शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

साधन: "भजन-कीर्तन" # 2 7 9


हनुमत कृपा- अनुभव 
साधक साधन साधिये                             साधन: "भजन-कीर्तन" 

प्रियजन ! इस संसार में जन्म लेने के बाद अपने मानव तन से "जीव" जो कुछ भी करता है ,जो कुछ भी  देखता है ,जो कुछ भी सीखता है ऑर उसे जो कुछ भी "अनुभव" होते   हैं , वे सब ,सच पूछो तो, उस परम पिता परमात्मा की करुणा ऑर अनुकम्पा जनित "कृपा" के कारण ही होते हैं !  दुर्भाग्य यह है क़ि अक्सर सफल मानव अपनी सफलताओं  का श्रेय या तो अपनी निजी कार्यकुशलता को  या किसी अन्य सांसारिक व्यक्ति या परिस्थिति के सह्योग को देता है !

अपने सम्पूर्ण जीवन में मैंने जो कुछ भी कर्म किये ऑर उन कर्मों के फलस्वरूप मुझे जो भी यश-अपयश ,सुख-दुःख या अनुकूल -प्रतिकूल फल प्राप्त हुए , वे सब ही मेरे प्यारे प्रभु की मुझ पर कीं हुईं असंख्य "कृपा अनुभवोँ" के उदहारण स्वरूप हैं ! मैं तो अपनी प्रत्येक सांस को, अपने हृदय की  प्रत्येक धड़कन को , उनकी "कृपा का  प्रसाद" ही समझता हूँ ! मेरे लिए ,संसार में मेरा जो है वह सब मुझे "हनुमत कृपा प्रसाद" स्वरुप ही प्राप्त हुआ है !

                                                       भजन
        
आज कल यहाँ उत्तरी पूर्वी यू.एस.ए में भयंकर बर्फबारी हो रही है ! क्रिस्मस की रात से ही जो डेढ़ दो फीट मोटी  बर्फ की तह जमी वो आजतक जहाँ की तहां पड़ी है !अभी भी रोज़ ही बर्फ गिरती है ऑर बर्फ के तह  की मोटाई दिन पर दिन बढ़ ही रही है घटने का नाम  नहीं लेती ! तापमान दिन रात में कभी भी शून्य अंक शेल्शिअस से ऊपर नहीं जाता ! बर्फ गले भी तो कैसे गले ? मौसम के जानकार इसे " भयंकर" कहते हैं  पर वास्तव में मुझे यह बड़ी आनंद दायक प्रतीत होती है , देखा कितनी कृपा है "उनकी" ह्म पर !

ये बर्फबारी की बात चली तो याद आया क़ि हाल में मैंने  एक महापुरुष का प्रवचन सुना ! वह "भजन कीर्तन" की महत्ता का वर्णन कर रहे थे ! उन्होंने कहा : "जीवात्मा " जल के  एक बिंदु के समान है ऑर परमात्मा है अथाह सागर के सद्रश्य ! "जलबिंदु" वाष्प बन कर  आकाश मार्ग से पर्वतों के शिखरों पर हिमशिला बन कर जम जाती जाती है ऑर उसी रूप में जमी हुई वह अस्थिर बूँद ध्यानमग्न साधकों के समान हो जाती है ऑर कालान्तर तक  निश्चल ,आसन लगाये , मौन तपश्चर्या करती है ! साधना पूरी होने पर वह अपना मौन तोड़ कर पर्वत शिखर से दौड़ पड़ती है एक नदी के रूप में ,कल कल नाद करती, अपने अभीष्ट उस सागर की ओर उससे मिलने को ऑर पुनः उसमे समा जाने को,!

ह्म आत्माएं भी परमात्मा से बिछड़ कर सांसारिक काम काज ऑर औपचारिकता निभाने  में "बर्फ" की तरह जमे रहते हैं ऑर उस पल तक उस स्थिति में पड़े रहते हैं जब तक परमात्मा स्वयं ह्म पर कृपा करके अपनी भक्ति के ताप से हमे पिघला कर अपनी ओर प्रवाहित नहीं कर देते !

जल बिंदु को आत्मा ऑर सागर को परमात्मा की संज्ञा देकर उन महात्मा ने यह बताया क़ि भक्ति के ताप से गल कर ,तरल होकर यदि ह्म सब भी पहाड़ी नदियों के समान कल कल नाद करते हुए ,जोर शोर से हरि भजन कीर्तन करें तो ह्म भी अपने इष्ट परमात्मा से अवश्य ही मिल जायेंगे!
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क्रमश:
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला" 

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