सोमवार, 31 जनवरी 2011

साधन -"भजन - कीर्तन" # 2 8 2


हनुमत कृपा - अनुभव                 साधक साधन साधिये                                             
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साधन -"भजन - कीर्तन"                                                                                     (२८२)

राष्ट्र पिता "बापू" का "पावर हाउस" था उनका "दृढ़  निश्चयी मन" और उस पावर हाउस का "जेनरेटर" था  उनका  अदम्य  "आत्मबल" ! यह "जेनरेटर" चलता था  "परमपिता परमात्मा - "सर्व शक्तिमान प्रभु की अहेतुकी कृपा'" के 'ईंधन'" से ! बापू को यह ईंधन किसी "कोएलरी" ,"जल प्रपात" (हायड्रो प्लांट) अथवा परमाणु  (न्यूक्लियर ) संयत्र से नहीं प्राप्त होता  था  ! "बापू" को वह ऊर्जा  प्राप्त होती  थी  उनकी अपनी अनोखी "आध्यात्मिक साधना" से जिसमें  शामिल थी सामूहिक ,सब धर्मों की मिलीजुली प्रार्थना  ,सामूहिक  "रामधुन गायन" और  व्यावहारिक एवं  वास्तविक "परपीर हरण" एवं "परदुख निवारण" हेतु  की  हुई "सेवाएं " !

१९४८ की आप बीती सुना रहा था , इसी प्रसंग में बापू से ही सम्बन्धित १९४६ की कुछ बातें याद आयीं !  ग्रीष्मावकाश में मुझे अविभाजित भारत के पंजाब प्रान्त के गुजरात जिले के एक गाँव में १५ - २० दिन रहने का अवसर मिला ! तभी ह्मारे मेज़बान परिवार के एक  सम्बन्धी श्री गुरुचरण दास जी , जोहन्सबर्ग , साउथ अफ्रीका से विस्थापित हो कर वापस   सपरिवार भारत आ गये ! उनसे ज्ञात हुआ क़ि "बापू " के अथक प्रयासों के बावजूद उस देश के सामंतवादी श्वेतशासकों की अनीति एवं अत्याचारों में कोई कमी नहीं आई थी  ! वहाँ  की अश्वेत  जनता अब भी उतनी ह़ी प्रताड़ित और पीड़ित थी जितनी वह सदा से थी! इधर भारत में उस समय तक  बापू के अहिंसक असहयोग आंदोलनों के कारण  ब्रिटिश शासन से मुक्ति की समुचित आशाएं  जग चुकी थीं ! 

अफ्रीका से आया वह पूरा परिवार बहुत अनुशासित और पूर्णतः "बापू भक्त" था ! उनकी पूजा स्थली में अन्य देवीदेवताओं के चित्रों के साथ बापू का चित्र भी था ! बापू की  वन्दना में एक दिन मैंने उस परिवार को एक गीत गाते सुना , वैसा कोई गीत तब तक  भारत में  प्रचलित नहीं था ! मुझे वह गीत बहुत अच्छा लगा तो मैंने उनके बच्चों से उसे सीख भी लिया ! पर कालान्तर में उस गीत के स्थायी के अतिरिक्त मुझे और कुछ याद नहीं रहा ! 


धीरे धीरे  मैंने उस स्थायी के ऊपर अपने शब्दों में एक नयी रचना कर ली और अपनी बहिन  तथा  अन्य छोटे बच्चों को वह गीत सिखाया !वह गीत उनके स्कूलों में ,स्वतन्त्रता दिवस ,गणतन्त्र दिवस तथा बापू के जन्म एवं निर्वाण दिवस के अवसर पर खूब गाया और सराहा गया ! 

संशोधनों के बाद उस गीत का जो प्रारूप बना मैं आपको सुना देता हूँ :

साबरमती से चला संत इक अहिंसा का व्रत धारी !
दुर्बल काठी हाथ में लाठी ,पुरुष पूर्ण अवतारी !!

सांची लगन लगाय "राम" से , वह निकला जिस जिस मुकाम से !
मतवारे  हो चले ,संग उसके, असंख्य नर नारी !!
साबरमती से चला संत इक अहिंसा का व्रत धारी !!

जाति भेद औ  छुआ छूत मिट गये ,और सब "हरि के जन" बन गये !
पारसमणि  बापू ने कंचन किये सभी नर नारी !!
साबरमती से चला संत इक अहिंसा का व्रत धारी !!

पतितजनों  को गले लगाया ,अबलाओं को सबल बनाया !!
"राम" चरण रज से जैसे तर गयी अहिल्या नारी !
                              साबरमती से चला संत इक अहिंसा का व्रत धारी !!

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आशा है आप समझ गये होंगे क़ि "उन्होंने"  बापू वाला प्रसंग मुझसे क्यों लिखवाया ! प्रियजन ! सोंचता हूं क़ि यह प्रसंग अब यहीं समाप्त कर दूँ ! पर यह मेरी सोंच है और इस समय यह मेरी इच्छा भी है ! मुझे नहीं ज्ञात क़ि मेरे "उनकी " क्या इच्छा है ! भाई अपनी वह  ही जानें!उनसे कौन पूछे ?  कल वह जो लिखाएंगे आपकी सेवा में प्रस्तुत करूंगा !
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निवेदक: वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

रविवार, 30 जनवरी 2011

साधन - "भजन कीर्तन" # 2 8 1

हनुमत कृपा - अनुभव
साधक  साधन साधिये                          
                              ३० जनवरी १९४८ 

                                 मेरे मन कुछ और था ,'करता' के कुछ और" !


मेरे अतिशय प्रिय पाठकगण ! मैं  अपनी धुन में  आपको अपने निजी अनुभव के आधार पर कलिकाल से ग्रस्त मानव  को "श्रीहरि" की विशेष कृपा से प्राप्त  भक्ति करने के सरलतम साधन "भजन कीर्तन" की महत्ता समझाने में व्यस्त था ! पर आज का  यह   विशेष दिन श्रीहरी हमे कैसे भुलाने देते ! आज प्रातः ही "उन्होंने" मुझे याद  दिलाया क़ि आज  ह्मारे  राष्ट्र पिता "बापू" महात्मा गांधी का  निर्वाण दिवस है !

