रविवार, 31 जुलाई 2011

भजन : दरशन दीजो आय प्यारे - # ४११

प्यारे दर्शन दीजो आय , तुम बिन रह्यो न जाय

प्रियजन , पिछले अंक में मैंने मीरा के इस पद के शब्द लिखे हैं और एक चित्र भी दिया है जिसमे मैं अपने सहयोगियों के साथ १९८४ में सपरिवार , मानस मर्मज्ञ दिवंगत पूज्यनीय राम किंकर जी महाराज के समक्ष वह भजन प्रस्तुत कर रहा हूँ ! उस चित्र के बांयें भाग में हम लोगों के पीछे बीचो बीच व्यास आसान पर श्री महराज जी भी विराजमान हैं !

रानी बेटी श्री देवी ने उस भजन का तब का साउंड ट्रेक हमारे ब्लॉग में डाल दिया ! धन्यवाद बेटा ! इस सन्दर्भ में चलिए अब सब को ही ये बता दूँ कि यह चित्र उस समारोह का है जिसमें धर्मपत्नी कृष्णा जी को उनके द्वारा तुलसी कृत "राम चरित मानस" पर किये शोध के लिए सम्मानित किया गया था !( बेटी श्री देवी इससे बिलकुल अनभिग्य हैं क्योंकि उन दिनो वह कनाडा में कार्यरत थीं )!

"दर्शन दीजो आय प्यारे ,तुम बिन रह्यो न जाय"

भजन सुनने के लिए नीचे के लिंक पर क्लिक करें


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एक सूचना :कुछ अज्ञात कारणों से आप मेरे पिछले दो अंक ४०९ तथा ४१० मिस कर गए हैं
कन्टीन्यूटी के लिए थोड़े पीछे सरक कर उनको भी पढ़ लें ! चूक के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ !
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निवेद्क : व्ही . एन . श्रीवास्तव "भोला"
आभार रानी बेटी श्री देवी कुमार तथा समस्त भोला परिवार
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शनिवार, 30 जुलाई 2011

घर घर में मीरा # ४१०



मीरा की प्रेमा भक्ति

नन्ही राज कुंवरि मीरा को तो उसका जन्म जन्म का साथी मिल गया ! इस प्रिया - प्रियतम मिलन से भारत भूमि पर "भग्वद भक्ति" की एक नूतन परम्परा -"प्रेमा भक्ति" का बीज अंकुरित हुआ ! उस बीज से उगे वृक्ष के पत्र पुष्प एवं फलों से ,लाभान्वित हुईं देश की करोड़ों गृहस्थियां ! क्या हुआ ?

साधारण (आम) परिवारों की बड़ी और छोटी हर उम्र की बहू बेटियाँ अब निःसंकोच अपने घर आंगन - गलियारों में ठुमक ठुमक कर मन लुभावने नृत्य तथा गायन से अपनी माताओं , सासू माँओं , दादियों नानिओं का मनोरंजन करने का साहस करने लगीं ! उनका कार्यक्रम अधिकतर मीरा की भक्ति रचनाओं पर तथा मीरा की ही भावनाओं को संजोये पदों एवं लोक गीतों पर आधारित होता ! प्रियजन ! "पग घुघरू बाँध मीरा नाची " और " मीरा मगन भई हरी के गुण गाय" जैसे प्रेम पूरित कार्यक्रम निरा मनोरंजन नही करते थे अपितु , कितनी ही बुज़ुर्ग माताओं को ध्यान मग्न कर देते थे ! ऐसे कार्यक्रम में उन्हें अपने बीते दिनों और वर्तमान के मधुर अनुभवों की स्मृति के साथ साथ अपने परम कृपालु "इष्ट" की भी याद आ जाती थी जिनकी कृपा से उन्हें जीवन में आनंद की वैसी बहुमूल्य घड़ियाँ प्राप्त हुईं !

प्रियजन , गुरुजनों ने कहा है कि अपनी सारी उपलब्धियों के लिए "प्रभु" को धन्यवाद देना अथवा किसी अन्य मतलब से भी अपने "इष्ट" को सप्रेम याद करना ही "उपासना" है !

उपरोक्त कथन मेरे अपने जीवन के , ८२ वर्षों के निजी अनुभव पर आधारित है ! मेरी दादी और मेरी अम्मा ने भी अपने अपने घर पारिवार में , अपनी बाल्यावस्था में कुछ ऐसा ही अनुभव किया था और हमारी बाल्यावस्था में हमे सुलाने और जगाने के लिए उन्होंने भी मीरा के वैसे ही पद गाये थे !

अपने जीवन की अंतिम घड़ियों में केन्सर जैसे भयंकर रोग को झेलते हुए हमारी माँ ने हम बच्चों से , प्रेम भक्ति की वैसी ही रचनाएँ सुनीं ! मीरा के उन पदों का माधुर्य ही था जिसने हमारी माँ को उन दुसह पीडाओं को हंस कर झेलने की शक्ति दी ! उनका मनोबल इतना सशक्त कर दिया कि अंतिम क्षणों तक वह मुस्कुराती ही रहीं और मुस्कुराते हुए उन्होंने हमे जो आशीर्वाद दिए वे आजीवन हमे आनंदित करते रहे !

हम आपको मीरा का एक वैसा ही पद बताते हैं जिसे १९४५ में , हमारी छोटी बहन माधुरी ने १० वर्ष की अवस्था में अपने स्कूल की नृत्य नाटिका में मीरा का किरदार निभाते हुए गाया था ! नाटिका में ,यह पद गाते गाते मीरा ने द्वारिका के रणछोड जी के मंदिर में प्रवेश किया और फिर सदा सदा के लिए अपने प्रियतम कृष्ण की हो कर वहीं अन्तर्ध्यान हो गयी ! हमारी अम्मा को यह भजन अतिशय प्रिय था , अपनी अंतिम घडी में उन्होंने मीरा का यह ही पद सुनने की इच्छा व्यक्त की ! हम चारों भाई बहेंन तथा हमारे पूरे परिवार ने मिल कर वह भजन गाया जिसे मुस्कुराते मुस्कुराते सुनते हुए हमारी अम्मा भी अपने गोपाल जी में प्रवेश कर गईं !

दर्शन दीजो आय प्यारे , तुम बिन रह्यो न जाय

जल बिनु कमल चन्द्र बिनु रजनी ,वैसे तुम देखे बिनु सजनी
आकुल ब्याकुल फिरूं रैन दिन ,बिरह करेजो खाय
दर्शन दीजो आय प्यारे , तुम बिन रह्यो न जाय

दिवस न भूख नींद नहीं रैना ,मुख सों कहत न आवे बैना
कहा कहूँ कछु समुझ न आवे, मिल कर तपत बुझाव दर्शन दीजो आय प्यारे , तुम बिन रह्यो न जाय

क्यों तरसाओ अंतरयामी , आय मिलो किरपा करो स्वामी
मीरा दासी जनम जनम की ,पडी तुम्हारे पाय
दर्शन दीजो आय प्यारे , तुम बिन रह्यो न जाय

अम्मा के जाने के बाद भी हम लोग यह भजन अक्सर गाते थे ! उपरोक्त चित्र में हम सब कानपूर के दवारका धीश मंदिर के प्रांगण में यह भजन गा रहे हैं ! मेरे साथ गा रही है मेरी धर्मपत्नी कृष्णा जी , बेटी प्रार्थना ,और उसकी सहेलियां ,कानपुर की सुप्रसिद्ध गायिका सुश्री अंजना भट्टाचार्य (अब बडोदा में) और मेघना श्रीवास्तव (अब लखनऊ / मुम्बई में ) !

क्रमशः
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निवेदक : व्ही . एन . श्रीवास्तव
सहयोग : सम्पूर्ण भोला परिवार
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गुरुवार, 28 जुलाई 2011

संकल्प शक्ति - # ४ ० ९

प्रेम दीवानी मीरा
(अंक # ४०७ के आगे)

राजा रतन सिंह राठौर के महल में वह संत दुबारा यह मन बना कर या क़ि वह पने इष्ट श्रीकृष्ण की वह मूर्ति , (जिसकी उसने वर्षों जी लगा कर सेवा की है ), मूर्ति की वास्तविक अधिकारिणी - राजकुंवारि मीरा को समर्पित कर देगा ! और उसने निःसंकोच वैसा ही किया ! पेश्तर इसके कि राजा उससे कुछ कहते , संत ने उन्हें चिंतामुक्त कर दिया ,संत ने राजा को एक भिक्षुक संत के समक्ष हाथ फ़ैलाने से बचा लिया और उनके बिना मांगे स्वेच्छा से ही वह मूर्ति मीरा के हाथों पर रख दी !

मूर्ति ग्रहण करते समय , मीरा के प्रफुल्लित मुख मंडल पर दृष्टि पड़ते ही संत को जिस मधुर आनंद की अनुभूति हुई उसका एक पासंग भी उसे इसके पूर्व नहीं मिला था ! संत को ऐसा लगा जैसे मरुस्थल के तपते भूखंड पर सहसा सावन के कजरारे घन छा गए ,छम छमा छम एक दिव्य आनंद की शीतल वर्षा होने लगी और उसको तत्क्षण ही वह प्राप्त होगया जिसके लिए वह युगों युगों से तपश्चर्या कर रहा था !

संत ने मन ही मन उस "परमानंद" का अनुभव किया जो "ध्रुव" को गहन तपश्चर्या के बाद श्री हरि नारायण के दर्शन से मिला था ! पलक झपकते ही संत का मानव जीवन धन्य हो गया ! मूर्ति देते ही उसे मिला "हरि दर्शन" का अनमोल जवाबी तोहफा (आजकल जिसे रिटर्न गिफ्ट कहते हैं) ! यह वह अनुभूति थी जिसके लिए वह तरसता रहा था ! संत का रोम रोम उस नन्हीं सी देवी मीरा का ऋणी हो गया ! वह इस सोच में पड़ गया ,कि कौन है यह बालिका ? राधा है या रुक्मिणी ? अथवा है वह उन अनगिनत गोपिकाओं में से एक जिन पर बाल्यावस्था में बालगोपाल निहाल थे ! कहीं ये वह चंचला "ललिता" तो नहीं जो राधा-कृष्ण दोनों को ही उनकी रास लीलाओं में अकारण सताती रहती थी ?

