शनिवार, 19 नवंबर 2011

हमारा धर्म

धर्म और अध्यात्म


प्रियजन मैं भारत के उन साधारण नागरिकों में से एक हूँ जो यथार्थ आध्यात्म के ज्ञान से पूर्णतःअनभिज्ञ हैं ! लगभग ३० वर्ष की आयु तक ,पारिवारिक परंपरागत सनातनी कर्मकांड को करना ही हमारी "धार्मिकता" का प्रतीक था ! त्योहारों -पर्वों पर व्रत-उपवास रखना,तथा गंगास्नान करना, मंदिरों में देवताओं की मूर्ति पर दूर से फूलों की बौछार करना , हनुमान जी की मूर्ति के मुख में ठूस ठूस कर मिठाइयां भरना , मंदिर में घंटा बजा कर प्रवेश करना और घंटा बजा कर ही वहाँ से निकलना, आरती की थाल में कुछ धन राशि डालना ,हाथ में माला घुमाते रहना ही हम अपना धर्म समझते थे ! ऐसी धार्मिकता का प्रदर्शन कर के हम अपने को अति धर्म परायण या धार्मिक सिद्ध करके समाज में प्रसिद्धि पाने का प्रयास भी करते थे;जिसमे हम थोड़ा बहुत सफल भी हो जाते थे ! अच्छा लगता था जब हम किसी को यह कहते सुनते थे कि, "भोला बाबू इस उम्र में ही कितने धार्मिक हो गए हैं !" पर वास्तव में क्या हम धार्मिक थे ?

अब जब अतीत के पृष्ठ पलटता हूँ तो ऐसा लगता है कि तब ह्म मंदिरों -देवालयों में केवल स्वार्थ सिद्धि के लिए ही जाते थे ! हम अपने "इष्ट देवों" से कुछ मांगने तथा उनसे कुछ प्राप्त करने की आशा ही हमे वहाँ ले जाती थी ! मन में कामना पूर्ति की आशा होती थी और इष्टदेव के "स्टोक" में "इन्वेस्ट" करके लाभान्वित होने की अभिलाषा रहती थी ! आरती की थाली में धन डालते समय आँख मूंद कर सम्भवतः इष्ट से सीधे ही कुछ मांगते थे या मंदिर के गोलक में गुप्त दान करते समय हमारे मन में यह लालसा बनी रहती थी कि काश मेरी यह दान दी हुई रकम दसगुनी होकर मेरे पास लौट आये ! सच पूछो तो उस समय हमारा शरीर तो मंदिर में होता था पर हमारा ध्यान श्रीमन नारायण के श्रीचरणों पर न होकर श्री नगद नारायण के चिंतन में लगा होता था ! इन सभी कर्मकांडों में हमारा मन / ध्यान भगवान की ओर न होकर केवल अपनी स्वार्थ सिद्धि की ओर होता था !

मंदिरों में और घर में आयोजित पूजा पाठ में हमारे पुरोहित ही निर्धारित कर्म कांड का पालन करते थे और हम बंदरों की तरह , उन मदारी पंडित जी के आदेशानुसार यंत्रवत वह सब क्रियाएँ करते रहते थे जो वह प्रत्येक मंत्रोचारण के बाद हमे बोल चाल की भाषा में समझाकर उसे करने का आदेश देते थे ! हमारा ध्यान भगवान की मूर्ति से कहीं अधिक उनके श्री चरणों के निकट चांदी के कटोरे में रक्खे ,नये लाल कपड़े से ढंकें गर्म गर्म देशी घी के हलुए तथा निकट ही एक बड़े लोटे में रखे पंचामृत पर रहता था !

जैसे जैसे समय बीतता गया ,लगभग ३० वर्ष की आयु में गुरुजन के संसर्ग में आने पर आँखे खुलीं ,कुछ बोध हुआ तो समझ में आया कि इन सब कर्मकांड और बाह्यआडम्बर और पारम्परिक मान्यताओं में "प्रेम भाव" का पूर्णतः अभाव है! इनका फल केवल स्वार्थ सिद्धि है 'सांसारिक सुख -सम्पदा प्राप्त करने की महत्वकांक्षा है ! प्रेम भाव के अभाव में इन विधि विधानों को अपनाने से अपने इष्ट की उपस्थिति का अहसास नहीं होता !जो भी धर्म -कर्म करो उसे प्रेम भाव से करो !प्रेम भाव में ही प्रभु का निवास है !

सच्चा धर्म है प्रीति पथ ,समझो शेष विलास !
मत मतान्तरजंगल में ,अणु है सत्य विकास !!

हो तब यह पथ सुगम जब ,हो प्रेम व्रत नेम !
बस जावे जब रंग यह , दीखे प्रेम ही प्रेम !