अब आप ज़रा मेरे पिछले संदेशों के पृष्ठ पलटें !आप देखेंगे क़ि ह्मारे ,परम कृपालु प्रभु ने भूलने का अपराध मुझसे होने  ही नहीं दिया !  मैंने यू.एस.ए. से जो संदेश २९ जनवरी को भेजा और जो  ३० जनवरी को भारत पहुंचा  उसमें इत्तेफाक से (अनजाने ह़ी सही)  मैंने जो ," तू ही तू " वाला भजन आपको सुनाया उसमे निहित संदेश , पूरा का पूरा , ह्मारे "राम" भक्त बापू" की भावनाओं को अपने शब्दों में सिमटे हुए था ! 
                                                        हे राम !


                        डाल डाल में , पात पात में, मानवता के हर जमात में ,
                        हर मजहब ,हर जात पात में , एक तू ही  है ,तू ही तू  !!
                                                      तू ही तू !

प्रियजन ! आज जब  यहाँ यू.एस.ए. में  ३० जनवरी है और  हमें  प्यारे बापू की याद आ ही गयी है तो सोचता हूं आपको  १९४८ के उस विशेष दिन "३० जनवरी " की आप बीती  अब सुना ही दूँ आपको ! मैं  तब "बी.एच. यू".बनारस में पढ़ता था ! हमारी बड़े दिन की छुटियाँ खतम हो रहीं थीं ! उस दिन मैं रमेश दादा वाली भाभी से मिलने ,दादा की "बेनिया" स्थित ससुराल गया था ! बी.एच.यू के ही कुछ अन्य मित्र भी ह्मारे साथ थे !


दोपहर के खाने के बाद ,गाना बजाना शुरू हुआ ! सब जानते थे क़ि मैं थोड़ा बहुत गा लेता हूँ ,इसलिए मुझसे भी गाने को कहा गया ! उन दिनों मैं "मुकेशजी" के "अंदाज़" फिल्म के गाने तथा पंकज मल्लिक का उन दिनों का एक मशहूर नगमा बहुत गाता था , वह था -
            
               " ये रातें ये मौसम ये हसना हसाना, मुझे भूल जाना इन्हें ना भुलाना "


यह गीत यूनिवर्सिटी में बहुत पसंद किया जाता था ! इसे सुनने के लिए  बहुत फरमाइशे होतीं थीं ! मैं यही गीत सुनाने को तैयार हुआ  पर किसी ने टोक दिया ," क्या रोने धोने वाला गाना गा रहे हो भैया , मुकेश वाला कोई गाइए - "तू कहे अगर जीवन भर मैं गीत सुनाता  जाऊँ " ठीक रहेगा" !


मैं गाना गाने जा ही रहा था कि डाक्टर साहिब के एक नौकर ने बाहर से आकर खबर दी कि दिल्ली में कोई बड़ी दुर्घटना हो गयी है  जिसके  कारण  देश भर में  हिन्दू-मुस्लिम दंगे होने की सम्भावना हो गयी है और  बनारस के सभी बाज़ार बंद हो गये हैं ! गाने बजाने का माहौल खतम हो गया ! नगर के सभी रास्ते सुनसान हो गये! एक भयंकर चुप्पी भरी उदासी सर्वत्र छा गयी ! हमें चिंता हुई कि ऎसी स्थिति में ह्म कैसे यूनिवर्सिटी वापस जा पाएंगे ! सड़कों पर न एक्के थे ,न रिक्शे ! आशंकित  नर नारी अपने अपने घरों में दुबक कर बैठ गये थे ! 

घंटे भर बाद स्पष्ट हुआ कि "बापू चले गये" ! किसी पागल व्यक्ति ने उनको बिरला भवन में उनकी प्रार्थना सभा के बाद गोली मार दी , और "हे राम " उच्चारण के साथ बापू ने वहींउसी क्षण अपना शरीर त्याग दिया ! बापू के आकस्मिक निधन का समाचार सुनते ही राष्ट्रकवि रामधारी सिंह "दिनकर" के  हृदय की पीड़ा इन शब्दों में मुखर  हुई  :                                                                                 

                       यह लाश मनुज की नहीं , मनुजता के सौभाग्य विधाता की 
                       बापू  की   अरथी  नहीं   चली   ये  अरथी   भारत  माता  की !!
                                              -------------------------


प्रियजन ! "उनकी" प्रेरणा से मैं अपने मूल प्रसंग , "भजन'" से भटक कर, उस महामानव की चर्चा करने लगा जिसने अपनी प्रार्थना सभाओं में  "भजन-कीर्तन" और "राम धुन"  गाकर और जनसाधारण से गवाकर गुलाम भारत के नागरिकों में अथाह साहस ,मनोबल एवं आत्मबल भर दिया !"रामधुन" के द्वारा ,स्वयं उन्होंने वह दिव्य और विलक्ष्ण शक्ति अर्जित की जिसके सन्मुख विश्व के  सबसे ताकतवर साम्राज्यवादी शाशक को  झुकना पड़ा !  भजनों से मिली इतनी बड़ी उपलब्धि क्या कोई भारतीय कभी भुला सकता है ?  बापू की स्मृति जगाने वाला यह प्रसंग अभी पूरा नहीं हुआ है ! कुछ बातें और याद आ रही हैं ,जिन्हें कल सुनाऊंगा  !


क्रमश 
निवेदक : वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

शनिवार, 29 जनवरी 2011

साधन-"भजन कीर्तन" # 2 8 0

हनुमत कृपा-अनुभव 
साधक साधन साधिये                   साधन-"भजन कीर्तन"

अपने प्रवचन में उन महापुरुष ने ह्म सब "आत्माओं" को "जलबिंदु" और हमारे प्यारे पिता "परमात्मा" को "सिन्धु" की उपाधि से नवाज़ा ! महासागर की उत्तुंग तरंगों पर शेष शैया पर शयन किये देवाधिदेव विष्णु के श्रीचरणों को अपने भक्तिभाव से भरे  आद्र हृदय की तरलता से पखारते हुए  ह्म आत्माओं का भी चित्रण करते हुए उन्होंने  कहा !" भजन को सार्थक  बनाने के लिए भक्त को तरल होना ही पड़ेगा अन्यथा वह जहाँ है वहाँ पर ही हिमशिला के समान जमा पड़ा रहेगा !"  