और फिर न जाने क्या भाव उठा संत के मन में कि ,वह शून्य सा होगया और वास्तविकता की अनदेखी करके उसने स्थान काल वयस के भेद भुला कर ,समस्त राजपरिवार के समक्ष नन्हीं राज्कुंवरि मीरा के श्रीचरणों में साष्टांग प्रणाम किया ! सभी भौचक्के रह गए !

उन संत भक्त के विषय में अनेकानेक किम्वदंती हैं , अटकलों के आधार पर कहिये या साहित्यकारों तथा इतिहासकारों के कथनानुसार मानिये ,हम सब उन्हें ( संत ? दास) के नाम से जानते हैं ! मैं कोई नाम नहीं लूंगा ! जो कोई भी रहे हों वह , वह थे बड़े भाग्यशाली, जो मीरा जैसी प्रेम दीवानी के जीवन काल में जन्मे और मीरा के प्रेम-भक्ति मार्ग का अनुसरण किया !

और हाँ इधर ,राजमहल में एक अद्भुत आनंद की गंगा बह निकलीं ! चहूँ ओर आनंदोत्सव का माहौल छा गया ! उतनी खुशी मनाई गयी जितनी युवराजों के जन्म पर रजवाडों में मनायी जाती है ! डगर डगर में नौबत बाजी , घर घर बजी बधायी-

मीरा ने न केवल अपने इष्ट को पहचाना ,जाना और पा भी लिया ,उसने उनके साथ एक ऐसा सम्बन्ध जोड़ा जो हर प्रकार से अटूट था ! बालपन से लेकर अपने जीवन के अंत समय तक एक पल को भी मीरा ने उस मूर्ति को अपने से विलग नहीं होने दिया ! सदा उसे अपने अंग- संग रखा! वह उस मूर्ति के साथ ही उठती बैठती ,खाती -पीती ,घूमती फिरती ,सोती जागती, खेलती, गाती नाचती रही तथा उसीसे रूठती और उसे ही मनाती रही !

मीरा की भक्ति किसी पिटी पिटायी पन्थ की अनुगामिनी नहीं थी ! वह जानती थी केवल एक राह - "प्रेम प्रीति की राह" ! उसका पन्थ था समर्पण का ! उसका पन्थ था निर्मल मन से प्रभु-प्रेम के माधुर्य का आस्वादन करने का , अपने आपको अपने इष्ट में विलय कर देने का !
शेष क्रमशः
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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मंगलवार, 26 जुलाई 2011

"मुकेशजी" और उनका नकलची "मैं"



वो दिलदार गायक
"मुकेश"

मुबारक हो सब को समा वों सुहाना
कि जब सुन पड़ा दर्दें दिल का तराना
वो 'पहली नजर' के जलेदिल का गाना
न फरियाद करने का था जो बहाना
"भोला"



ऊपर चित्र में बम्बई के एक संगीत समारोह में मुकेश जी और मैं
(बीच में है मेरा भतीजा गायक निदेशक अनुराग तथा कार्यक्रम के एम् सी)

आज से ६६ वर्ष पूर्व ,१९४५ में ,दिलवाली दिल्ली के बिरादराना रिश्ते से करीबी 'कजिन' - बड़े भैया जैसे ,हीरो -मोतीलाल जी पर फिल्मायी,अनिल बिस्वास जी द्वारा स्वरबद्ध , फिल्म 'पहली नजर' में गायी एक गज़ल:

दिल जलता है तो जलने दे आंसूँ न बहा फरियाद न कर
तू पर्दानशीं का आशिक है यूं नामे वफा बर्बाद न कर
से सहसा (ओवर नाईट) ही ख्याति के शिखर पर पहुंचे गायक :

मुकेश जी का जन्म दिन है बाइस जुलाई .
सभी उनके भक्तों को हार्दिक बधाई
"भोला"

बहुत दिनों से सोचे बैठा था कि इस वर्ष मुकेश जी के जन्म दिन पर ,गायकों में अपने आदर्श
(आजकल शायद जिनको "मेंटर" कहते हैं ) मुकेश जी के विषय में कुछ लिखूँगा ! याददास्त की कमजोरी का असर देखिये कि अपना जन्म दिवस जो इसी महीने आज से ११ दिन पहिले पड़ा था याद रहा लेकिन सगीत के क्षेत्र में अपने आदर्ष रहे ,बड़े भाई सदृश्य (ऊपर छपी फोटो में देख लीजिए - बिलकुल उनका छोटा भाई लगता हूँ न?) मुकेश जी का जन्मदिन याद नहीं रहा ! खैर अपने प्रेरणा स्रोत ने यथासमय याद दिला दिया, आभार व्यक्त करता हूँ "उनका"!

कानपूर का हमारा घर जिसमें मैं शैशव से आज तक रहा , उसे हमारे स्वजन संबंधी ,पड़ोसी और मित्रगण "गन्धर्व लोक" कहते थे ! क्यों ? नित्यप्रति प्रातः काल की अमृत बेला से शुरू होकर , मध्य रात्रि तक इस घर की प्राचीरों के बीच उठतीं मधुर भक्ति संगीत की तरंगें आस पास के सभी घरों को आच्छादित और पड़ोसियों को आनंदित करती थीं ! कैसे ? सुनिए:-

मेरे बड़े भैया प्रसिद्द गायक स्वर्गीय कुंदनलाल सैगल के अनन्य भक्त थे ,सूर्योदय से पहिले ही वह उनकी भैरवी राग की ठुमरी "बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय " गाकर मुहल्ले की सभी भौजाइयों को उनके नैहर की याद दिला कर रुलाया करते थे ! बडी बहेन उषा दीदी भैरव राग पर आधारित "जागो बंसी वारे ललना जागो मोरे प्यारे" गाकर आस पास की नव-माताओं को अपने 'लल्लू लल्ली' को जगा कर स्कूल भेजने की प्रेरणा देतीं थीं ! इसी प्रकार रात्रि के समय माँल्कोश ,बागेश्वरी और दरबारी रागों के ख्याल ,भजन और पारम्परिक रचनाएँ गाते गाते हम - उस घर के निवासी ,चारों बच्चों ने,"गन्धर्वत्व"(यदि ऐसा कुछ है तो वह ) प्राप्त कर लिया था और हमारा घर बन गया था "गन्धर्व लोक"!

तभी १९४५-४६ में "पहली नजर" फिल्म आयी ! मैं १६ वर्ष का था , इंटर में पढता था ! हमने फिल्म देखी ! फिल्म मे मोतीलाल साहेब की एक्टिंग बहुत स्वाभाविक थी और उनके द्वारा गायी गजल तो कमाल ही कर गयी ! वो यही गजल थी , "दिल जलता है तो जलने दे"! मैं इंस्टेनटली इस गजल के गायक - मुकेश जी का मुरीद हो गया !

यह गजल दिलदार मुकेश जी की दिल सम्बन्धी पहली दिलकश देंन थी ! इसके बाद भी मुकेश जी ने दिल से सम्बंधित अनेक रचनाएँ गाईं जो मुझे बहुत ही पसंद आयीं थीं और जिन्हें मैं अक्सर गाता भी था ! उनमे से कुछ मुझे अभी भी याद रह गयी हैं :-

कभी दिल दिल से टकराता तो होगा
उन्हें मेरा खयाल आता तो होगा
और
दिल जो भी कहेगा मानेंगे दुनिया में हमारा दिल ही तो है
हर हाल में जिसने साथ दिया वो एक बिचारा दिल ही तो है
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आज थक गया फिर कभी गा के भी सुनाऊंगा और मुकेश जी की और भी बातें बताऊंगा !
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मीरा की कथा और उसके साथ ही उस बालक की कहानी जो मेरे कमरे के मंदिर से कृष्ण जी का चित्र मांग कर ले गया था ,अधूरी नहीं रहेगी , अवश्य पूरी करूँगा !
मेरी मजबूरी तो आप जानते ही हैं
"वही लिखता हूँ जो "मालिक" मेरे लिखवाते हैं"
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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सोमवार, 25 जुलाई 2011

संकल्प शक्ति - # ४ ० ७

प्रेम दीवानी मीरा

हमारे गुरुदेव ब्रह्मलीन श्रद्धेय श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने कहा है कि जिस प्रकार रेडियो टेलीविजन की सूक्ष्म तरंगों के द्वारा शब्द और रूप ,एक स्थान से दूसरे स्थान तक आकाश मार्ग से पहुंच जाते हैं , इसी प्रकार सच्चे उपासकों और प्रेमियों के दृढ़ संकल्प भी बड़ी से बड़ी दूरियां तय करके यथा स्थान पहुंचते रहते हैं !

बालिका मीरा के मन में श्रीकृष्ण की वह विशेष मूर्ति पाने का संकल्प बहुत ही दृढ़ और अटल था ! उस संकल्प की शब्दतरंगें भी सूक्ष्माकाश में तैरती हुईं संत के पीछे सारी रात मंडराती रहीं ! अंततः मीरा के संकल्प की दृढता ने संत को मजबूर कर दिया कि वह अपने आराध्य इष्टदेव की वह मूर्ति मीरा को सौंप दे !

संत को जहां एक ओर उसके आराध्य कृष्ण की मूर्ति से विछुड़ जाने का दुःख था ,वहीं दूसरी ओर उसे एक विलक्षण आनंद का अनुभव हो रहा था ! पर्वतों की कन्दराओं में की हुई उसकी कठिनतम साधना से जिस शांति की प्राप्ति उसे तब तक नहीं हुई थी , वह सुख , वह शांति वह संतुष्टि उसे उस नन्हीं प्रेम दीवानी मीरा के दर्शन मात्र से प्राप्त हो गयी थी !