प्रेम भक्ति है धर्म का सार सुमर्म सुविचार
फीका है इसके बिना वाक्य जाल विस्तार

प्रिय रूप निज रूप है प्रेम रूप है ईश
सिमरन चिंतन प्रेम से है पूजन जगदीश

सद्गुरु के सान्निध्य में रहने पर ही मुझे धर्म और अध्यात्म के भाव का बोध हुआ ,मैंने उनसे जाना कि धर्म में आचार और विचार दोनों ही समाये हैं! आत्मा सम्बन्धी ज्ञान को अध्यात्मवाद कहते हैं !आत्मा को लक्ष्य रख कर जो बात की जाय , वह अध्यात्म वाद है !धर्म की उत्पत्ति अध्यात्मवाद से होती है ! मैं आत्मा हूँ ;इसलिए मेरा धर्म मेरा अपना प्रेम मय स्वरूप ही है !प्रेम ही परम धर्म है !प्रत्येक मनुष्य के मन में प्रेम का पथ अपनाने की चाह स्वाभाविक है क्योंकि प्रेम सभी प्राणियों के स्वभाव में निहित है !प्रेम के पथ में पवित्रता है! प्रेम ही जगत का आधार है !

प्रेम ही धर्म का सार है! मेरा धर्म प्रभु का प्रेम है! प्रभु प्रत्येक प्राणी में विराज मान है ;उससे प्रेम करना ही प्रभु से प्रेम करना है !राम के प्रेम में राम की भक्ति में मन को रमाने से जो शान्ति जो सुख और जो संतोष मनुष्य को प्राप्त होता है वह किसी भी कर्मकांड से प्राप्त हो ही नहीं सकता ! आत्मा की तृप्ति ,"प्रेमामृत" पान करने से होती है !प्यार ढूढने आपको दूर नहीं जाना पडेगा ,प्रभु ने अपनी श्रृष्टि के कण कण में प्यार भर रखा है -


जगत में प्यार हि प्यार भरा है,
प्यार बिना कुछ नहीं धरा है

कोयल बन में कूक सुनाये , पी के गीत पपीहा गाये
भंवरा फूलों पर मडराये , दीपक लौ पर शलभ जरा है
जगत में प्यार हि प्यार भरा है, प्यार बिना कुछ नहीं धरा है
जगत में प्यार हि प्यार भरा है

वृक्ष प्रेम से छाया कर के थके पथिक का श्रम हरते हैं
बादल सूखे पड़े खेत पर प्रेम सहित वर्षा करते हैं
जगत में प्यार हि प्यार भरा है, प्यार बिना कुछ नहीं धरा है !!
जगत में प्यार हि प्यार भरा है

पलवल करे प्रेम नदिया से , नदियाँ सागर से करती है
सागर प्रेम करे बदली से , बदली पर्वत से करती है
जगत में प्यार हि प्यार भरा है, प्यार बिना कुछ नहीं धरा है !!
जगत में प्यार हि प्यार भरा है

करले प्यार , सर्वव्यापक से, रे मन मेरे विलम न कर अब
हरघट में "प्रभु" का दर्शन कर उनपर लुटा प्यार अपना सब
मानव धर्म "प्यार" है प्यारे ,प्यार बिना सब कुछ बिगरा है !!
जगत में प्यार हि प्यार भरा है
("भोला")
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क्रमशः
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्ण "भोला" श्रीवास्तव
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4 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख्…………है प्रेम जगत मे सार और कुछ सार नही तू कर ले प्रभु से प्यार और कुछ प्यार नही।

Shikha Kaushik ने कहा…

bahut sundar bhavon se yukt prastuti hetu aabhar

रेखा ने कहा…

मानव धर्म "प्यार" है प्यारे ,प्यार बिना सब कुछ बिगरा है !!
जगत में प्यार हि प्यार भरा है..

बहुत ही सुन्दर विचार हैं आपके ...हमसभी लोगों को आप जैसे लोगों से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है

Bhola-Krishna ने कहा…

वन्दना बेटी
"है प्रेम जगत मे सार और कुछ सार नही , तू कर ले प्रभु से प्यार और कुछ प्यार नही "! आपकी इस पंक्ति ने मन आनंदित कर दिया ! मेरे पूरे संदेश का सार इस पंक्ति में समाहित है ! सभी पाठकों के लाभार्थ आगे की पंक्तियाँ लिखने का कष्ट करती तो अच्छा लगता ! धन्यवाद
!++++!
शिखा बेटी ,
आपके लम्बे मौन के कारण चिंता हो रही थी ! आशा है आप दोनों कौशिक बहनें स्वस्थ सानंद हैं ! राम कृपा आप पर सदा बनी रहे!कमेन्ट के लिए धन्यवाद !
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रेखा बेटी
संत कबीर ने कहा था "मोको कहाँ ढूढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में "! किसी अन्य ने कहा है " मेरे दिल में दिल का प्यारा है मगर मिलता नहीं " ,तथा "दिल के आईने में है तस्वीरे यार , जब जरा गर्दन झुकाई देख ली " अस्तु बेटी जी ! हम सब के "आत्मा" उस परमानंद के अंश रूप में आनंद ही आनंद से भरे हैं ! लूटिये और लुटाइये उसे सर्वत्र !सबसे उत्तम पूजा यही है !