महापुरुष का प्रवचन सुनते ही मुझे अपनी २००८ की एक रचना याद आयी जिसकी प्रेरणा हमे केनेडा से मिली थी पर जिसे मैं उस "अदृश्य  शक्ति" के सहयोग के बिना पूरा कर ही नहीं सकता था ! उस रचना का मूल भाव महाराजजी के प्रवचन से कुछ कुछमिलता -  जुलता  है ! महराजजी द्वारा बताये ,प्यारे प्रभु के साथ जीव के "सागर-जल बिंदु" सम्बन्ध के अतिरिक्त मैंने "श्रीहरी" से प्राप्त  प्रेरणाओं के आधार पर इस रचना में  "प्रियतम प्रभु" की सर्वव्यापकता  तथा उनके विभिन्न स्वरूपों के साथ ह्म आत्माओं के गहरे सम्बन्ध की ओर इंगित किया है !
                                                         "भजन"
 रोम रोम  में  रमा  हुआ  है  मेरा  राम  रमैया  तू !    
सकल श्रृष्टि का सिरजनहारा सब जग का रखवैया तू !!
तु ही तू ! तु ही तू !!
डाल ड़ाल में, पात पात में ,मानवता के हर जमात में !
हर मजहब, हर जात-पात  में , एक  तुही है, तू ही तू !!
तु ही तू ! तु ही तू !!
सागर  का खारा जल तू है,बादल में हिम कण में तू है !
गंगा का  पावन  जल  तू  है , रूप  अनेक  एक  है  तू !!
तु ही तू ! तु ही तू !!
चपल पवन के  स्वर में तू है , पंछी के कलरव  में तू है !
भंवरों  के  गुंजन  में  तू  है ,  हर  स्वर में  ईश्वर  है तू !!
तु ही तू ! तु ही तू !!
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क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

साधन: "भजन-कीर्तन" # 2 7 9


हनुमत कृपा- अनुभव 
साधक साधन साधिये                             साधन: "भजन-कीर्तन" 

प्रियजन ! इस संसार में जन्म लेने के बाद अपने मानव तन से "जीव" जो कुछ भी करता है ,जो कुछ भी  देखता है ,जो कुछ भी सीखता है ऑर उसे जो कुछ भी "अनुभव" होते   हैं , वे सब ,सच पूछो तो, उस परम पिता परमात्मा की करुणा ऑर अनुकम्पा जनित "कृपा" के कारण ही होते हैं !  दुर्भाग्य यह है क़ि अक्सर सफल मानव अपनी सफलताओं  का श्रेय या तो अपनी निजी कार्यकुशलता को  या किसी अन्य सांसारिक व्यक्ति या परिस्थिति के सह्योग को देता है !

अपने सम्पूर्ण जीवन में मैंने जो कुछ भी कर्म किये ऑर उन कर्मों के फलस्वरूप मुझे जो भी यश-अपयश ,सुख-दुःख या अनुकूल -प्रतिकूल फल प्राप्त हुए , वे सब ही मेरे प्यारे प्रभु की मुझ पर कीं हुईं असंख्य "कृपा अनुभवोँ" के उदहारण स्वरूप हैं ! मैं तो अपनी प्रत्येक सांस को, अपने हृदय की  प्रत्येक धड़कन को , उनकी "कृपा का  प्रसाद" ही समझता हूँ ! मेरे लिए ,संसार में मेरा जो है वह सब मुझे "हनुमत कृपा प्रसाद" स्वरुप ही प्राप्त हुआ है !

                                                       भजन
        
आज कल यहाँ उत्तरी पूर्वी यू.एस.ए में भयंकर बर्फबारी हो रही है ! क्रिस्मस की रात से ही जो डेढ़ दो फीट मोटी  बर्फ की तह जमी वो आजतक जहाँ की तहां पड़ी है !अभी भी रोज़ ही बर्फ गिरती है ऑर बर्फ के तह  की मोटाई दिन पर दिन बढ़ ही रही है घटने का नाम  नहीं लेती ! तापमान दिन रात में कभी भी शून्य अंक शेल्शिअस से ऊपर नहीं जाता ! बर्फ गले भी तो कैसे गले ? मौसम के जानकार इसे " भयंकर" कहते हैं  पर वास्तव में मुझे यह बड़ी आनंद दायक प्रतीत होती है , देखा कितनी कृपा है "उनकी" ह्म पर !

ये बर्फबारी की बात चली तो याद आया क़ि हाल में मैंने  एक महापुरुष का प्रवचन सुना ! वह "भजन कीर्तन" की महत्ता का वर्णन कर रहे थे ! उन्होंने कहा : "जीवात्मा " जल के  एक बिंदु के समान है ऑर परमात्मा है अथाह सागर के सद्रश्य ! "जलबिंदु" वाष्प बन कर  आकाश मार्ग से पर्वतों के शिखरों पर हिमशिला बन कर जम जाती जाती है ऑर उसी रूप में जमी हुई वह अस्थिर बूँद ध्यानमग्न साधकों के समान हो जाती है ऑर कालान्तर तक  निश्चल ,आसन लगाये , मौन तपश्चर्या करती है ! साधना पूरी होने पर वह अपना मौन तोड़ कर पर्वत शिखर से दौड़ पड़ती है एक नदी के रूप में ,कल कल नाद करती, अपने अभीष्ट उस सागर की ओर उससे मिलने को ऑर पुनः उसमे समा जाने को,!

ह्म आत्माएं भी परमात्मा से बिछड़ कर सांसारिक काम काज ऑर औपचारिकता निभाने  में "बर्फ" की तरह जमे रहते हैं ऑर उस पल तक उस स्थिति में पड़े रहते हैं जब तक परमात्मा स्वयं ह्म पर कृपा करके अपनी भक्ति के ताप से हमे पिघला कर अपनी ओर प्रवाहित नहीं कर देते !

जल बिंदु को आत्मा ऑर सागर को परमात्मा की संज्ञा देकर उन महात्मा ने यह बताया क़ि भक्ति के ताप से गल कर ,तरल होकर यदि ह्म सब भी पहाड़ी नदियों के समान कल कल नाद करते हुए ,जोर शोर से हरि भजन कीर्तन करें तो ह्म भी अपने इष्ट परमात्मा से अवश्य ही मिल जायेंगे!
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क्रमश:
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला" 

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

साधन -"भजन कीर्तन" # २ ७ ८


हनुमत कृपा - अनुभव 
साधक साधन साधिये                              साधन -"भजन कीर्तन"

आज का भजन 
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अब  तुम  बिन  को  मोरि राखे  लाज 
मेरे  राम गरीब निवाज !!