बालिका मीरा का श्री कृष्ण की मूर्ति के प्रति वह अपूर्व प्रेम और उसके मन में उसे पाने की तड़प तथा एकनिष्ट भाव से उस मूर्ति के प्रति अपना सर्वस्व समर्पण करने का भाव ,संत के हृदय को छू गया ! संत की समझ में आगया कि भक्ति-भाव का मूलाधार प्रेम है ! प्रेम के बिना भक्ति हो ही नहीं सकती ! क्रमशः

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इस संदर्भ में मुझे अपने जीवन की एक घटना याद आ रही है ! नवंबर १९५६ में हमारा विवाह सम्पन्न हुआ ; हम दोनों ने बड़े चाव से अपने कमरे में लगाने के लिए गीताप्रेस गोरखपुर में मुद्रित देवी देवताओं के चित्रों में से दो चित्र चुने ,एक रामजी का और दूसरा कृष्ण का ! हमने उन्हें अपने बेड रूम के निजी मंदिर में बड़े प्रेम से प्रस्थापित भी कर दिया !कुछ माह उपरान्त एक अद्भुत घटना घटी :

मैं उन दिनों कानपूर में कार्यरत था और बहुत सबेरे घर से निकल कर देर शाम तक घर लौटता था ! जब की यह घटना है उन दिनों मेरी धर्मपत्नी कृष्णा जी भी एम् ए की परीक्षा में बैठने के लिए ग्वालियर - अपने मायके गयी हुईं थीं !

एक दिन मैंने फैक्ट्री से वापिस आकर देखा कि हमारे बेड रूम के मंदिर में श्रीकृष्ण का वह चित्र नहीं है ! पूछताछ करने पर मेरी भाभी ने बतलाया कि उस दिन दोपहर में बेवख्त ही घर के द्वार पर दस्तक हुई ! द्वार खोला तो देखा कि एक अपरिचित महिला बहुत सकुचायी और डरी हुई दरवाजे पर खड़ी थी ! उसके साथ उसका एक चार पांच वर्ष का बहुत ही सुंदर बालक था ! बच्चा महिला का पल्लू पकडे हुए खड़ा था ! दोनों ही देखने में किसी धनाढ्य , भद्र वणिज ,परिवार के लगते थे !

भाभी ने आगे कहा कि, अभी उसकी माँ अपना परिचय दे ही रही थी कि वह बालक माँ का हाथ छुड़ा कर घर के अंदर ऐसे घुसा जैसे कि बहुत पहिले से हमारे घर के चप्पे चप्पे से अच्छी तरह से वाकिफ हो ! घर के अंदर घुस कर वह सारे खुले हुए कमरे छोड़ कर ,सीधे हमारे बंद बेड रूम की ओर ही गया ! घर के सभी सदस्य आश्चर्य चकित थे कि वह बालक बंद कमरे की ओर ही क्यों गया ? उसने जबरदस्ती हमसे तुम्हारे कमरे का ही ताला क्यों खुलवाया ?और ताला खुलते ही वह सीधे उसी ओर ही कैसे चला गया जहां मंदिर में श्रीकृष्ण जी का वह चित्र लगा हुआ था ? मंदिर के निकट पहुंच कर ,बिना मुंह से कुछ बोले , केवल संकेत से ही उसने श्री कृष्णजी के उस चित्र विशेष को पाने के लिए जिद करना चालू कर दिया ! जब तक उसने वह चित्र अपने हाथ में थाम नहीं लिया तब तक वह शांत नहीं हुआ!उसे पा लेने पर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा ; उसने एक पल को भी उस चित्र से अपनी नजर नहीं हटायी , वह अपलक एक टक बड़े आनंद से कृष्णजी की मनमोहिनी छवि को अतीव श्रद्धा से निहारता रहा !

शेष कल

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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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रविवार, 24 जुलाई 2011

जब जानकी नाथ सहायक तेरो # ४ ० ६

जाके राम धनी वाको काहे की कमी

प्रियजन,

श्री राम शरणम के गुरुजनों तथ उनसे सम्बन्धित महापुरुषों से सुना है कि जीवन में पूर्णत: सफल होने के लिए साधकों को पूरी निर्भयता से, अविचल संकल्प तथा दृढ़ निश्चय के साथ ,अपनी सम्पूर्ण क्षमता का उपयोग करते हुए ,अपने लिए प्रभु द्वारा ,पूर्व निर्धारित कर्तव्य कर्म अति प्रसन्न मन से करते रहना चाहिये !

निर्भयता सर्वप्रथम ,सर्वोच्च , सर्व प्रमुख आवश्य्कता है ! सफलता के लिए व्यक्ति का भय-मुक्त होना अनिवार्य है ! एक भयभीत व्यक्ति किसी प्रकार भी अपनी समग्र शक्ति तथा पूरी योग्यता का उपयोग अपने क्रिया कलापों में नहीं कर सकता है और उसके लिए ऐसी स्थिति में पूरी तरह से सफल हो पाना असंभव है ! अस्तु महापुरुषों के कहे अनुसार :

इस बात का पूरा भरोसा रखो कि तुम्हारा इष्ट प्रति क्षण तुम्हारे अंग संग है और तुम्हे उचित मंत्रणा और आवश्यक प्रेरणा दे रहा है ! अपने सभी कार्य करते समय लगातार "उसको" याद करते रहो ,उसका -"नाम जपते रहो (और उसका काम समझ कर अपना) काम करते रहो" ! पल भर को भी गुरुजन का यह कथन न भूलो कि तुम्हारे अंग संग प्यारे प्रभु जैसे सहायक के होते हुए कोई भी शक्ति, व्यक्ति अथवा परिस्थिति तुम्हारे कार्य बिगाड नहीं सकती और
तुम्हारा "बाल न बांका कर सके जो जग बैरी होय "

आत्म कथा - प्रियजन, अभी कुछ दिन पूर्व ,कम्प्यूटर की अस्वास्थ्ता के साथ साथ आपके इस वयस्क (बुज़ुर्ग) स्नेही स्वजन को भी कितनी ही बार होस्पिटलों तक दौड लगानी पडी ! आप तो जानते ही हैं ,मेरा ब्लॉग लेखंन तब जो थमा आज तक सम्हल नहीं पाया है ! लेकिन उन दिनों की अफरातफरी में मुझे ३४ वर्ष पूर्व,१९७८ में अपने "श्री रामाय नमः" नामक डबल एल पी एल्बम के लिए स्वरबद्ध किया तुलसीदास का एक पद बहुत याद आया !

उम्र और बीमारिओं के कारण अवरुद्ध कंठ से आजकल स्वर उतनी मधुरता से नहीं निकलते फिर भी आज आपको और अपने प्यारे प्रभु को भी बहुत दिनों के बाद अपनी दुर्बल थकी दुखी आवाज़ में ही यह पद सुना रहा हूँ ! एक प्रार्थना है प्यारे पाठकों कि आप भी मेरे साथ ये शब्द दुहराएं ! आनंद के साथ साथ आपको भी आपके हर कार्य में सफलता मिलेगी ,आपके मार्ग की सारी विघ्न बाधायें मिट जाएंगी !

जब जानकी नाथ सहाय करे तब कौन बिगार करे नर तेरो
(जय सिया राम जय सिया राम जय सिया राम जय जय सिया राम)

सूरज मंगल सोम भ्रीगू सुत बुध अरु गुरु वरदायक तेरो
राहु केतु की नाही गम्यता ,संग सनीचर होत उचेरो
जब जानकी नाथ सहाय करे तब कौन बिगार करे नर तेरो
(जय सिया राम जय सिया राम जय सिया राम जय जय सिया राम)




जाकी सहाय करे करुना निधि ताके जगत में भाग बड़ेरो
रघुवंशी संतन सुखदाई तुलसिदास चरनन को चेरो
जब जानकी नाथ सहाय करे तब कौन बिगार करे नर तेरो
(जय सिया राम जय सिया राम जय सिया राम जय जय सिया राम)

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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

प्रेम दीवानी मीरा - # ४ ० ५


पिछले कुछ दिन :

उम्र की मार से मजबूर हो खामोश रहा
ये लम्हे कैसे कटे ,यार नहीं याद मुझे

आज जब होश में आया हूँ तो मुश्किल ये है
इब्तदा कैसे हो ,जब अंत नहीं याद मुझे

होश में हूँ मगर बेहोश ही समझो मुझको
चंद नामों के सिवा ,कुछ भी नहीं याद मुझे
"भोला"
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प्रेम दीवानी मीरा

"ना मैं जानूँ आरती वंदन ,ना पूजा की रीति"
(गतांक से आगे)

राजकुवरि मीरा का हठ मिश्रित करुण रुदन तथा कृष्ण की मूर्ति पाने की उत्कट इच्छा का चिंतन करते हुए संत इतना विव्हल हो उठा कि पूरी रात ठीक से सो न सका और उसने तभी निश्चय कर लिया कि प्रातः उठटे ही वह शीघ्राशीघ रतन सिंह राठौर के महल जायेगा और महल का भोग अपने "गोपाल जी" को खिलायेगा ! प्रियजन ,यह तो केवल एक बहाना है ! असल बात तो यह है कि उसे एक बार फिर महल में प्रवाहित प्रेम भक्ति की गंग-तरंग में जी भर कर स्नान करना है !



अगले दिन ,अपनी कुटी से, राजप्रासाद की ओर जाते हुए , संत विचार कर रहा था कि "मैंने आजीवन अपने गोपालजी की सेवा पूरी निष्ठां और विश्वास के साथ विधि पूर्वक की है फिर क्या कारण है कि मेरे गोपालजी ने आज तक मेरी सेवाओं को , इतने उत्साह से नहीं ग्रहण किया जितनी तत्परता से ,जितने उल्लास और जितनी रूचि से उन्होंने नन्हीं मीरा के हाथ से निर्मित प्रसाद ग्रहण किया !मेरी आराधना में अवश्य ही कोई बडी कमी है ,मेरे निवेदन में निश्चित ही कोई भयंकर चूक हो जाती है जिससे मेरे इष्टदेव मुझ पर आज तक एक बार भी इतना प्रसन्न नहीं हुए जितना वह रतन सिंह राठौर की बिटिया द्वारा अर्पित भोग ग्रहण करके हुए !



