रविवार, 16 अक्तूबर 2011

शरणागति

"शरणागतवत्सल परमेश्वर"
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१९३४-३५ में जब मैं ५ वर्ष का था , आजकल के "डे केयर सेंटर" जैसे एक घरेलू विद्यालय में मेरा दाखिला कराया गया ! उन दिनों हमारे बाबूजी (पिताश्री) एक अंग्रेजी कम्पनी के उच्च अधिकारी थे और हम एक बड़े बंगले में अंग्रेज परिवारों के बीच रहते थे ! लेकिन आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि उस जमाने में भी ,"सान्दीपन आश्रम ","बाल्मीकि आश्रम"और "गांधी आश्रम " की तरह ,हमारे उस "डे केयर सेंटर" का नाम था ,"बाल शिक्षा आश्रम"!उसके संस्थापक थे एक खादीधारी,गांधीवादी देश भक्त नवयुवक और उनकी नवविवाहिता देविओं जैसी स्वरूप वाली पत्नी आश्रम के प्रति उतनी ही समर्पित थीं ;! उस आश्रम जैसे "डे केअर" में हमारे गुरुजी और गुरुमाँ ,हम बच्चों से नित्य प्रातः जो प्रार्थना करवाते थे ;उसके बोल थे----

शरण में आये हैं हम तुम्हारी ,दया करो हे दयालु भगवन !
सम्हालो बिगडी दशा हमारी , दया करो हे दयालु भगवन !!

हम् सब "तोते" के समान इस प्रार्थना को नित्य प्रति गाते रहे ! आश्रम के बालकों में मैं सर्व श्रेष्ठ गायक था अस्तु गुरु माँ बाजा बजातीं थीं और मुझे आगे आगे प्रार्थना गानी पडती थी ! सो मैंने यह प्रार्थना इतनी गायी कि उसका एक एक शब्द मुझे जीवन भर के लिए कंठस्थ हो गया !कोई सवाल ही नहीं है कि तब ५ -६ वर्ष की अवस्था में हम में से कोई एक बच्चा इस प्रार्थना का सही अर्थ समझ पाता ; इसके गहन भाव को ,ईश्वर की असीम कृपा को हृदय में समा पाता! प्रियजन ,इस प्रार्थना में व्यक्त शरणागति की उच्चतम भावना तो हमें , इस भौतिक जगत की विषम वास्तविकताओं से अनेकों वर्षों तक जूझ लेने के बाद ही समझ में आयीं !

बाल शिक्षा आश्रम की अपनी उन "गुरु माँ" को और गुरु को मैं शत शत नमन करता हूँ जिन्होंने शैशव में ही मेरे मानस में शरणागति के विशाल वटवृक्ष का बीजारोपण कर दिया !

सच तो यह है कि शरणागति का महत्व तो मुझे वर्षों बाद भी तब समझ में आया जब मुझे गुरुजनों की महती कृपा से सद्बुद्धि, सद्ज्ञान एवं विवेक की प्राप्ति हुई ! मुझे अहसास हुआ कि प्रभु का शरणागत होने के लिए ऐसी ही प्रार्थना तो त्रेता युग में राक्षस राज रावण के छोटे भाई विभीषण ने अपने प्रभु बनवासी श्री राम से की थी तथा द्वापर में पांडुपुत्र अर्जुन ने योगेश्वर श्री कृष्ण से की थी !
"श्रीकृष्ण का शरणागत अर्जुन"

महाभारत के युद्ध में ,कायरपने के भावावेश में आकर व्याकुल अर्जुन ने अपना क्षत्रिय धर्म छोड़ दिया , और विषम परिस्थितियों से घबरा कर उसने शंकर जी से प्राप्त अपना अजेय गांडीव धनुष भी धरती पर डाल दिया ;किंकर्तव्यविमूढ़ हो अति कातर वाणी में वह श्री कृष्ण से बोला

" कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः -----------------मां त्वां प्रपन्नं "
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय .२ ,श्लोक - ७ )

भावार्थ :
कायरपन से नष्ट हुआ मम सदस्वभाव है
मोहित मन ने भुला दिया निज धर्म भाव है

शरणागत हो ,शिष्य बना मैं पड़ा सरन में
निश्चित कहो ,करूं क्या भगवन ,मैं ऐसे में
(भोला)

अर्जुन जब पूर्ण रूप से श्री कृष्ण के शरणागत हुआ तभी योगेश्वर ने अपने भ्रमित सखा को उसके लिए निश्चित कल्याणकारी सूत्र बतलाये ! शरणागत होते ही कृष्ण ने उसे अपनाया और विशेष कृपा कर के उसका मार्ग-दर्शन किया ,उसे दिव्य दृष्टि दी और पूर्णत : समर्पित हो कर अपना कर्म करते रहने की प्रेरणा दी -और उसे विश्वास दिलाया कि :

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पयुर्पासते !
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् !!
(गीता ,अध्याय १८, श्लोक २२)
भावार्थ
जो जन मुझे भजते सदैव अनन्य भावापन्न हो !
उनका स्वयम मैं ही चलाता योग-क्षेम प्रसन्न हो !!
(दीना नाथ दिनेश)
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद भक्त : संग वर्जित: !
निरबैर: सर्व भूतेषु य: स मामेति पांडव :!!
(गीता - अध्याय ११ ,श्लोक ५५ )
भावार्थ
मेरे लिए ही कर्म करते और मेरे भक्त हैं !
वे मिलेंगे मुझे जो जन वैरहीन विरक्त हैं!!
(भोला)
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भक्तवत्सल श्रीकृष्ण ने तो अपने उपरोक्त आश्वासन से सभी उन शरणागत भक्तों के लिए निज धाम के द्वार खोल दिए जो पूर्ण निष्ठा व समर्पण के साथ अपना स्वधर्म निभातेहैं,निष्काम भाव से अपने सभी कर्तव्य कर्म तत्परता से करते हैं तथा
जो सभी प्राणियों से प्रीति करते हुए भी पूर्णतः विरक्त हैं ,आसक्ति रहित हैं और जो पूर्णत :अपने इष्टदेव के आश्रित हैं !!
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क्रमशः
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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