मैं असहाय अधम अज्ञानी ,पतितन को सरताज !
पतित उद्धारन बिरद आपनों सिद्ध करो महराज !!
मेरे  राम गरीब निवाज !!

जिन जिन ध्याये तिन तिन पाए,अजामील गज ब्याध !
हमरी बारी जाय छुपे तुम किन कुंजन में आज !!
मेरे  राम गरीब निवाज !!


दया क्षमा करुणा शुचिता दो मुझको मेरे राम !
सारे कर्म करू प्रभु जी मै लेकर तेरा नाम !!
मेरे  राम गरीब निवाज !!


मैं अपराधी हूं बड़ा अवगुण भरा विकार !
क्षमा करो अपराध सब अपना बिरद बिचार !! 
मेरे  राम गरीब निवाज !!

निवेदक 
व्ही .एन. श्रीवास्तव "भोला" 

बुधवार, 26 जनवरी 2011

साधन -"भजन कीर्तन" # २ ७ ७


हनुमत कृपा -अनुभव                                           
साधक साधन साधिये                               साधन -"भजन कीर्तन"

प्रियजन ! मुझे मेरे इष्ट ने कृपा करके यह सौभाग्य दिया कि मैं सूरदास जी की भक्ति रचनाओं के अथाह सागर के तट पर ,गहरे जल से दूर बैठे बैठे ,अपनी ओर स्वतः आयी लहरों की बूंदों में भींग पाया ! मैंने कोई निजी प्रयास नहीं किया उस जल में डुबकी लगाने का ! जो भजन आकाशवाणी लखनऊ  से छोटी बहिन माधुरी के गाने के लिए आते थे हमारा ज्ञान उन तक ही सीमित  था ! हाँ कभी कभी अवश्य यह लिख कर आजाता था कि "सूरदास जी के"विनय  एवं  प्रेम" विषयक तीन भजन"! उस स्थिति में हमे "सूरसागर" के तट पर गहरे जल के थोड़े और निकट जाना पड़ता था ! पुस्तकों से भजन चुनने पड़ते थे और उन भजनों के शब्दार्थ और भावार्थ भली भांति समझने पड़ते थे जिससे उन भजनों के भावानुकूल  राग रागिनियों में उनकी धुन बना  सकूँ  !


इस प्रकार प्रभु की विशेष कृपा से  मुझे भक्त महात्माओं की भाव भरी रचनाओं को बार बार पढने का अवसर मिलता था जिससे मैं उनके "प्रभुप्रेम" , विरह वेदना एवं दीनता के भाव अपनी तथा सीखने वालों की गायन शैली में उतार सकूँ ! 


प्रियजन !  रियाज़ के दौरान ,भजनों में आये "प्रभु" के नाम का  उच्चारण हमे बार बार करना  पड्ता था और "नाम जाप" की  कोई  औपचारिकता निभाए बिना , अनजाने मे ही हमारी भाव भरी "नाम जाप" की  प्रक्रिया  घंटों चलती रहती थी ! सूरदास जी का वैसा ही एक पद है यह ,जिसे ह्म लोग बहुत गाते थे :-


हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो !
हरि चरणारविन्द उर धरो !!
हरि की कथा होय जब जहाँ , गंगा हूँ चलि आवे तहां !!
जमुना सिन्धु सरस्वती  आवे , गोदावरी विलम्ब न लावे !
सर्व तीर्थ को बासा तहाँ !  सूर हरि कथा होवे जहाँ !!
हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो !!


इस पद को गाते गाते  हरि नाम की धुन लग जाती थी और हमारा सिमरन, जाप, कीर्तन सब का सब बस एक इसी भजन के रियाज़ से हो जाता था !


सूरदास जी का एक और पद जिसे पढ़ कर मन में विश्वास के साथ "प्रभु" के प्रति "श्रद्धा" के भाव जागृत होते थे -------"अजामिल, गणिका, गजराज जैसे पापियों का उद्धार  करने वाले तथा  द्रोपदी , ध्रुव एवं प्रह्लाद के कष्ट हरने वाले कृपा निधान "श्री हरि" क्या मेरी सहायता नहीं करेंगे  ?--


दीनन दुःख हरन देव , संतन सुखकारी !!
अलामील गीध व्याध , इनके कहु कौन साध, 
पंछी हूँ पद पढ़ात , गनिका सी तारी !!
गजको जब ग्राह गृस्यो , दुहसासन चीर खस्यो ,
सभा बीच कृष्ण कृष्ण द्रौपदी पुकारी  !!
इतने में हरि आइ गये, बसनन आरूढ़  भये ,
सूरदास द्वारे  ठाडो  आंधरो भिखारी  !!


"योगेश्वर ! आप इतनी दूर ,द्वारका से द्रौपदी बहेन की लाज बचाने आये , मैं तो आपके द्वार पर ही खड़ा हूं , मुझ पर भी कृपा करो हे नाथ !" 
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इनके अतिरिक्त अन्य भक्त कवियों की रचनाएँ भी ह्म लोगों ने गायीं जिनमें तुलसी
का यह भजन हमे अतिशय प्रिय लगता था :
          तू दयाल दीँन  हौं तु दानी  हौं भिखारी 
          हौं  प्रसिद्द  पातकी  तु पाप  पुँज हारी ! 
         तोहि मोहि  नाते अनेक मानिये जो भावे !
         ज्यों त्यों तुलसी कृपालु चरण शरण पावे !!
तथा मलूकदास जी की रचना :
      दीँनबन्धु दीनानाथ मेरी तन हेरिये ,
        कहत है  मलूकदास  छाड दे बिरानी आस ,
        राम धनी पाय के अब काकी सरन जाइये !!

