सोमवार, 23 जनवरी 2012

"बच्चन जी" का गीत - (१)

"हरिवंश राय बच्चन" जी की रचना 


"दिन जल्दी जल्दी ढलता है"


ग्यारह-बारह वर्ष का था जब,  मैंने , उन दिनों की ख्यातिप्राप्त  "इलाहबाद यूनिवर्सिटी" (जिसने ब्रिटिश शासन काल में अनेकानेक योग्य "आइ. सी . एस" अधिकारियों को जन्म दिया था) के अंग्रेजी भाषा के प्रोफेसर - तथा ,प्रतिभावान ,हिन्दी भाषा के उभरते शब्द शिल्पी ,"श्री हरिवंशराय जी 'बच्चन'" का नाम पहली बार सुना !

हुआ ऐसा कि ,१९४०-४१ में जब  मैं सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था ,एक दिन, क्लास रूम में टीचर की अनुपस्थिति में , उम्र में मुझसे काफी बड़े ,गंगा पार के किसी बाहुबली परिवार के ढीठ युवराज , मेरे सहपाठी ने , क्लास रूम में ,बच्चन जी की "मधुशाला" के कुछ अंश चोरी छुप्पे पढ़ कर हम सहपाठियों को सुनाये !

आज सोचते हैं तो ऐसा लगता है जैसे कि उस दिन मेरा वह सहपाठी "सलमान रुश्दी" की 'बैंड' पुस्तक "सेटेनिक वर्सेस" या ब्रिटिश शासन द्वारा उन दिनों "बेन" की गई ,"भारत में अंग्रेजी राज्य" नामक पुस्तक के अंश पढ़ने का  अपराध कर रहा था जैसा आज जयपुर के विश्व पुस्तक मेले की गोष्ठी में श्री कुंजरू ने किया ! खैर छोड़िये उसे , यह तो भारत में चलता ही रहेगा  , आइये पहिले मेरी कहानी सुन लीजिए:

उस छोटी उम्र में बच्चन जी की "मधुशाला" का निहित गूढ़ दर्शन - "सम भाव" - सब मतों ,सब धर्मावलम्बियों - मंदिर , मस्जिद , गिरिजाघर ,गुरुद्वारे वालों तथा शत्रुओं- मित्रों के   एकीकरण का श्रेष्ठ उद्देश्य जो मधुशाला में व्यक्त था , मेरी तब की अपरिपक्व समझ के बहुत परे था ---

लेकिन मधुशाला की सुमधुर शब्दरचना उस समय - तत्काल ही मेरे मन को छू गयी थी [यदि आप विश्वास करते हैं तो , शायद मेरे पूर्व जन्म के संस्कारों के फल स्वरूप]- खैर जो भी हो - वह संगीतमयी शब्द रचना मुझे बहुत अच्छी लगी थी !

प्रियजन ,तब उस ११-१२ की उम्र में आपके आजके यह बुज़ुर्ग मित्र 'भोला जी', संगीत के नाम पर कुछ फिल्मी गाने जैसे "अछूत कन्या" का "मैं बन की चिड़िया" , "बन्धनं" का "चल चल रे नौजवान" और 'के. एल. सहगल'"  के "देवदास" का "बालम आय बसों मेरे मन में" और इसी टाइप के कुछ अन्य गाने कभी कभी गुनगुना लेते थे ! कविता के नाम पर क्लास की मेगजीन के लिए कुछ तुकबंदियां भी कर लिया करते थे !

याद आया , मैंने चौथी कक्षा में कुछ अवधी कुछ भोजपुरी और खड़ी बोली के मिश्रण से एक हास्य रस की कविता लिखी थी -

सो 'जेंटल मैंन' कहावत हैं 
जो 'पैंट - कोट औ शर्ट' डार , 'गर कंठ लंगोट' लगावत हैं
सो 'जेंटल मैंन' कहावत हैं 
जो 'सोला' टोपी शीश धरे , मुख 'गोल्ड फ्लेक' को धुवाँ भरे 
'एल्शेशियन  कूकुर'  का पकरे  नित 'ग्रीन पार्क' टहरावत  हैं 
सो जेंटल मैंन कहावत हैं
[भोला - कक्षा ४ बी  - १९३९]  