प्रियजन ,जैसे जैसे वह संत ,राजा रतन सिंह के महल के निकट आ रहा था उसके हृदय की गति बदल रही थी ,उसमें मन में एक विशेष तरंग उठ रही थी ,एक भिन्न ही भावना जागृत हो रही थी ! ( प्रियजन सच कहता हूँ यदि उसकी जगह मैं होता तो राह चलते चलते अवश्य ही यह गुनगुना रहा होता : ना मैं जानूँ आरती वंदन ना पूजा की रीति :)


इधर ,दूर से ही संत को महल के निकट आते देख कर द्वारपालों में अफरातफरी मच गई ! एक ने भाग कर महल के अंदर जाकर सूचना दी कि वह संत जिसकी झोली में वह दिव्य खिलौना था , जिसे पाने के लिए राज कुंवरि मीरा कल प्रातः से बेचैन है , वह संत जिसकी तलाश कल से हो रही थी और जो कल की खोज में राज्य की सीमा में दूर दूर तक कहीं नहीं दिखा था , वह झोली वाला संत आज प्रातः आपसे आप ही महल की ओर चला आ रहा है !

प्रातः से ही किसी दिव्य अन्तः प्रेरणा से नन्हीं मीरा कल की तरह ही अपनी अनुरागिनी माँ के पीछे पड़कर महल की रसोई में अपने प्यारे गिरिधर गोपाल के लिए कलेवा तैयार करने में जुटी थी !तीन वर्ष की उस नन्हीं बालिका के मुखारविंद पर अंकित भावभंगिमा ,प्रत्यक्ष रूप में , कृष्णा के प्रति उसकी चिरस्थायी अति पुरातन प्रेम की तन्मयता प्रदर्शित कर रही थी ! अप्रत्यक्षता से उनमे अंकित थी उसकी ,जन्म जन्मांतर से उससे बिछड़े उसके प्यारे गिरिधर गोपाल के विरह की गहन वेदना ,गहरी पीड़ा !

रणछोड दास के मंदिर में , सशरीर अपने प्रियतम द्वारकाधीश की मूर्ति में विलीन हो जाने के लगभग एक शताब्दी बाद संकलित मीरा के हृदय ग्राही पदों में तथा बीच के इन पांच सौ वर्षों में विक्रत अथवा संशोधित आधुनीकृत स्वरूपों में कौन से असली (वास्तविक) मीरा के हैं कौन नकली हैं यह तो शोध का विषय है , उस पचड़े में न पड़ कर चलिए मीरा के मन के उस भाव को पढ़ें जो उसके मुख पर तब अंकित था जब वह संत दुबारा राज महल में पहुंचा !

बालिका मीरा का मुख मंडल , प्रेम , प्रेम ,एकमात्र पेम - कृष्ण प्रेम रस में सराबोर था -उसका समग्र चोला (मीरा के ही एक पद में वर्णित भाव के अनुसार) कभी न कभी कृष्ण के मनहर स्वरूप में विलय की प्रतीक्षारत था

पच रंग चोला पहिर मैं , झिर्मिट खेलन जाती
ओहि झिर्मिट माँ मिलो सावरो , खोल मिली तन गाती
सैयां मैं तो गिरिधर के रंग राती

मीरा के उस दिव्य स्वरूप को देखते ही संत ने मन ही मन में यह संकल्प किया कि अब
उसे आराधना के कठिन परम्परागत औपचारिकताओं का परित्याग कर के अपने आप को ,प्यारे गोपाल जी के श्री चरणों पर ,अति निर्मल मन से (मन की सभी वासनाओं, दुर्गुणों और कुभावनाओं को त्याग कर ) ,
अतिशय प्रीति के साथ पूर्णतः समर्पित कर देना है !


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क्रमशः

परमप्रिय पाठकगण , दुआ करें कि मैं कल भी आपकी सेवा में सन्देश भेज सकूं

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निवेदक : व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव


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सोमवार, 18 जुलाई 2011

मतवाली मीरा # ४ ० ४



अप्रत्यक्ष रूप में तो "कृष्णभक्ति" की दिव्य तरंगें रतन सिंह राठौर की हवेली में मीरा के गर्भस्थ होते ही आ गयीं थीं , परन्तु उस दिन उस संत के अचानक ही वहाँ आने के बाद सम्पूर्ण क्षेत्र का ही माहौल पूरी तरह से "कृष्णमय" हो गया ! संत ने नन्ही मीरा के सन्मुख ही अपने इष्टदेव "श्री कृष्ण" के विग्रह का बहुत ही प्रेम और श्रद्धाभक्ति सहित "सेवा पूजन आराधन" किया था और नन्हीं मीरा के द्वारा निर्मित भोग ही अपने इष्टदेव को निवेदित किया था !

यह सम्पूर्ण घटनाक्रम ,केवल उस गढी में ही नहीं वरन विश्व के इतिहास में शीघ्र ही आने वाले किसी शुभ संयोग की सूचना दे रहा था !

यह वह काल था, यह वह स्थान था जिसे हम एक विशिष्ट "प्रेमा भक्ति" परम्परा का जन्म समय और स्थान कह सकते हैं ! यह गंगोत्री-यमुनोत्री के समान पवित्र ,शुभ्र ,सुमधुर शीतल प्रेम भक्ति रसधार का वह उद्गम था ,जिसमे ,मज्जन करने वाला साधारण से साधारण व्यक्ति ,अति सुगमता से ऐसी ऐसी अनुभूतियाँ अर्जित कर लेता हैं जो बड़े बड़े विरागी संतों सन्यासियों तथा योगियों को दुर्लभ होती हैं !

धरती धन्य, धन्य वह बेला, जिसमे कोई संत पधारे
धन्य वंश वह जिसमे कोई दिव्यात्मा आकर तन धारे
(भोला)

नन्ही मीरा रो रही थी , लेकिन उसकी दिव्यात्मा हर्षित थी ! न जाने कब ,शायद हजारों वर्ष पूर्व उससे बिछडा उसका "मनमोहना",आज स्वतह, चलकर ,उससे मिलने के लिए उसके द्वार आया था और उसे पूरा विश्वास था कि उसका कान्हा थोड़ी देर के लिए ही उससे विलग हुआ है और बहुत शीघ्र ही वह नटखट करील के कुंजों से निकल कर पुनः उससे आ मिलेगा , अब उसे ऐसे विरह के गीत नहीं गाने हैं

प्यारे दर्शन दीजो आय तुम बिन रहो न जाय !!
क्यों तरसाओ अंतरयामी,
आय मिलो किरपा करो स्वामी,
मीरा दासी जनम जनम की पडी तुम्हारे पाय
प्यारे दर्शन दीजो आय तुम बिन रहो न जाय !!

नन्हीं मीरा वैसे तो संसार की नजरों में रो रही थी लेकिन उसकी दिव्य अंतर-आत्मा हर्षित होकर कह रही थी कि :-

जब मीरा को गिरिधर मिलिया दुःख मेटन सुख भेरी
रोम रोम साका भई उर में मिट गयी फेरा फेरी!!

इष्ट की लुक्काछुपी के खेल में ,अपने सखा कृष्ण का साथ दे रहा वह भोला संत अधिक समय तक उस नटखट कन्हैया का साथ नहीं निभा सका ! वास्तव में जब से वह रतन सिंह राठौर की हवेली से लौटा था , वह एक पल को भी कृष्ण प्रेमदीवानी नन्हीं मीरा की जिद और उसका करुण रुदन भुला नही पाया था ! उस बालिका का कृष्ण की उस मूर्ति के प्रति इतना लगाव ,आम बालिकाओं की मेले में गुडिया खरीदने की जिद से बहुत भिन्न थी !

संत ने निश्चय किया कि अगली सुबह ही वह एक बार पुनः ठाकुर रतन सिंह की हवेली पर जायेगा और भक्ति की साकार प्रतिमा ,"कृष्णप्रिया" उस नन्हीं राज कुंवरि के दिव्य दर्शन कर के अपना जीवन धन्य बनाएगा !

शेष अगले सन्देश में
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निवेदक :- व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
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शनिवार, 16 जुलाई 2011

प्रेम दीवानी मीरा - # ४ ० 3


हरि दर्शन की प्यासी मीरा
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ठुमुकठुमुक ,अंगनैया, नाचे है, राजकुँवरि.
वाको मनभाय गयो ,कुंवर कन्हैया है !!
मरुथलमें ,छाय गई , हरियारी ,गोकुल की,
महारास मधुबन में कान्हा रचवैया हैं !!
भोला कर जोर कहे वेगि चलो गोपीजन,
देखऊ तनि, ढीठ लंगर, कैसो नचवैया है!!

"भोला"
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शताब्दी के अंत (१४९८) में , मीरा के जन्म से ही राठौरों की उस गढी में प्रेमाभक्ति की दिव्य तरंगें स्पंदित हो रहीं थीं ! गढी के प्राचीर, गुम्बद , नक्काशीदार काष्ट के द्वार ,ऊंचे ऊंचे खम्भे सारे समवेत स्वरों में हरि "नाम" उच्चारने लगे थे ! परिवार के सदस्य ,रात्रि की नीरवता में कभी कभी रेगिस्तानी हवा के झोंकों में गूंजती "श्यामा श्याम" की "धुन" साफ साफ सुनते थे! हवेली का ही नहीं अपितु सारे राजमहल का वातावरण कृष्णमय हो गया था !

माता तो पुत्री मीरा के जन्म के पहले से ही, अपनी कोख में गर्भस्थ शिशु के हृदय में स्पंदित "कृष्ण कृष्ण" की ध्वनि सुनती रहती थी ! मीरा के जन्म के चार पांच मास पूर्व से ही माता के उदर में शिशु के नन्हे नन्हे पावों की ठोकरों में निहित "गोकुल के कृष्ण" की महारास में ठुमकती उनकी प्रिय सखी ललिता के पद चाप का आभास होता था (तभी तो मीरा की कुछ प्रिय सखियाँ उसे कभी कभी "ललिता सखी" कह कर चिढ़ाती थीं )

मूर्ती के लिए रोती बिलखती मीरा को महारानी जबरदस्ती उठा कर महल के अंदर ले तोआयीं लेकिन वह किसी प्रकार भी उसको चुप न करा सकीं ! मीरा का रोना थमा ही नहीं ! माता ने अनेकानेक प्रलोभन उसे दिए ! पिता ने जोधपुर के जौहरियों और स्थानीय कुशल कारीगरों द्वारा निर्मित भांति भांति की रत्नजडित सुवर्ण ,रजत ,कांस्य ,ताम्र ,संगमरमर में गढी श्री कृष्ण की मूर्तियां मंगवाई पर मीरा को उनमे से एक भी नहीं भाई ! मीरा अपनी जिद पर अडी रही और यह साफ़ हो गया कि मीरा को ,उस संत की झोली में पडी श्रीकृष्ण की उस कांस्य मूर्ति के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु शांत नहीं कर पाएगी !

