सोमवार, 9 मई 2011

एक आसरा तेरा हनुमत # 3 6 1

एक आसरा तेरा  हनुमत एक आसरा तेरा 
कोई और न मेरा तुझ बिन कोई और न मेरा 
एक आसरा तेरा 

महापुरुषों का कथन है कि, " जिसका भी आश्रय लिया हो ,उस पर अडिग भरोसा होना चाहिए ! "उनकी" क्षत्र छाया में, मेरा (आश्रित का) कभी कोई अकल्याण हो ही नहीं सकता ,ऐसा दृढ़ विश्वास होना चाहिए !" लेकिन आम तौर पर ऐसा नहीं हो पाता ! जब मन मांगी मुराद पूरी नहीं होती तो भरोसा डगमगा जाता है !

आपने देखा होगा कि कैसे सिनेमा घरों और टेलेविजन के अधिकांश फेमिली सोप नाटकों में , बेचारे परमपिता परमेश्वर को अथवा त्रिशूल धारिणी सिंहवाहिनी जगजननी माँ दुर्गा को, सरेआम ,मन्दिरों के खचाखच भरे प्रांगणों में कभी कभी कैसी कैसी खरी खोटी बातें सुननी पडती है ! उन्हें कहीं निराश प्रेमियों की , कहीं मोडर्न बहुओं के द्वारा सताई विधवा सासों की , अथवा कर्कशा सासों द्वारा उत्पीडित बहुओं के करुण रुदन के साथ साथ पूरी ताकत से मन्दिर के जहाँगीरी घंटे को जोर जोर से बजाते परीक्षा में फेल हुए विद्यार्थियों  के विषादाग्नि  में तपे वाग वाण सहन करने पड़ते  है ! ज़रा सोच कर देखिये क्या क्या कहते हैं लोग उनसे ? कैसे कैसे उलाहने देते हैं उनको ? वह बेचारे चुपचाप सुनते रहते हैं ! पत्थर के जो हैं , कर ही क्या सकते हैं ?

अब मेरी सुनिए ,१७-१८ वर्ष की अवस्था तक घर में रहा ! अपने संचित प्रारब्ध एवं माता पिता के संस्कारों तथा उनके पूजा पाठ और पुन्यायी के सहारे ,मेरी गाड़ी सब के साथ साथ भली भांति चलती रही ! और जब मेरा घर छूटा , मैं बनारस आया तो अपनी specific ज़रूरतों के लिए अब मुझे स्वयम ही अपनी अर्जी लगाने की जरूरत पड़ी ! इस उद्देश्य से विश्वविद्यालय के कुछ अन्य आस्तिक सहपाठियों के साथ मैंने किसी किसी मंगलवार को ,निकट के नगवा गाँव में स्थित श्री हनुमान जी के संकटमोचन मन्दिर में जाना प्रारम्भ कर दिया !

मेरी प्रार्थनाओं के उत्तर में श्री हनुमानजी ने ,मुझे बी.एच .यू के प्रवास के दौरान ,मेरी तब की १७-१८ वर्ष की अपरिपक्व बुद्धि के अनुसार कडवे ( ? ) और मीठे दोनों प्रकार के प्रसाद दिए ! आज ८२ वर्ष कि अवस्था में इसका उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ कि आपको उदाहरण देकर बता सकूं कि हनुमान जी का जो प्रसाद मुझे तब कडुवा लगा था वही कुछ समय के बाद मेरे लिए अत्यधिक मीठा बन गया और मैं आजीवन उसकी मधुरता चखता रहा ! जो तत्काल कडुआ लगा था वह वास्तव में अस्थायी रूप से कडुआ था और शीघ्र ही स्थाई रूप से  मीठा हो गया !

तात्पर्य यह है कि थोड़ी सी निराशा के कारण हतोत्साहित होकर हम अक्सर अपने आगे के प्रयास ढीले कर देते हैं और भविष्य में उसके कारण अधिकाधिक कष्ट झेलते हैं ! और हाँ, अन्त तक जब कोई दूसरा नहीं मिलता तो हम उस बेचारे "ऊपर वाले" को अपनी हार  का ज़िम्मेदार ठहरा कर मन्दिरों में घंटे बजा कर वैसा ही नाटक खेलते हैं जिसका चित्रण मैंने ऊपर किया है ! 

प्रियजन मैं अपने ८ दशकों के अनुभव के आधार पर आपको विश्वास दिलाता हूँ कि  इष्ट देव द्वारा, आपको दिया हुआ , आपकी कड़ी मेहनत का प्रसाद कभी कडुआ हो ही नहीं सकता ! जरा धीरज रख कर थोड़ी प्रतीक्षा करने पर वह फल जो आज खट्टा लग रहा है , कल तक ,पक कर मीठा हो जायेगा ! 

जो मिले फल ,प्यार से तू ,कर उसे स्वीकार
आज जो कच्चा है , वो कल हो जायेगा तैयार 
("भोला")


कल से सुनाऊंगा उस जमाने के ही ऐसे अनुभव जिनमे पहले तो खट्टे फल मिले पर
कुछ  समय बाद वो फल ही अति मधुर हो गये !
क्रमशः  

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निवेदक: व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला"
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4 टिप्‍पणियां:

Shalini kaushik ने कहा…

हार मान कर न कभी त्यागिये निज काम
कर्म किये जाइए लेकर हरी का नाम
जो मिले फल ,प्यार से तू ,कर उसे स्वीकार
आज जो कच्चा है , वो कल होयेगा तैयार
बहुत सुन्दर प्रेरणा भरी पंक्तियाँ.आभार

Patali-The-Village ने कहा…

सही कहा है आप ने, आस्था और विश्वास के साथ जो काम किया जाता है उसका फल मीठा होता है|

G.N.SHAW ने कहा…

काकाजी प्रणाम ...बहुत ब्यस्त हूँ ..न ब्लॉग लिख पा रहा हूँ , न पढ़ ! इ- मेल के लिए बैठा तो ज़रा सा यह भी देख लिया , बहुत सुन्दर अनुभव आपने ब्यक्त की है ! उससे मै सौ प्रतिसत सहमत हूँ क्योकि अनुभव करते रहता हूँ ! आप पहली बार मेरे ब्लॉग पर टिपण्णी दी ,इसके लिए सदैव आभार ! आप टिपण्णी दे या न दें ...मै हमेशा आप के बिचारो का आदर करता हूँ ! यथासंभव सभी पोस्ट कभर करने की चेष्टा लगी रहती है ! आप जैसे बरिष्ठ सज्जन का आशीर्वाद साथ हो उससे ज्यादा क्या चाहिए !

सहज समाधि आश्रम ने कहा…

nice post