बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

हमारी साधना - भजन # 3 0 1

हनुमत कृपा - अनुभव                                                           साधक साधन साधिये 

हमारी साधना - भजन                                                            ( ३ ० १ )


तारीख़ महीना साल अब कुछ भी याद  नहीं ! ५०-६० साल पुरानी डायरियां भी हमारे ७५ वर्ष पुराने मकान की अलमारियों से धीरे धीरे गायब होगयीं शायद दीमकों ने उन्हें स्वाहा कर दिया ! हाँ, तो १९५० के दशक में कभी ,हमारे बहत अनुरोध पर ग्वालटोली बाज़ार के किसी मकान की एक छोटी सी कोठरी में गुलाम मुस्तफा साहेब ने कानपूर में अपना एक छोटा सा अस्थायी विद्यालय बनाना स्वीकार किया ! 

मुझे गर्व है कि उन्होंने कानपूर में अपने प्रथम शागिर्द के रूप में मुझे और मेरे छोटे भाई जैसे स्थानीय सुगम संगीत प्रेमी पड़ोसी संतू श्रीवास्तव को स्वीकार किया ! मुस्लिम काल के संगीत घरानों की परंपरा के अनुसार हम दोनों शागिर्दों को दीक्षा देने  की सारी व्यवस्था उस्ताद की मन्त्रणा अनुसार संतू भाई  ने की !

पारम्परिक हिन्दू गुरुजन जिस प्रकार रोली टीका कर के कलाई में 'कलावा' बांधते हैं वैसे ही हमारी कलायी में मुस्तफा साहेब ने "गण्डा" बाँधा ! हम दोनों उनके शागिर्द हो गये ! इसके अतिरिक्त और क्या क्या हुआ वह कुछ भी याद नहीं ! संतू ,लाल कुँए के पास के हलावाई की जलेबिओं का एक बड़ा दोना , हनुमान जी के मंदिर में प्रसाद चढ़ा कर ले आया ! हम सब ने बड़े प्रेम से प्रसाद पाया ,तब तक पास का चायवाला मिट्टी के सकोरों में चाय भी दे गया !  

संगीत विद्यालय था , कुछ संगीत तो होना ही था ! इधर उधर से मांगमूंग कर तानपूरा  तबला और बाजा लाया गया था ! आप सोच ही सकते हैं कि साधारण हिन्दू गृहस्थों के घर के साज़ किस स्टेंडर्ड के होंगे ! तानपुरा स्त्रियों की गायकी में काम आने भर का था! पुरुषों के ऊँचे स्वर तक उसे मिला पाना कठिन था !

उस्तादजी ने कुछ आपत्ति नहीं की ! उसी तानपुरे को किसी प्रकार मर्दाने स्वरों तक चढा कर मिला लिया ,और आँखें मूँद कर गर्दन नीचे झुकाए हुए ,अपने कंठ से जो स्वर उन्होंने भरा तो , मेरी आँखें भर आयीं ! कैसे बताऊं ,कितनी मिठास थी, कितनी तडप थी, कितना दर्द था, कितनी पीड़ा थी, उस एक स्वर में ? स्वर साधन करने के बाद उन्होंने मेरी रूचि का आदर करते हुए कबीरदास जी  का यह भजन गाया ! हमे आज वह भजन इसलिए याद आ गया क्योंकि इसके लगभग ४० वर्ष बाद ,१९८० =९० के दशक में वह एक बार कानपूर आये थे और  हमारे घर के सत्संग भवन में हमारे आध्यात्मिक गुरुदेव के चित्र के समक्ष उन्होंने वही भजन गाया था जो हम सब को बहुत अच्छा लगा ! हमारे माधव जी तो उस दिन से यह भजन अक्सर गाते रहते हैं !हमने उस दिन यह भजन रिकार्ड भी कर लिया था और वह रेकार्डिंग अभी भी हमारे पास है ! व्यवस्था हो जायेगी तो प्रियजन किसी दिन आपको सुनाऊंगा भी ! वह भजन था :-

 सतगुरु हो महाराज मोपे सांई रंग डारा !
शब्द की चोट लगी मेरे मन में बेंध गया तन सारा !
औषधि  मूल  कछू नहीं लागे  का करे  बैद बिचारा ! 
सुर नर  मुनि जन  पीर औलिया कोई न पावे पारा !
कहत  कबीर  सरव रंग  रंगिया  सभी रंग ते न्यारा!  
                                    सतगुरु हो महाराज मोपे सांई रंग डारा !

इसके अतिरिक्त उस्ताद ने एक और भजन सुनाया था , वह भी फिर कभी बताऊंगा ! आज इतना ही !

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क्रमशः 
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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