थक हार कर , ठकुरानी ने ठाकुर को समझा बुझा कर राजी किया कि जैसे भी हो ,मीरा को मनाने के लिए संत के पास से "कृष्ण" की वह मूर्ति हासिल करनी ही होगी ! उनकी खोज में सिपाही चारों तरफ दौड़ाये गए ! लेकिन तब तक वह संत नगर की भीड़ भाड़ में कहीं लुप्त हो गये थे ! सिपाही खाली हाथ लौट आये !

इधर ३ वर्ष की नन्हीं मीरा ने व्रत ले लिया कि वह उस समय तक अपने मुख में अन्न का एक दाना भी नहीं डालेगी जब तक वह अपने हाथों से अपने जन्म जन्म के स्वामी श्रीकृष्ण की उस मूर्ति विशेष को भोग निवेदित नहीं कर लेती ! प्रियजन , मीरा का वह व्रत कुछ कुछ वैसा ही था जैसा भारत के पूर्वांचल की नव विवाहिता कन्याएं "छठ" के दिनों में करती हैं , जैसी पछाहं की बधुएं "तीज" तथा "करवा चौथ"के दिन करतीं हैं ! हवेली ही नहीं राठौरों का वह पूरा इलाका ही छोटी सी मीरा की इस कठिन प्रतिज्ञा की बात सुन कर दंग रह गया !

कुछ पाठकों को उत्कंठा है यह जानने के लिए कि आत्मकथा लिखते लिखते भोला जी कहाँ भटक गए ? पाठकगण मेरे जैसे साधारण गृहस्थ साधक के लिए जिसको साधना के क्षेत्र में अपने इष्ट देव को रिझाने के लिए कीर्तन भजन गायन का ही एकमात्र अवलम्ब मिला है , "प्रेम- भक्ति" परम्परा की सर्वोच्च साध्वी "मीराबाई" से उत्तम और कौन सा उदाहरण है ! मीराबाई द्वारा अपने इष्ट के प्रेम में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देना तथा डंके की चोट पर यह एलान कर देना कि --

मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा न कोई
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई
मीरा हरि लगन लगीं होंन हो सो होई

--मीरा की ये पंक्तियाँ उनकी एकनिष्ठता प्रकाशित करती है ! मीरा की श्री कृष्ण प्रीति तथा उनका सम्पूर्ण समर्पण भाव मेरे प्रिय पाठकों सर्वथा अनुकरणीय है ! महापुरुषों से सुना है 'प्यारे प्रभु के प्रति हमारी परम प्रीति ही प्रगाढ होकर भक्ति बन जाती है '! हमारे स्वामी जी महाराज ने भी कहा है कि "भगवान से प्रीति करो ! अपना कर्म न त्यागो ,काम करते रहो और पूरी श्रद्धा के साथ "नाम" भी जपते रहो" :-

प्रीति करो भगवान से , मत मांगो फल दाम ,
तज कर फल की कामना भजन करो निहकाम !!

(स्वामी सत्यानंद जी महाराज)

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क्रमशः
निवेदक : व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
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शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

श्री गुरुवे नमः # ४ ० २ -


गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर बधाई हो बधाई
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परम गुरु जय जय राम
स्वीकारो सबके प्रणाम
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जुलाई १५ , २०११
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गुरु की कृपा दृष्टि हो जिस पर उसको अंतर्ज्ञान मिले
जो न जानता हो निज को उस को अपनी पहचान मिले
गुरु की कृपा दृष्टि हो जिस पर उसको अंतर्ज्ञान मिले

साधक ने गुरु की करुना से अपना सत्य रूप पहचाना
वह तन नहीं, एक दिन जिसको होगा मिट्टी में मिल जाना
अजर अमर वो "ईश अंश"है ,उसको "परमधाम" ही जाना
भीतर झांक तनिक जो देखे निज घट में श्री राम मिलें

गुरु की कृपा दृष्टि हो जिस पर उसको अंतर्ज्ञान मिले

समझा अपना सत्य रूप जो, औरों को भी जान गया
केवल खुद को नहीं ,व्यक्ति वह, दुनिया को पहचान गया
जो मैं हूँ वह ही सब जन हैं ,परम सत्य यह मान गया
ऐसे साधक को सृष्टि के कण कण में भगवान मिले

गुरु की कृपा दृष्टि हो जिस पर उसको अंतर्ज्ञान मिले

धन्यभाग वह साधक होता सदगुरु जिसकी ओर निहारे
केवल उसको नही परमगुरु उसके सारे परिजन तारे
गीधराज शबरी ऋषि पत्नी को जैसे श्री राम उद्धारे
प्रेमी साधक को वैसे ही सद्गुरु में श्री राम मिले

गुरु की कृपा दृष्टि हो जिस पर उसको अंतर्ज्ञान मिले

उसको जप तप योग न करना घर ब्यापार नही है तजना
कर्म किये जाना है उसको फल की चिंता कभी न करना
गुरु चिंता करता है उसकी ,निर्भय हो कर उसको रहना
ऐसे जन को उसके कर्मो के सुन्दर परिणाम मिले

गुरु की कृपा दृष्टि हो जिस पर उसको अंतर्ज्ञान मिले

जान गया है अब वह यह सच 'माया आनी जानी है'
धन दौलत की चाह न उसको 'गुरु करुना' ही पानी है
दर दर भटक भटक कर उसको झोली ना फैलानी है
ऐसे जन को बिन मांगे ही सकल सुखों की खान मिले

गुरु की कृपा दृष्टि हो जिस पर उसको अंतर्ज्ञान मिले

"भोला"














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चित्रों में हमारे गुरुजन , ऊपर से नीचे:

१. जन्मदात्री माँ , जिनकी गोद में "प्यारे प्रभु" से प्रथम परिचय हुआ !

२. दिवंगत गृहस्थ संत, धर्म पत्नी कृष्णा जी के बड़े भाई
जिनके घरेलू दैनिक सत्संग से हमारा आध्यात्मिकता से परिचय हुआ !

३. दिवंगत श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ,मेरे अध्यात्मिक दीक्षा गुरु
जिनसे प्राप्त "नाम" ने मुझे वैसा बनाया जैसा मैं आपको आज नजर आता हूँ !

४. दिवंगत श्री प्रेमजी महाराज , स्वामी जी के बाद,
१९६१ से १९९१ तक श्री राम शरणम के आध्यात्मिक अध्यक्ष !

५. (दिवंगता) श्री श्री माँ आनंदमयी जिन्होंने १९७४ में अनायास ही, मेरी भजन सेवा
स्वीकार कर अपनी प्रेममयी दृष्टि दीक्षा से मुझे अहंकार शून्य कर दिया!
तथा मेरा अंतःकरण अखंड आनंद से भर दिया !

६. श्री डॉक्टर विश्वामित्र जी महाराज ,
श्री राम शरणं दिल्ली के वर्तमान आध्यात्मिक अध्यक्ष ,जिनकी दिव्य प्रेममयी
प्रेरणा ने मुझे भजन रचने तथा गाते रहने का सामर्थ्य प्रदान किया !

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निवेदक : व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती श्रीदेवी कुमार (चेन्नई)
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बुधवार, 13 जुलाई 2011

कृष्ण प्रिया मीरा # ४ ० १


मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा न कोई
मीरा हरि लगन लागी होंनि हो सो होई

५ जुलाई २०११ से प्रेम दीवानी "मीरा" की कथा चल रही थी ! अकारण ६ जुलाई से ही इतनी रुकावटें आई मीरा के दिव्य प्रेम की कहानी के तार जगह जगह से टूट गये और कथा रुक गई ! स्वभाववश बहुत छटपटाया ! कम्पयूटर का अनाड़ी खिलाडी होने के कारण स्वयम कुछ भी न कर पाया ! अस्तु जानकार कम्प्यूटर गुरुजनों के दरवाजे खटखटाये ! स्वयम सेवी हिंदी ब्लॉग के गुरु प्रियवर राजीव कुल्श्रेष्ठ जी , प्रिय पुत्र राघवजी , रानी बेटी श्रीदेवी तथा पौत्री मोहिनी बिटिया की मदद से अब काम बन गया है ! सब मददगारों को मेरा हार्दिक धन्यवाद !
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प्यारे प्रभु की कृपा से लगभग एक सप्ताह के बाद आज स्थिति काबू में आगयी लेकिन जुड़े हुए तार में जो गांठें पड़ गयीं वो आगे बढने ही नहीं दे रही हैं ! दो दिनों से लग कर कोशिश कर रहा हूँ ! कलम तो चलती है ,पर मूल प्रसंग आगे बढ़ाने के बजाय , कुछ और ही लिख जाता है ! शायद "ऊपर" से ही कोई रोक लग रही है ! " परवश को नहि दोष गुसाईं "सो क्षमा मांगता हूँ ! हाँ प्रियजन , इस बीच मूल विषय को छोड़ कर काफी कुछ लिखा जो समय आने पर धीरे धीरे आपकी सेवा में प्रेषित करूँगा !

अभी एक बार फिर उस प्यारी प्यारी नन्ही गुडिया सी राजकुमारी मीरा की कहानी आपको सुनाने का प्रयास करूं , सफलता के लिए आपकी शुभ कामनाएं आपेक्षित हैं , कृपा करिये !

प्रेम दीवानी मीरा

संत के झोंले से निकली उस मनमोहनी मूर्ती को देखते ही नन्ही राजकुमारी मीरा के मन में उसके जन्म जन्मान्तर के प्रियतम श्री कृष्ण की स्मृति जागृत हो गयी ! वह ,वहीं संत के निकट बैठ कर उस संत द्वारा की हुई उसके उपास्य गिरिधर गोपाल की सेवा के दृश्य देखती रही ! कितनी श्रद्धा-भक्ति से उस संत ने राजमहल से मिला व्यजन ,स्वयम न खा कर पहले अपने इष्ट के श्री विग्रह को अति प्रेम युक्त आग्रह से निवेदित किया यह , देखते बनता था ! बालिका मीरा मंत्र मुग्ध सी एक टक उधर देखती रही !
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प्रियजन , अनुकरणीय है , पुरातन काल से भारत भूमि में प्रचिलित यह प्रथा - यह रिवाज़ ! स्वयम भोजन पाने से पहले , द्वार खड़े आगन्तुक को खिलाना , और आगन्तुक द्वारा भी प्रसाद ग्रहण करने से पूर्व उसे अपने अन्नदाता - इष्ट को सादर निवेदित कर देने की !