सूफियाने "तू हि तू" भाव में रचित दादूदयाल जी की यह रचना कितनी सारगर्भित है :

तू हि मेरी रसना तूही मेरे बयना 
तूही मेरे श्रवना तूही मेरे नयना  
तुही मेरे नख शिख सकल सरीरा 
तु ही मेरे जियरे ज्यों जलनीरा 
तुम बिन मेरे और कोइ नाही 
तुही मेरी जीवनि दादू माही
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क्रमशः 
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प्रियजन उपरोक्त भजनों मे से एकाध को भी आपने यदि भाव सहित पढ़ लिया है तो आपके हृदय में अपने "उनके" (इष्ट देव के ) लिए श्रद्धा अवश्य उमड़ेगी और निश्चय ही "वह" आप पर कृपा वर्षा करेंगे !


निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

सोमवार, 24 जनवरी 2011

साधन - "भजन कीर्तन" # २ ७ ६


हनुमत कृपा -अनुभव 
साधक साधन साधिये                          साधन - "भजन कीर्तन" 

बालकृष्ण की लीलाओं पर आधारित सूरदास जी की रचनाओं के पठन, चिन्तन ,दर्शन और गायन के उपरांत हमारा ध्यान आकृष्ट होता है उनकी  "दैन्य","विनय","सेवा - समर्पण" "दास्य" तथा "प्रेम" की भावनाओं से ओतप्रोत रचनाओं की ओर ! निजी अनुभव से कह सकता हूँ क़ि सूरदास जी की इन रचनाओं के गायन के द्वारा गायक एवं श्रोताओं दोनों को ही "हरि दर्शन" जैसा अपूर्व आनंद प्राप्त होता है ! प्रियजन ! श्रीहरि कृपा से हमें भी उनमें से कुछ रचनाओं को हजारों बार गुनगुनाकर स्वर बद्ध करने तथा स्वयं गाने और  अन्य गायकों से गवाने का अवसर मिला ! 


इस संसार के माया जाल में बुरी तरह उलझे मानव को अनेकों योनियों में भटकने के बाद ही , प्रभु  की विशेष कृपा से तथा संतों के समागम से  यह संदेश  मिलता  है कि "उनकी"  अहेतुकी कृपा से मिले  इस  मानुष तन का सदुपयोग वह अपने आत्मोद्धार के लिए करे  !

मानव जीवन की  न्यूनताओं और त्रुटियों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते  हुए , भक्तशिरोमणि संत सूरदास जी ने ,अपनी रचनाओं में निज को एक साधारण मानव की संज्ञा देकर अपने इष्ट "गोपाल -कृष्णा" के सन्मुख सम्पूर्ण आत्म समर्पण करते हुए जो शब्द कहे हैं वे अति मार्मिक हैं ,सारगर्भित हैं और ,हमारा मार्ग दर्शन करने को सक्षम हैं ! :

१,    सूरदास जी ने गदगद कंठ से कहा "बहुत हो गया मेरे नाथ ,अब मैं थक गया ":
    
    अब मैं नाच्यों बहुत गोपाल !
    कामक्रोध को पहिर चोलना कंठ विषय की माल !!
    तृष्णा नाद करत  घट भीतर नाना विधि दे ताल !!
    सूरदास  की  सबे  अविद्या  दूरि करो नन्दलाल !!

२. सूरदास जी ने तत्पश्चात आत्मनिवेदन करते हुए कहा " मुझे ज्ञात है  हे नाथ क़ि मैं कितना बड़ा अपराधी    हूं  !मेरे समान पतित  अन्य कोई नहीं है ! हे स्वामी ! मुझे अपना दास स्वीकार करें " :
   
     मो सम कौन कुटिल खल कामी, 
     जिन तन दियो ताहि  बिसरायो ऐसो नमक हरामी !!
     पापी कौन बड़ा जग मो सम, सब पतितन में नामी !!
     सूर पतित को ठौर कहाँ है ,तुम बिन श्रीपति स्वामी !!

३. अन्तोगत्वा थके हारे सूरदास जी अपने इष्ट के श्री चरणों पर नतमस्तक हो कर बड़ी   दीनता से अर्ज़ करते हैं :
     
     तुम मेरी राखो लाज हरी 
     तुम जानत सब  अन्तर्यामी, करनी कछु न करी !!
     दारा सुत धन मोह लिए हैं सुधि बुधि सब बिसरी !!
     सूर पतित को बेगि उबारो , अब  मोरी  नाव  भरी !!

४. "हे नाथ ! यदि तुम नहीं सुनोगे तो मैं और किसका दरवाजा खटखटाऊं ?

     तुम तजि और कौन पे जाऊं !
     काके  द्वार  जाय सर नाऊँ  पर हाथ कहाँ बिकाऊँ !!
     ऐसो  को   दाता  है   समरथ   जाके   दिए   अघाऊँ !,
     अंत काल  तुमरो सुमिरन गति अंत कहूँ   नहिं पाऊँ !!
     भवसमुद्र अति देख भयानक मन में अधिक डेराऊँ !
     कीजे  कृपा  सुमिर अपनों पन  सूरदास  बलि जाऊं !!

५. इसप्रकार स्वामी के श्रीचरणों मे पूर्णतः समर्पित होकर  उनकी सेवा का अवसर पाकर सूरदास जी धन्य हो जाते हैं और ढिंढोरा पीट कर बड़े अहंकार के साथ एलान करते हैं क़ि वह अपने प्यारे श्याम के हाथ बिके हुए उनके दास हैं ,उनके सेवक हैं , उनके गुलाम हैं !
      
      हमे नंदनंदन मोल लियो !!
     सबकोऊ कहत गुलाम श्याम को ,सुनत सिरात हियो !
     सूरदास   प्रभुजी   को    चेरो ,   जूठन   खाय   जियो !!
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प्रियजन  ! मेरे इष्ट देव ने इस जीवन में मुझे ऐसा सुअवसर दिया क़ि पेशे से चर्मकार होते हुए भी मुझे सूरदासजी जैसे संत महात्माओं की दिव्य रचनाओं के सम्पर्क में आने का सामर्थ्य प्राप्त हुआ ! क्या यह "उनकी", मेरे ऊपर विशेष कृपा नहीं है ? भई एक बार तो कह दीजिये "हाँ भाई हाँ "!  धन्य हो जायेगा मेरा जीवन ! 

निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

रविवार, 23 जनवरी 2011

साधन:"भजन- कीर्तन" # 2 7 5


हनुमत कृपा - अनुभव 
साधक साधन साधिये                                साधन:"भजन- कीर्तन"


प्रियजन ! सौ बात की एक बात यह  है क़ि यदि "भजन" सहायक नहीं होते  तो हमारे देश के इतने भजनीक संत महात्मा उस स्थिति तक नहीं पहुंच पाते जहाँ पहुँच कर उन्होंने वह सब पा लिया जिसे ह्मारे पौराणिक काल के ऋषि मुनियों ने ,घने भयावने वनों में अथवा पर्वतों की कंदराओं मे घोर तपश्चर्या के उपरांत प्राप्त किया था !

नेत्रहीन सूरदास जी की बंद आँखों के समक्ष "श्री हरि" का जो "बालगोपाल" स्वरूप अवतरित हुआ वह उन तपस्वी ऋषि मुनियों के सामने प्रगट हुए "चिदानंद ब्रह्मस्वरूप " से किसी अर्थ में कम प्रमाणिक ,कम सुदर्शन , कम आनंददायक नहीं रहा होग़ा!,

क्या आपको ऐसा नहीं लगता क़ि सूरदास जी की बंद पलकों के पीछे स्वयं नटनागर कृष्ण  अपने विविध स्वरूपों में प्रकट होकर लीलाएं करते थे और अपनी रूप माधुरी से उनको सम्मोहित करके  उनका मनोरंजन करते थे ! बालगोपाल श्री कृष्ण को सूरदास जी अपनी आँखों के आगे ,जसोदा मैया के आंगन में नाना प्रकार की लीलाएं करते हुए देखते थे और फिर उनके अधरों से प्रस्फुटित होती थी उनकी वो अमर रचनाएँ जो आज भी कृष्ण भक्तों द्वारा संसार भर में बड़े प्रेम से गाईं जाती हैं ! 
  1. "कबहूँ पलक हरि मूँद लेत हैं ,कबहू अधर फरकावैं - जसोदा हरि पालने झुलावें"
  2. "कहन लागे मोहन मैया मैया !पिता नन्द सो बाबा बाबा अरु हलधर सो भैया"
  3. "मैया कबही बढ़ेगी चोटी ! किती बेर मोहि दूध पीवत भई यह अजहू है छोटी" 
  4. "मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायो"
  5. "मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो"  

उपरोक्त पांच भजन , नन्दनंदन श्री कृष्ण के बालचरित से सम्बन्धित सूरदास जी की   असंख्य रचनाओं में से चुने  हुए  हैं ! इन भजनों को स्वरबद्ध करने और गाने - गवाने का सौभाग्य मुझे आज से ५०-६० वर्ष पूर्व १९४५-१९६० के बीच में पहली बार मिला था !    सद्गुरु  कृपा से इन भजनों को मैं आज भी गा रहा हूँ ! इन्हें गा गा कर मैं अपने आनंद स्वरूप प्रियतम का वैसा ही दर्शन पाना चाहता हूँ जैसा "वह" सूरदास जी को देते थे  !
सूरसाहित्य ,सागर के समान अथाह है ! अपनी रचनाओं में महात्मा सूरदास ने लोकभाषा   में आध्यात्म के विविध विषयों की अति सारगर्भित विवेचना की है ! नाम महिमा से लेकर दैन्य ,विनय, वेदांत ,प्रेम  तथा चेतावनी आदि सभी विषयों पर उन्होंने समुचित प्रकाश डाला है ! 

चलिए आज के लिए विराम दें इस संदेश को !

निवेदक: वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

शनिवार, 22 जनवरी 2011

साधन:"भजन कीर्तन" # 2 7 4

हनुमत कृपा - अनुभव 
साधक साधन साधिये                            साधन:"भजन कीर्तन"

आत्मकथा के द्वारा श्रीहरि कृपा के अपने अनुभव बता रहा हूँ ! "उनकी" सबसे बड़ी कृपा जो मुझ पर हुई वह यह है कि जिन लोगों के बीच मैं पाला पोसा गया,बड़ा हुआ ,मेरे माता पिता ,सगे भाई बहन आदि तथा विवाहोपरांत ससुराल के सम्बन्धियों तक को ह्मारे प्यारे प्रभु ने भक्ति-संगीत का प्रेमी बनाया !
शायद माँ की कोख में ही हम सब बच्चों ने भक्ति संगीत का सरगम सीख लिया था ! गायन के लिए मधुर कंठ तथा एक बार सुन कर राग रागनियों को सदा के लिए मन में बसा लेने की क्षमता भी प्रभु ने हमें बचपन से ही दे दी थी ! 
पहले भी कहीं लिख चुका हूँ ,पर भजन के सन्दर्भ मे एक बार फिर कह रहा हूँ क़ि बचपन के उन दिनों हर सुबह सबेरे ह्मारे मोहल्ले वालों का जागरण किसी मिल के सायरन से या उनके टाइम पीस के एलार्म से नहीं होता था! मोहल्ले के अधिक लोग हमारे निवासस्थान # ११/२२६ , सूटरगंज ,कानपूर से, ह्म बच्चों के भजन संगीत के रियाज़ के कारण आती भक्ति भरी ध्वनि लहरी की झंकार सुन कर बिस्तर छोड़ते थे ! 

याद है मुझे , मैंने बचपन में अक्सर अपने मोहल्ले के बुजुर्गों को यह कहते हुए सुना था  "भाई! बद्री बाबू का घर तो देव मंदिर जैसा है! वहाँ भोर से ही आराधना शुरू हो जाती है "!  उन दिनों मोहल्ले के कुछ संगीत प्रेमी युवक-युवतियों ने तो ह्मारे घर को "गन्धर्व लोक" कहना शुरू कर दिया था ! 

बड़ा अच्छा लगता था जब मोहल्ले की कोई बूढी दादी,मौसी ,या ताईजी गंगा स्नान कर के लौटते समय ,हमे स्कूल जाते जाते रास्ते में रोक कर कहतीं थीं "भैयाजी आज सबेरे वाला आप लोगन का भजन बड़ा सुंदर रहा ! ह्म तो तब ते अब तलक गुन्गुनाय रहीं हन "! हमे स्कूल पहुचने की जल्दी होती और उनकी बात खतम न होती !" हाँ तो भइया ,का रहा ऊ भजन, 'जागो बंसी वारे ललना , जागो मोरे प्यारे' ? भैरव राग मा आप सब बड़ा  मधुर गावत रहें वाको !"    हमे वहाँ से जान बचा कर भागना पड्ता था , डर था क़ि अधिक रुके  तो  सड़क पर ही उन मोहल्लेवाली  दादी जी से वह पूरा भजन सुनना पड़ेगा , और उनके गायकी की तारीफ़ करनी पड़ेगी और तब निश्चय ही समय से स्कूल नहीं पहुँच पाउंगा !

