १८ वें तक और फिर # २० , ५२ और ६८ वें दोहे में किन शब्दों द्वारा "सिमरन" की विशेषताएं तथा सिमरन करने की अचूक विधि का वर्णन किया है !


महाराज जी ने "सिमरन" के विषय में अमृतवाणी के १३ वें दोहे में कहा है क़ि :
"राम नाम सिमरो सदा अतिशय मंगल मूल !
 विषम विकट संकट हरन कारक सब अनुकूल " !
इसका भावार्थ है क़ि: 
"दृढ विश्वास के साथ ,तू राम नाम का नित्य निरंतर स्मरण तथा ध्यान कर !  यह तेरे कल्याण के लिए एक अचूक साधन है ! सिमरन तेरे भयंकर से भयंकर विपत्ति का नाश करेगा और तेरी  समस्त अनुकूलताओं का निमित्त होगा !"


१४ वीं चौपाई में महाराज जी ने कहा है :
"सिमरे राम राम ही जो जन , उसका हो शुचितर तन मन !!"
इसका भावार्थ है क़ि :
" (नाम का सिमरन और जाप उत्तम कर्म है, यह साधक के पाप हर लेता हैं ) जो व्यक्ति राम नाम का जाप एवं  स्मरण करता है उसका शरीर हृष्ट पुष्ट  और सुंदर हो जाता है तथा  उसका मन अधिकाधिक पवित्र और शुद्ध हो जाता है !"
अमृतवाणी में महाराज जी के सिमरन विषयक अन्य प्रेरणास्पद दोहों  और चौपईओं का  वर्णन अगले अंकों में !


निवेदक: व्ही एन . श्रीवास्तव "भोला" 

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