श्रीराम शरणम के सत्संगों में इस प्रथा को पूर्णतः निभाया जाता है ! स्वामी जी महराज ने भोजन पाने से पूर्व और भोजन कर लेने के बाद बोलने के लिए ,सरल हिन्दी भाषा में , दो मंत्रों की रचना की - जो इस प्रकार हैं -

भोजन से पूर्व :-

अन्नपते शुभ अन्न है तेरा दान महान ,
करते हैं उपभोग हम परम अनुग्रह मान !!,

अन्नपते दे अन्न शुभ देव दयालु उदार ,
पाकर तुष्टि सुपुष्टि को करें कर्म हितकार!!
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भोजन के बाद

धन्यवाद तेरा प्रभु तू दाता सुख भोग
सारे स्वादुल भोग का रसमय मधुर सुयोग

विविध व्यंजन भोज सब तू देवे हरि आप ,
खान पान आमोद सब तेरा ही सुप्रताप !!

स्वामी जी महराज से नाम दीक्षा मिलने के बहुत पहले १९५७ में ही मैंने अपनी ससुराल में पहली बार उपरोक्त मंत्रों का उच्चारण सुना ! वहाँ परिवार के मुखिया, मेरी धर्म पत्नी कृष्णा जी के बड़े भाई ,परम भक्त , गृहस्थ संत, भू .पू.चीफ जस्टिस शिवदयाल जी , सपरिवार भोजन करते समय इन मंत्रों का उच्चारण स्वयं भी करते थे और परिवार के सभी छोटे बड़े सदस्यों से करवाते थे !
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राज कुंवरि मीरा की दृष्टि उसके प्रीतम श्रीकृष्ण की उस मूर्ति से एक पल को भी नहीं हटी !उस मूर्ति को पाने के लिए उसने रो रो कर धरती आकाश एक कर दिए ! हंगामा मचा दिया ! महारानी उसे मनाने के लिए उठा कर अंदर महल में ले गयीं ! पूरा राज महल उसके करुण रुदन से दहल गया !

इधर छक कर प्रसाद पाने के बाद समुचित दक्षिणा ग्रहण कर के , राजपरिवार पर अपने आशीर्वाद की वर्षा करते हुए वह संत अपने झोले में श्री कृष्ण जी की मूर्ति  डाल कर, उठ कर वापस चला गया !


अभी दुआ कर रहा हूँ कि यह संदेश आप तक पहूँच जाये ! अधिक रिस्क नहीं लूंगा , शेष कथा कल सुनाऊंगा :

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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
टेक्निकल सहयोग : श्री. राजीव कुल्श्रेठ जी (भारत)
श्रीमती श्रीदेवी कुमार (चेन्नई)
श्री. राघव रंजन (Andover USA )
सुश्री कुमारी मोहिनी श्रीवास्तव (Boston USA)
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बुधवार, 6 जुलाई 2011

धुन - "बोलो राम बोलो राम" # 4 0 0

Our Very Dear Readers 
Ram Ram,

Look at the problem we are faced with right now. Suddenly we are finding that our  messages can not be transcribed into the HINDI ( Devanagrii  script) .


Wonder if some one could guide us to solve this seemingly insurmountable technical hurdle.


Meanwhile please join us in singing this "Bolo Ram" Dhun with the very devoted members of the Chinmay Bhajan Group of ANDOVER (MA) USA .


GOD BLESS YOU 

BHOLA  KRISHNA


Courtesy :
Shree Devi Kumar (chennai)
Chinmay Maruti Bhajan Group Andover (MA) USA
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मंगलवार, 5 जुलाई 2011

'कृष्ण-दीवानी' मीरा की राम-भक्ति' # 3 9 9

मीरा मगन भई हरि के गुन गाय
कबहूँ गिरिधर के रंग राते, कभौं राम गुन गाय  ! 
माई वाको "राम श्याम" में भेद न कोऊ लखाय !
मीरा मगन भई हरि के गुन गाय
("भोला")


मीरा का तन उसका मन उसका रोम रोम उसका सर्वस्व ही कृष्णमय है !  गिरिधर गोपाल के अलावा उसका और कोई है ही नहीं ! मीरा के स्वांस प्रस्वास के स्वरों में ,उसके हृदय की धडकन की लय पर ,उसकी विशुद्ध प्रीति को संजोये कृष्ण प्रेम के गीत प्रस्फुटित होते रहे ! उन गीतों का एक एक अक्षर उसके प्रियतम "कृष्ण "को पुकारता  है !

कृष्ण प्रेम की ऎसी मतवाली मीरा के मुख से उतनी ही श्रद्धा विस्वास और भक्ति के साथ   "राम नाम" निस्त्रित होते देख कौन आश्चर्य चकित नहीं होगा ? मीरा की वह रचना जो मैंने गुरुदासपुर में गाई थी वैसी स्थिति का बस एक नमूना मात्र थी ! वह भजन था : 
"मेरो मन राम ही राम रटे रे " ,
पर मीरा ने  इस भजन के अतिरिक्त भी अनेक राम भक्ति की भावना को संजोये भजन गाये थे ! मुझे यहाँ अभी दो चार ही याद आ रहे हैं :
"मेरे मन बसियो,रसियो राम रिझाऊँ " 
"माई रे मैंने राम रतन धन पायो"
"राम मिलन के काज आज जोगन बन जाऊंगी "

उपरोक्त पदों को सुनकर हम साधारण प्राणियों के जहन में यह सवाल उठ खड़ा होता है  कि पूर्णतः कृष्ण को समर्पित ,कृष्ण की दीवानी मीरा ने राम-भक्ति के इतने मर्म भरे पद कैसे रच दिए ?  बात यह है की प्रियजन,हम उनके इन पदों में अभिव्यक्त भावनाओं को नहीं समझ पाते ! मीरा की इन रचनाओं में निहित है उनका यह सनातन संदेश कि "राम कहो या श्याम कहो मतलब तो "उसकी" चाह से है", "उनको" अपने मन में रमा लेने से है "उन्हें" अपने मन की गहराइयों में सदा सदा के लिए उतार लेने से है ! मीरा का यह कहना की " रे  माई मैं अब अपने राम को रिझाने का काम करूंगी " इस भावना का प्रतीक है  !मीरा ने ऐसे पद गा गा कर जन साधारण की इस मिथ्या धारणा को  'कि राम और कृष्ण एक दूसरे से भिन्न है' ,दूर करने का प्रयास किया !  

सच तो यह  है कि साधक को प्रभु के जिस रूप,जिस गुण,जिस नाम में श्रद्धा होती है ,उसे  जिसके प्रति निष्ठां हो जाती है ,जिसमे उसकी प्रीति दृढ़ हो जाती है ,जिसके प्रति उसका समर्पण भाव जाग्रत हो जाता है,वही उसकी साधना का,भक्ति का ,सिद्धि का बीज मन्त्र बन जाता  है ! कृष्ण अर्पिता मीरा को बचपन में ही कृष्ण का स्वरूप मन भा गया था और कृष्ण क़ी उस मनमोहिनी छवि के प्रति उनके हृदय में इतनी प्रबल निष्ठा जागृत हुई थी कि उन्होंने मात्र तीन वर्ष की आयु में ही अपना सर्वस्व अपने उन प्रियतम इष्ट  गिरधर गोपाल के श्री चरणों पर अर्पित करके अपना समग्र असितत्व ही उनमे विलीन कर दिया !

नके रोम रोम में कृष्ण बस गये ! उनके होठों पर कृष्ण ,उनके हृदय में कृष्ण ,उनके नयनों में कृष्ण ,उनके तन मन में कृष्ण ,उनके अंग अंग में कृष्ण विराजित हो गये ! सब जानते है की उसके बाद ,कृष्ण उनके अराध्य ही नहीं बल्कि उनके प्रीतम ही बन गये और उनका समग्र जीवन कृष्णमय हो गया !

चलिए आपको बचपने में अपनी अम्मा से सुनी "मीरा" की यह कथा सुना दूं :


एक प्रातः मारवाड़ के किसी राजप्रासाद में उस राज परिवार की नन्ही सी तीन वर्षीय राज कुमारी ने जिद कर के रसोई में राजमाता के साथ अपने कोमल नन्हे हाथों से भगवान का भोग पकाने में राजमाता का सहयोग किया !और तभी उस महल के द्वार पर एक संत का पदार्पण हुआ ! राजकीय परम्परा के अनुसार आगंतुक संत को भोग का पहला प्रसाद एक थाल में लगा कर , वह नन्ही राजकुमारी स्वयम ही राजमाता के साथ उस संत के सामने गई ! संत को प्रासद सौंप कर राजकुमारी ,बाल सुलभ उत्सुकता से वहीं चुपचाप खड़ी हो गई ! वह संत के मुख से यह सुनने को बेताब थी कि " वाह, आज का प्रसाद कितना मधुर है , महारानी जी आज किसने बनाया है इसे ?"! पर संत ने न वैसा कुछ किया न वैसा कुछ कहा ही ! नन्ही गुडिया सी वह राजकुमारी थोड़ा उदास हो गई !

इस बीच संत ने धरती पर आसन जमाया लेकिन  सीधे प्रसाद ग्रहण कर लेने के बजाय उसने धीरे धीरे पहले अपना झोला खोला ! राजकुमारी  के मन का कौतूहल प्रति पल प्रबल हो रहा था ,यह जानने के लिए कि भिक्षुक अपने झोले से कौन सा जादूई जम्बूरा निकाल रहा है ! पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ ,झोले में से जादू का तो कुछ निकला नहीं, उसमे  से निकला खिलौने जैसा एक छोटा सा पीतल का सिंघासन जिसपर "गोपाल कृष्ण" की एक अति मनमोहक मूर्ति आसीन थी !