आप हमसे पूछोगे कि इसमें कौन सी कृपा भगवान आप पर कर रहे थे ? प्रियजन आपका प्रश्न अनुचित नहीं है ! तब छोटा था ,केवल एक यह भाव कि उस छोटी अवस्था में दुनिया हमे महत्व दे रही है, कह रही है कि ,ह्म सुंदर गाते हैं ,हमे सम्मानित कर रही है,इससे हमे जो प्रसन्नता होती थी क्या वह परमानंद स्वरूप देवाधिदेव श्रीहरि के दर्शन का पूर्वाभास नहीं था ?

और हाँ अभी कुछ दिवस पूर्व किसी संत महापुरुष से सुना क़ि " यदि तुम्हारे प्रोत्साहन  से   कोई एक व्यक्ति भी "हरि सुमिरन रत" हो जाये तो तुम्हारा जीवन धन्य हो जायेगा और  तुम्हारा मानव जन्म सार्थक हो जायेगा "! इसमें क्या उनकी कृपा नहीं है ,कि ह्म उनकी ही दी हुई क्षमताओं के बल पर , उनके ही भजन गाकर तथा अन्य लोगों से गवाकर इतनी   सरलता से जीवन्मुक्त हो जाएँ और अपने प्रेमास्पद के "आनंदस्वरूप" का  दर्शन पालें !  बोलो प्यारों !

निवेदक: वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

साधन- "भजन कीर्तन" # २ ७ ३

हनुमत कृपा - अनुभव 
साधक साधन साधिये                          साधन  -"भजन कीर्तन"

संसार सागर के अथाह जल में, लहरों के शिखर पर उछलते कूदते तिनके के समान मानव को कहाँ अवकाश है कि वह ,विश्व के सभी धर्मों के आध्यात्मिक साहित्य का अध्ययन करे और उनमें से  अपने लिए चुन सके वह विशिष्ट "साधन पथ" जिस पर चल कर वह अपना मानव जीवन सफल कर पाए ! 
विश्व के अन्य धर्मों की छोड़िये , ह्म भारतीय   हजारों वर्षों से "वेद पुराण उपनिषद" आदि सदग्रन्थों में  प्रतिपादित "जीवत्व से देवत्व" तक पहुंचने के राजमार्ग को ,उसके अनमोल  ज्ञान को  एवं उसके विधि विधा नको  आज तक ठीक से समझने में असमर्थ रहे !इसी कारण आजतक  उन्हें अपने जीवन में उतार पाने में भी असफल रहे  !

ह्मारे लिए तो "भजन गायन"के रूप में लोक भाषा में रचित  ह्मारे संत महात्माओं की वाणी का पवित्र परायाण  ही हमें  इस भव सागर से पार करा देने के लिए काफी है ! प्रियजन ! मैं सरलता से इन भजनों का रसास्वादन कर भारतीय आदि ग्रंथों के गूढ़तम रहस्यों को थोड़ा बहुत समझ पाया हूँ और उस ज्ञान से कुछ कुछ लाभान्वित भी हुआ हूँ !

भक्ति साहित्य में महात्मा तुलसी, सूर, कबीर,जायसी आदि कवियों  की दिव्य वाणियाँ अनुपम हैं !  भक्तिकालीन साहित्य में  अष्टछाप के  भक्त कवि , स्वामी हरिदास, हितहरिवंश जैसे, बृज -रस-भ्रमरों  के पदों का सुमधुर गुंजन तथा गुरु नानक, दादू, रैदास, मलूकदास, आदि महान संतों के पद  जहाँ  ज्ञान तथा  भक्तिरस से परिपूर्ण हैं वहाँ  सारगर्भित भी  हैं ! 
इस सन्दर्भ में ह्म हरिभक्त देवियों के पदों को कैसे भूल सकते हैं ,जिनमें उनकी आत्मा बोलती है ! मतवाली मीरा , सहजो बाई, जुगलप्रिया जी तथा मंजुकेशी जी के भाव भक्ति पूर्ण पदों के जादू से कौन अछूता बचा है?  हाँ इस बीच ह्म उन रंगीले मुसलमान भक्तों को भूल गये थे  जिनका कृष्ण प्रेम अविचल और आद्वितीय था !-रहीम, रसखान, खुसरो बुल्लेशाह, आदि को कौन भुला सकता है ! इन भक्त मौलवीयों की रचनाये "प्रेम-भक्ति" के भाव से सराबोर हैं ! 
कैसे धन्यवाद दें "उन्हें" जिनकी कृपा से मुझे इस जीवन में यह सुधन्य अवसर मिला कि मैं इन दिव्य रचनाओं की धुन बनाने तथा छोटी बहिन को सिखाने के बहाने  इन्हें जहाँ तहाँ असंख्य बार गा-गुनगुना सका ! 
प्रियजन ! जरा यह भी सोच  कर देखिये,"चर्मकारी"के पेशे से आजीविका कमाने वाला मैं पशुओं के कच्चे खाल के दुर्गन्ध भरे गोदाम में , कभी अपनी कुर्सी पर बैठ कर ,कभी सुपरविजन का आडम्बर करते हुए इधर उधर टहल टहल कर , मशीनों की गड़गड़ाहट के स्वर और ताल के सहारे इन पवित्र वाणियों को स्वर बद्ध करता था ! पर कुछ ऎसी कृपा थी प्रभु की वहाँ कि उस दुर्गंधमय वातावरण का कोई दूषित प्रभाव न उन दिव्य रचनाओं पर हुआ न उनके लिए मेरी बनाई धुनों पर ही हुआ ! सच पूछिए तो वहाँ पर बनी धुनें इतनी हृदयग्राही बनी कि जब जिसने भी उन भजनों को सुना वह भक्ति रसामृत में डूब गया ! आनंद विभोर हो गया ! 
कालान्तर में धीरे धीरे  इन पदों के सारगर्भित तथ्य ,उनमें निहित आध्यात्मिक विचार तथा निष्काम प्रेमभाव के बीज मेरे मन मानस में पुष्पित पल्लवित हो गये और मैं वह बन गया जिसे आज आप मजबूरन झेल रहे हैं (थोड़ा हंस लीजिये) ! क्षमा करिएगा !
क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: धर्मपत्नी श्रीमती (डोक्टर) कृष्णा श्रीवास्तव  

