सोमवार, 16 मई 2011

वो आये हमारा चमन खिल गया # 3 6 5

संकट से हनुमान छुडावें 

(गतांक से आगे )
यहाँ  देखते हैं , वहां देखते हैं 
उन्हें देखते हैं,  जहाँ देखते हैं  

वो आये मिरे घर बड़ी उनकी रहमत  
हम उनकी नजर से 'मकाँ'  देखते हैं

कभी अप्नी 'खोली' कभी उनकी गाड़ी 
ज़मीं   पर   पड़ा       आसमां देखते हैं
  
"भोला"  


सब कहते थे बलिया में "हरबंस भवन" और पुश्तैनी गाँव बाजिदपुर में खानदानी ऊंचे ऊंचे  २४ नक्काशीदार सागौन और देवदार की लकड़ी के भव्य खम्भों पर खड़ी विशाल मर्दानी कचहरी और दो बड़े बड़े आंगनों वाले ज़नान खाने के २० कमरे होते हुए कानपूर में मकान बनाने की क्या ज़रूरत है  ? लेकिन फिर भी सबकी बातें अनसुनी करके ,अम्मा ने वह घर कानपूर में बाबूजी के पीछे पड़कर ज़बरदस्ती बनवा ही लिया था और यह वही घर था जहां  तब ,( १९५० मे ) वह "देवीजी" मेरा interview ले रहीं थी !


हमारा यह घर पूरे मोहल्ले का सबसे सुंदर घर था ! उस एरिया के बाकी सब घर किराये पर उठाने की दृष्टि से बनाये गए थे ! जहां एक एक प्लाट पर ६ से ८ छोट छोटे फ्लेट बने थे वहीं उतनी ही जमीन पर हमारा वह दुमंजिला घर बना था ! हमारे घर का front elevation भी उस नगर में उन दिनों बन रहे अन्य मकानों से बहुत भिन्न और बड़ा ही आकर्षक था ! सुनते हैं आस पास के नगरों से शौक़ीन लोग हमारे घर का नक्शा देखने को आया करते थे फिर भी इस विचार से कि वह बड़ी कार अवश्य ही दिल्ली या लखनऊ की किसी बड़ी कोठी से आई होगी मेरा मन एक भयंकर inferiority  complex से जूझ रहा था !


अब मेरी तत्कालीन दयनीयता का आंकलन कीजिए :  मैं असहाय सा कभी अपने उस घर की और देख रहा था और कभी उन देवी जी की शानदार कार और तिरछी गांधी टोपी लगाये गढ़वाली शोफर को ! हाँ , ड्राइंग रूम में ,थोड़ी थोड़ी देर में ,बाबूजी की पैनी निगाहों से बचता हुआ मैं कनखी से "उनकी' भली भांति सजी संवरी - 'मेड अप' रूप सज्जा को चन्द्र चकोर सा निहार लेता था ! मेरा बीस वर्षीय तरुण मन उन देवी जी की वाणी - बीन की मधुर धुन सुनकर सपोले के समान मदमस्त हो कर झूम रहा था ! मैं इस कदर बेसुध हो गया था कि मुझे उन देवीजी के वे  बेतुके सवाल भी  उस समय  उतने बुरे नहीं लग रहे थे ! प्रियजन, यह मेरी तब की कच्ची उम्र की मजबूरी थी जिसने मुझे विवश कर रखा था!

बचपन से ही मुझे केवल एक शौक था - कार चलाने का ! सारे घर में  घू घू करता हुआ हाथों से हवा में स्टेअरिंग घुमाने का नाटक करते हुए काल्पनिक कार चलाता हुआ  मैं दिन भर हुडदंग मचाता रहता था ! शनी देव की कृपा से जब बाबूजी का कारखाना घर से कुछ दूर अगले नगर में स्थापित हुआ तब आने जाने के लिए अश्व द्वारा संचालित रथों का प्रयोग बाबूजी के लिए अनिवार्य हो गया ! जब किराये की सवारियों से दुखी हुए तो एक सुंदर सा अन्य पशुओं से बिलकुल  फरक - "ग्रे" ( काले और सफेद के मिश्रण के रंग का ) तगड़ा अरबी घोड़ा और उसके साथ एक तांगा भी खरीदा गया ! छोटा था पर मुझे उस घोड़े से कुछ दिनों में ही बहुत प्यार हो गया ! लेकिन कुछ ही दिनों में जब हम सब बलिया गये थे हमारे अफीमची साईस ने वो घोड़ा कहीं अंतर्ध्यान करा दिया और यह ऐलान कर दिया की घोड़ा अचानक इस संसार से कूच कर गया ! हमे उसकी बात पर विश्वास  नहीं  हुआ लेकिन बाबूजी ने उस, तीन पुश्त से गाँव में हमारे वंशजों की सेवा करने वाले साईस को माफ़ कर दिया ! धर्म का एक सूत्र जो बाबूजी अपनी प्रार्थना में नित्य बार बार दुहराते थे , वह था :

दया धर्म का मूल है , नरक मूल अभिमान
तुलसी दया न छाडिये जब लगि घट में प्राण 
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प्रियजन आत्म कथा है ये, जैसे जैसे जो कुछ प्यारे प्रभु की प्रेरणा से याद आ रहा है लिख रहा हूँ ! मुझे कोई कोशिश नहीं करनी पडती है !"वह" जो लिखवाते है लिख देता हूँ ! यदि आपको कुछ अनुप्युक्त लगे तो न पढिये ! ये भी मैं नहीं कह रहा हूँ ,वह ही लिखवा रहे हैं! 

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क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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3 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

आपका संस्मरण बहुत अच्छा लग रहा है । थोडा नोस्टाल्जिया हो रहा है।

bhola.krishna@gmail .com ने कहा…

केवल् बीता कल ही नही मानव का आज और आने वाला कल भी
उतनी ही आनन्दप्रद अनुभूतियो से भरा है ! हमे बस महसूस करना है !
सदा आनन्दित रहिये !

Mohit Kumar Srivastava ने कहा…

अति सुन्दर