निकट ही खड़ी वह नन्ही तीन वर्षीय राजकुमारी ,अतीव कौतूहल से यह दृश्य देखती रही !
संत ने स्वयम वह भोग ग्रहण न कर के ,उसे अपने इष्ट देव श्री कृष्ण को विधिवत ,अति श्रद्धा से अर्पित किया और उसके बाद उसने स्वयम उस भोग का प्रसाद ग्रहण किया !

संत के झोले से निकले अपने जन्म जन्म के इष्ट "श्रीकृष्ण"  के मनमोहक विग्रह का दर्शन करते ही बालिका मीरा की पूर्व जन्म की स्मृतियां और जन्म जन्म के संचित उसके संस्कार उजागर हो गये ! फिर क्या था वह राजकुमारी से प्रेमदीवानी, दर्ददीवानी ,मतवाली कृष्णप्रिया "मीराबाई" बनने के अनंत पथ पर अग्रसर हो गई ! उस विग्रह को अपना बना लेने के लिए वह मचल पड़ी !

कृमशः 
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निवेदक: व्ही , एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती डॉक्टर कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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सोमवार, 4 जुलाई 2011

भजन - मेरो मन राम ही राम रटे रे


हमारे सद्गुरु # 3 9 7

मेरो मन राम हि राम रटे रे

सद्गुरु कौन ?



महापुरुषों का कथन है और मेरा अनुभूत सत्य भी कि जिस "व्यक्ति विशेष" के दर्शन से नेत्र तृप्त हों , जिसके वचन अति कर्ण प्रिय लगें, जिसकी मनोभावनाएँ, जिसके दिव्य विचार एवं उच्च आदर्शों को बिना बिचारे मान लेने को जी चाहे ,वही आपका सद्गुरु  है !जिसकी हर क्रिया अनुकरणीय प्रतीत हो , जिसके निकट से किसी कीमत पर भी दूर जाने को जी न चाहे, वही आपका सद्गुरु है !वह व्यक्ति जिसके सानिध्य से आपके अंतःकरण में आनंद की तरंगें प्रवाहित होने लगी , मेरे परमप्रिय स्वजनों वह महापुरुष  ही तुम्हारे लिए, परमपिता परमात्मा द्वारा नियुक्त इस जन्म का तुम्हारा सद्गुरु है ! अस्तु अब अधिक विलम्ब न करो ; पहचान लो उनको ! दौड़ो और उनके चरण कमलों को अति दृढ़ता से पकड़ कर अपना जीवन सफल कर लो !

हमारे सद्गुरु :

हमारे परम सौभाग्य से , हम दोनों को (कृष्णा जी और मुझे) आज से लगभग ६० वर्ष पूर्व ही मिल गये थे  हमारे सद्गुरु परम श्रद्धेय श्री स्वामी सत्यानन्द जी महराज और उन्ही की श्रंखला के अंतर्गत स्वामी जी के बाद श्रद्धेय श्री प्रेमजी महराज और उनके बाद आस्तिक भाव की अभिवृद्धि की परंपरा में पुर्णतः समर्पित , आज श्री राम शरणम के वास्तविक उत्तराधिकारी डॉक्टर विश्वामित्र जी महराज ! 

आपने सुना ही होगा, हम श्री रामशरणम् , लाजपत नगर, के साधक गर्व से डॉक्टर साहिब के इस दिव्य त्रिकोणीय व्यक्तित्व को जिसमे उनकी, तथा स्वामीजी एवं प्रेमजी महराज की झांकी एक ही आसन पर आसीन नजर आती है - "थ्री इन वन"  कहते हैं !  हम दोनों को ही नहीं, सच पूछिये तो अनेको पुराने साधकों को  डोक्टर साहिब के नैसर्गिक हावभाव और उनकी रहनी सहनी में, हमारे आदि गुरु स्वामी जी महराज जिन्हें डॉक्टर साहिब अति श्रद्धा भक्ति से "बाबा गुरु" कह कर संबोधित करते हैं , उनकी छवि साफ साफ झलकती दृष्टि गत होती  है ! 

जून २०११ में , अमेरिका में आयोजित इस त्रिदिवसीय खुले सत्संग के दिन ज्यों ज्यों निकट आते गये  हमारे  मन की उद्विग्निता प्रबल होती गयी, हमारा उत्साह दिन दूने रात चौगुने उछाल मारने लगा ! पूरे दो वर्ष बाद हमे महाराज जी के श्री स्वरूप का दर्शन होगा उनके सानिध्य में बैठने का सुअवसर मिलेगा , मधुर वाणी में उनका सारगर्भित प्रवचन तथा भजन और कीर्तन सुनने को मिलेंगे तथा यदि संभव हुआ तो मुझे महराज जी को अपनी नवीनतम भक्ति रचना सुनाने का सौभाग्य प्राप्त होगा इस कल्पना और संकल्प के विचार मात्र से हमारा मन पुलकित हो रहा था , एक अद्भुत आनंद की अनुभूति हो रही थी ! एक प्रेमी भक्त को इससे अधिक अन्य कुछ पाने की लालसा नहीं होती !

न जाने किस अंत: प्रेरणा से मुझे प्रतीक्षा के इन दिनों में रह रह कर अपना एक बहुत ही पुराना भजन याद आ रहा था ! यह भजन वह था जो मैंने , ३० - ३५ वर्ष पूर्व, गुरुदासपुर पंजाब के एक खुले सत्संग में, श्री प्रेम जी महराज की उपस्थिति में  गाया था ! उन दिनों मैं तुलसी, मीरा , सूर , कबीर , दादूदयालमलूकदास आदि के भजन ही गाया करता था. अस्तु उस दिन मैंने प्रेमजी महराज के सामने गाई , प्रेम दीवानी मीरा बाई की एक अनूठी राम भक्ति से परिपूरित  भक्ति रचना :-

मेंरो मन राम ही राम रटे रे  

राम  नाम  जप लीजे  प्राणी  कोटिक  पाप  कटे  रे
जनम जनम के खत जू पुराने ,नाम ही लेत फटे रे
मेंरो मन राम ही राम रटे रे  

कनक  कटोरे  अमृत  भरिया ,पीवत  कौन  नटे  रे 
मीरा के प्रभु हरि अविनाशी तन मन  ताहि  पटे   रे 
मेंरो मन राम ही राम रटे रे 

(तब की रेकोडिंग तो उपलब्ध नहीं है लेकिन आपको कभी यह भजन सुनाऊंगा अवश्य

अभी भी याद है कि कार्यक्रम के बाद गुरुवर श्री प्रेमजी महराज ने मुझे गले लगा कर नेत्रों से प्रवाहित प्रेमाश्रु की अमृत वर्षा में मुझे नख-शिख भिंगो दिया था ! मेरा रोम रोम धन्य हो गया था ! मेरा हृदय  प्रेम भक्ति के सुरस से परिपूरित हो छलछला कर मेरे  नेत्रों से  बह निकला था !  एक अद्भुत आनंद का अनुभव  मुझे उस अवसर पर  हुआ था !

हाँ तो , आज उस दिव्य अनुभव के ३०-३२ वर्ष के बाद , एक बार फिर मुझे USA के इस खुले सत्संग में अपने गुरु जी के समक्ष यही भजन गाने का जी कर रहा था ! अवश्य ही किसी  देवी  प्रेरणा  से  यह विचार मेरे मन में आया होगा !  इस भजन को एक पर्ची पर नोट करके अपने कुरते के ऊपर वाले पॉकेट में रख कर , मैं सत्संग की हर सभा में जाने लगा ! पर मुझे भजन गाने का मौक़ा ही नहीं मिला !

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हरि इच्छा एवं कम्प्यूटर जी के असहयोग आन्दोलन के कारण 
यह आलेख अति विलंबित गति से आगे बढ़ पा रहा है
क्षमा प्रार्थी हूँ 
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क्रमशः  
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती डोक्टर कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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शनिवार, 2 जुलाई 2011

बिनु गुरु ज्ञान न होई # 3 9 6

सद्गुरु परम्परा 


ब्रह्मा के पुत्र ,ज्ञान के स्वरूप, भक्ति मार्ग के आचार्य , देवर्षि नारद के विषय में  
  हमारे गुरुदेव स्वामी सत्यानान्दजी महाराज ने  कहा है कि

नारद हुआ गुणी शुभ ज्ञानी , भक्तराज मुनि उत्तम ध्यानी !!
भक्तिभाव में था बड़ भागी ,  उच्च कोटि  का हरि  अनुरागी !!
सुंदर स्वर में हरि गुण गाता,  प्रेम  पदों   से  राम     रिझाता !!
गाता   वह   लेकर  इकतारा,  भरता  भक्ति  प्रेम रस   भारा !!
उसके मधुर मनोहर गाने   ,   होते   प्रेम   भगति    से   साने !!
उसके पद सुनता जन जोही,  प्रेम  मगन  हो    जाता   सोही !!
नाम सुमहिमा उसने गाई   ,  प्रेमभक्ति की विधि सिखलाई !!
नाम ध्वनी में लय हो जाता , ध्यान योग में अति सुख पाता !! 
सनत   कुमार  से  शिक्षा पाके , भगती  सूत्र  सरस  गा गाके !!
नारद    ने   नर   नारी  तारे    , पापी     पामर  पतित उभारे  !! 

देवर्षि  नारद, अपने इकतारे पर सतत "नारायण नारायण" निनादित करते हैं और त्रिलोक में हरिनाम संकीर्तन का प्रचार करते हुए सर्वत्र विचरते हैं ! सद्गुरु स्वरूप में वह जिज्ञासु जनों को नाम दीक्षा देकर भक्ति मार्ग पर अग्रसर करते हैं ! उनसे भी नाम जप ,भजन एवं संकीर्तन करवाते हैं ! सतत लोक कल्याण में लगे देवर्षि नारद के समान प्रभावशाली और  कोई सदगुरु उनसे पहले नहीं हुआ था और न आगे होने की सम्भावना ही है !