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

साधन : "भजन कीर्तन" # २ ७ २

हनुमत कृपा - अनुभव 
साधक साधन साधिये                   साधन : "भजन कीर्तन"

"भजन" के विषय में कुछ अपने निजी अनुभव बता दूं ! १९५० के दशक में जब मेरे प्रोत्साहन से मेरी छोटी बहिन माधुरी ने रेडिओ पर गाना शुरू किया तब ,जहाँ तक मुझे याद है केंद्र सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय का भार किसी सुधारवादी मंत्री (शायद केसकर जी) के हाथ में था ! कदाचित उन्ही दिनों "आल इंडिया रेडिओ" का नाम बदल कर "आकाश वाणी" रखा गया और वहाँ के वाद्यों में से हारमोनियम ,गिटार ,चेलो आदि पाश्चात्य वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल कम कर के उनकी जगह देसी वाद्यों -तानपूरा, सितार बांसुरी , सरोद ,सारंगी आदि का प्रयोग बढ़  गया ! सुगम संगीत के गायन में ठुमरी, दादरा ग़ज़ल आदि के साथ साथ हिन्दी भाषा के  गीत, भजन और पारम्परिक लोक संगीत का समुचित समावेश हुआ ! इस प्रकार जब मैं २०-२१ वर्ष का ही था ,मेरे लिए आध्यात्मिक प्रगति का एक नया द्वार खुल गया !


प्रियजन ! आप सोच रहे होंगे क़ि रेडिओ गायन से किसी की आध्यात्मिक प्रगति कैसे हो सकती है ! मुझे भी अब तक यह एक बड़े आश्चर्य की बात लगती थी ,लेकिन आज जब ऎसी बातें थोड़ी अधिक समझ में आने लगी हैं ,तब यह लगता है क़ि माँ  की कोख से  मेरे मन पर पड़ी "प्रेम भक्ति" की अमिट रेखाओं को ,१९५०  के दशक ने अधिक गहरा कर दिया ,उन दिनों रेडिओ पर प्रसारित होने वाले गीतों-भजनो से(जो आज के अश्लील गीतों   से बहुत भिन्न थे ) तथा रेडिओ स्टेशन से प्राप्त उन गीतों तथा भजनों की पांडूलिपियों से, जिनकी धुनें बना कर मैं अपनी बहिन माधुरी को रेडिओ पर गाने के लिए सिखाता था मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला  और यह सब कैसे मेरे आध्यात्मिक प्रगति में सहायक हुए  , बताउँगा , एक छोटे से अन्तराल के बाद !


आप सोच  रहे हैं न कि ,इस आत्म कथा से मैं आपको क्या संदेश देना चाहता हूँ ? प्रियजन  हमारे जीवन पर, हमारी सोच पर ,सबसे अधिक प्रभाव डालता है वह साहित्य जिसे  ह्म ध्यान से ,अधिक समय तक पढ़ते हैं ! उन दिनों अपनी बहिन को रेडिओ पर गवाने के लिए लखनऊ रेडिओ स्टेशन से प्राप्त भजनों की पांडुलिपियों को चौबीसों घंटे अपनी जेब में रख कर ,घर में, ऑफिस में, काम करते समय,खाना खाते समय, हर जगह ,हर समय  सभी भजनों को  स्वरबद्ध करने के अभियान में मुझे असंख्य बार उन भजनों की पंक्तियों को गुनगुनाना पड़ता था ! यहाँ मैं बता दूं क़ि आकाशवाणी से प्राप्त वह भजन कैसे होते थे ? अम्मा दादी आदि से सुने हुए  मीरा ,तुलसी, सूर आदि के भजन  ही नहीं अपितु उनके समकालीन अन्य भक्त  जैसे  सहजोबाईजी  ,युगलप्रियाजी ,रानी रूपकुंवरि जी तथा मंजुकेशी जी आदि के पद  जिन्हें हमने पहले कभी सुना भी नहीं होता था ,आकाशवाणी के भजन और गीत के कार्यक्रम  में प्रसारित करने  के लिए  वहाँ से आते थे  ! इनके बोल कठिन होते थे, अर्थ आसानी से समझ में नहीं आते थे ! उनके भाव समझने के लिए एक प्रकार से शोध करना पड़ता था !उदाहरण स्वरुप मंजुकेशी जी का "  पद : 

भजन करिय निष्काम पियारे भजन करिय  निष्काम !!
नयन आंजि  मन मांजि चेतिये , सगुन  ब्रह्म श्रीराम  !!
"केशी" रामहि  द्वेत न भावे , सब  विधि पूरन   काम  !!

इनका ही एक दूसरा भजन विषयक पद है :

मानहु प्यारे मोर सिखावन !!
बूंद  बूंद  तालाब  भरत  है  का  भादों  का सावन !!
तैसहिं नाद-बिंदु को धारण अन्तः सुख सरसावन  !
 ध्वनि गूंजे जब जुगल रंध्र से,परसे त्रिकुटी पावन !!
हिय  की तीव्र भावना थिर करु पड़े  दूध  में जावन !
"केशी" सुरति न टूटन पावे दिव्य छटा दरसावन !!    

भजनों को स्वर बद्ध करते करते मैंने इस सरल "भक्ति--साधन" - (जिसे भजन कहते हैं )  के विषय में क्या सीखा ,वह आपको उपरोक्त दोनो  भजनों से समझ में  आजायेगा !इस विषय में और भी बहुत बातें करनी हैं सो आगे करूँगा , अभी इस संदेश को यहीं विराम देता हूँ ! कल पुनः "उनकी" प्रेरणा से नये विचार व्यक्त करूंगा !

निवेदक:
व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : धर्मपत्नी - श्रीमती (डाक्टर) कृष्णा श्रीवास्तव