नारद जी स्वयम तो "नारायण " नाम  का संकीर्तन करते थे परन्तु उन्होंने  अपने शिष्यों को उनकी अपनी निष्ठां ,रूचि एवं लक्ष्य के अनुसार प्रेम-भक्ति में मग्न होकर अपने अपने इष्ट विशेष से जुड़े रहने की प्रेरणा दी ! आपको याद  होगा , ध्रुव  को अपने पिता की गोद में बैठने की इच्छा थी ! नारद जी ने उन्हें "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" के महामंत्र से दीक्षित करके उन्हें "परम पिता" की गोद में बैठने का साधन बता दिया !पौराणिक सत्य यही है कि  राजकुमार ध्रुव को ध्रुव पद दिलवा कर अजर अमर और अटल बनाने वाले उनके सद्गुरु नारद जी ही थे ! आप जानते ही हैं कि नारदजी के वरद शिष्य ध्रुव की तपश्चर्या से प्रसन्न होकर देवाधिदेव प्रभु को कहना पड़ा था कि "मै भक्तों के आधीन हूँ" !

प्रियजन अपने गुरुजन के संसर्ग में रह कर अब मेरा अपना मत भी यही है कि प्रह्लाद एवं ध्रुव जैसे नन्हे बालको को गुरुमन्त्र दे कर उनके समक्ष साक्षात् जगतनियंता को प्रगट करवा देने वाले तथा महाराज हिमांचल की दुलारी कन्या को गुरुमंत्र देकर उनसे तपश्चर्या   करवा कर, उनके मनचाहे वर भोले शंकर से मिलवाने वाले , भक्ति परम्परा के प्रवर्तक देवर्षि नारद ही इस सृष्टि  के सबसे पुरातन सद्गुरु हैं !

सतयुग,त्रेता द्वापर की बात तो बहुत दूर की है ! प्रियजन, अभी चौदहवीं शताब्दी की बात है ,महाराष्ट्र की साध्वी देवी जनाबाई को नारदजी ने स्वप्न में मन्त्र दीक्षा दी और साथ ही उनके पिताश्री को श्री स्वप्न में दर्शन देकर उनसे बताया कि उनकी पुत्री जनाबाई श्रीकृष्ण  भक्ति में सराबोर बिट्ठल बिठोबा की प्रेम दीवानी है ! वह सामान्य बालिका नहीं है ! तुम इसे पंढरपुर के देवस्थान पहुचा आओ ! नन्ही जनाबाई के पिताश्री जब उन्हें लेकर वहाँ पहुंचे तो , मन्दिर में अपने प्रियतम प्रभु श्री कृष्ण की मनोहारी छवि का दर्शन करते ही जनाबाई ध्यान मग्न हो गयी ,भावावेश में अपनी सुध -बुध खो बैठी !

जनाबाई की भक्ति परिपूरित मनोस्थिति देखकर उनके पिताश्री ने अपनी सात  वर्षीय लाडली बालिका को बिठोवा के अर्पित कर दिया ! नारद जी से प्राप्त गुरुमंत्र से जनाबाई ने पंढरपुर देवालय के बिठोवा कि आजीवन सेवा की और नामदेव जैसे महान संत का लालन   पालन किया ! जनाबाई और उनके पिताश्री के स्वप्न सत्य हुए , है ! यह  संत जनाबाई वही हैं, जो उपले थापते समय इतनी लगन से अपने इष्ट "विट्ठल" का  नाम जप करती थीं कि उनके सूखे उपलों से भी बिट्ठल बिट्ठल की ध्वनि निकलती थी !  

प्रियजन, श्रीरामशरणं के हम सब साधक भी सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महाराज द्वारा प्रतिपादित सतत नाम जप, नाम सिमरन एवं संगीतमय भजन संकीर्तन की साधना के द्वारा अपने इष्ट को रिझाने का प्रयास कर रहे हैं ! गुरुदेव डोक्टर विश्वामित्र जी महराज ने इस पद्धति को प्रोत्साहित किया है ! इस बार भी महाराज जी ने सभी बैठकों में स्वयम संकीर्तन करके साधकों के हृदय अपार प्रेमाभक्ति से परिपूरित कर दिये  !

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निवेदक: व्ही . एन .श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती डॉक्टर कृष्ण भोला श्रीवास्तव
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शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

गुरु के स्वर से स्वर मिला # 3 9 5

साधना सत्संगों में  
गुरुजन से प्राप्त उपदेशों का हमारे जीवन पर प्रभाव   
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लगभग ५० - ५५ वर्षों से श्री रामशरणं,लाजपत नगर,नयी दिल्ली के गुरुजनों एवं उनसे दीक्षित महापुरुषों के सत्संग का लाभ उठा रहा हूँ ! उनके आशीर्वाद और शुभ कामनाओं के सहारे आज ८२ वर्ष की अवस्था में ,अनेकानेक व्याधियों को हँस हँस कर झेलता हुआ मैं केवल आनंद  ही आनंद लूट रहा हूँ !

मेरा अनुभूत सत्य यह है कि यदि कोई शक्ति हमे पीडाओं से छुटकारा दिला सकती है तो वह केवल हमारे मन-मन्दिर में विराजित सर्वशक्तिमान परमात्मा की शक्ति ही है ! प्यारे प्रभु को रिझा कर सहजता से उनकी कृपा पा सकने के लिए हमारे मन में उनके प्रति अपार श्रद्धा और अटूट विश्वास होना चाहिए ! हमें अहंकार शून्य होकर ,पूर्णतः उनके प्रति  समर्पित होंना चाहिए ! संत महात्माओं ने तो कहा ही है ,मैं भी आज पूरे भरोसे से कह रहा हूँ कि प्यारे प्रभु के प्रति अटूट विश्वास एवं सम्पूर्ण समर्पण होने पर ही हमारे जीवन में ऎसी निश्चिंतिता व् निर्भयता आई कि मैं आज जीवन मरण के भय से मुक्त हो गया हूँ ! मैं जान गया हूँ कि "मैं" यह नश्वर शरीर नहीं हूँ ! पीडाएं मुझे नहीं होतीं  इस नश्वर शरीर को होती हैं ,जिसे प्यार से अधिकांश लोग "भोला" कह कर पुकारते हैं !    
गुरुजनों के सानिध्य से हमें सहज ही परमात्मा की अहेतुकी कृपा का,तथा उनके प्रेम एवं उनकी करूणा का प्रसाद सतत प्राप्त हो रहा है ! हमें अपने चारों ओर एक दिव्य शांति की अनुभूति हो रही है ! विश्रांति से भरपूर मेरा चित्त अनायास ही प्रभु की अनंत लीलाओं के चिन्तन -मनन तथा भजन कीर्तन में लग रहा है ! गुरुजन की शुभ कामनाओं एवं प्रभु की अहेतुकी कृपा से मैं निश्चिन्त होकर हर काळ और हर भाव में निरंतर अपने प्रभु की अनंत कृपाओं का स्मरण कर पाता हूँ उनके गुणों का ,उनकी कृपा का गान कर पाता हूँ ! स्वामी जी महाराज के शब्दों में मुझे लगता है कि अंततः ---


अब मैंने रसना का  फल पाया 
भाव चाव से राम राम जप ,अपना आप जगाया 
राम नाम मधुरतम जप कर ,जीवन सफल बनाया 
अब मैंने रसना का  फल पाया 

(केवल रसना का ही नहीं ,प्रियजन मैंने तो अपने समग्र जीवन का ही सुफल पा लिया है) 

मुझे पढने लिखने में दिक्कत होती है ,इस कारण पिछले कितने ही वर्षों से कृष्णा जी श्रीमद भागवत पुराण , भगवद गीता , राम चरित मानस , तथा श्री स्वामी जी महराज के विभिन्न ग्रंथों का व्याख्या सहित पाठ करके मुझे सुनाती हैं ! थोड़ा बहुत खाली समय जो बच जाता है उसमे मैं अपने इलेक्ट्रोनिक म्यूजिकल इंस्ट्रुमेंट्स के साथ मिल कर जी भर के शोर मचाता हुआ "उन्हें" पुकारता हूँ !

आभारी हूँ मैं "उनका" कि जीवन दान देते समय जो आदेश "उन्होंने" मुझे दिया था उसे भली भांति निभा पाने की शक्ति सामर्थ्य और सुबुद्धि "वह" अभी तक मुझे देते जा रहे हैं जिससे मैं इस ब्लॉग के माध्यम से आपकी सेवा करने के योग्य हो गया हूँ !

मेरे अतिशय प्रिय पाठकगण, परमानन्द के अतिरिक्त प्यारे प्रभु के श्री चरणों में पूर्णतः समर्पित होकर , अहंकार त्याग कर ,अनन्य विश्वास और कर्त्तव्य निष्ठां के साथ जीवन जीने के कारण ,मेरे प्यारे प्रभु ने मुझे ,अपनी योग्यता पात्रता से बढ़ चढ़ कर सुख सम्रद्धि  और सुविधाएँ भी प्रदान कीं !(यह उचित नही कि मैं अपनी सांसारिक उपलब्धियां बताऊ)

क्या गुरुजन के तार से तार मिलाये बिना हमे इतनी उपलब्धिया हो सकतीं थीं ? नही न ! अस्तु आज अपने प्यारे प्यारे पाठकों से उनका यह बुज़ुर्ग शुभचिंतक अर्ज़ कर रहा है कि आप भी अपने गुरुजनों के सुर में सुर मिला कर वह समवेत स्वर तरंगित करें जिसमें सारे संसारी भौतिक सुख शांति के साथ साथ परमानन्द स्वरुप अपने अपने इष्ट देवों के भी दर्शन पा सकें !


निज तार से गुरु तार मिलालो ऐ दोस्तों !!
जब तार मिलेंगे मधुर झंकार उठेगी                      
हर तार से झंकार निकालो ऐ दोस्तों !!

स्वर में गुरू के ईश्वर साक्षात बिराजें, 
गुरु संग बैठ इकधुन गालो ऐ दोस्तों 

झंकार सुनो झूम के नाचो सभी साधक
अवसर न कोई दूसरा पाओगे दोस्तों !! 

सब कुछ मिलेगा अगर तुम संशय न करोगे  
संशय किया तो कुछ भि न पाओगे दोस्तों !! 

मेटेगा स्वयम "इष्ट" तिरे मन का अन्धेरा , 
जब भक्ति दीप आप जलाओगे दोस्तों !!

धरती पे तेरे "इष्ट" हैं गुरुदेव ही प्यारे ,
छोड़ोगे उन्हें तो कहाँ जाओगे दोस्तों !!
"भोला"
  
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निवेदक : व्ही . एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती डोक्टर कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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