अभी इतना ही याद आरहा है !
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बच्चन जी की बात करते करते भटक गया था ,चलिए विषय विशेष पर लौट चलें ! बचपन के वे दिन जैसे तैसे बीते !  ज़माने के चिंतन के अनुसार ' आई ए एस ' अथवा इंजीनियर बनने की लालसा में , संगीत तथा काव्य रचना को बलाए ताख रख कर - लडखडाते कदम से , एक एक पडाव में दो दो साल का डेरा डाल डाल कर किसी प्रकार 'बी एच यू' के 'कालेज
ऑफ टेक्नोलोजी ' से बेचलर की डिग्री प्राप्त कर ली ! परन्तु -

आश्चर्य चकित न हों, प्यारे प्रभु द्वारा गाने बजाने तथा थोड़ी बहुत कविता कर लेने  की  नैसर्गिक क्षमता प्राप्त , आपके इस रसिक मित्र को , कदाचित पूर्व जन्म के संस्कार तथा उनके पूर्वजों एवं उनके ही अपने जन्म जन्मांतर के संचित प्रारब्ध के लेखे जोखे के आधार पर , उनके 'प्यारे प्रभु' ने , इस जीवन में , रोज़ी रोटी कमाने के लिए ६० वर्ष की अवस्था तक जो पेशा करवाया , वह था "संत रैदास" वाला !

शायद रैदास जी के कार्य से भी कई स्तर नीचे का कार्य मुझे सौंपा गया था ! रैदास जी तो पके हुए चमड़े के जूते बनाते थे - लेकिन मुझे गाय-भैंस और भेड-बकरियों की कच्ची खाल को  पका कर उसमे रंग रोगन लगा कर उसे जूता बनाने लायक चमकदार चमडे का स्वरूप प्रदान करने का काम मिला था !

प्रियजन , "मेरे प्यारे प्रभु" ने मुझे जो काम सौंपा ,मैंने उसे शिरोधार्य किया और ६० वर्ष की अवस्था तक "उनके" द्वारा निर्धारित , वह तथाकथित नीच काम करता रहा ! मैंने कभी कोई गिला शिकवा नहीं किया ,सच पूछो तो "उन्होंने" मुझे कोई ऐसा मौका ही नहीं दिया कि मैं उनसे कोई शिकायत कर सकता !

दो दो वर्ष में ट्रांसफर हुए ! जब हमारा पहला बड़ा ट्रांसफर हुआ तब हमारे पांचो बच्चे सेंट्रल स्कूल में पढ़ रहे थे और उनमे से किसी एक ने भी १२वी की परीक्षा पास नहीं की थी ! हम  ढाई वर्ष के लिए मुंबई से वेस्ट इंडीज [गयाना] गए !

और विदेश से वापसी के बाद भी हमारी पोस्टिंग ,११ वर्षों तक देश के विभिन्न  नगरों - नयी दिल्ली ,कोचीन,आगरा, जलंधर ,कानपूर आदि में होती रही और हम सपरिवार भारत  दर्शन करते रहे ! हमारे परिवार के लिए ये ट्रांसफर कितने  कष्टप्रद रहे  होंगे ,आप अवशत अनुमान लगा सकते हैं ! परन्तु यहाँ यह उल्लेखनीय है कि हमारे परिवार के किसी भी सदस्य ने ऐसे तबादलों के कारण कभी कोई क्षोभ प्रगट नहीं किया और न किसी ने कभी कोई एतराज़ ही किया !  क्यूँ ?

गुरुजन के आशीर्वाद एवं प्यारे प्रभु की अहेतुकी कृपा के कारण ,हमारे पूरे परिवार का यह दृढ विश्वास है कि इमानदारी के साथ ,सच्ची लगन से , पूर्ण मनोयोग से ,अपनी सम्पूर्ण क्षमताओं का यथोचित उपयोग करते हुए , अपने निर्धारित काम करते रहने वाले को उसके "इष्ट" कभी निराश नहीं होने देते ! प्यारे प्रभु , समय आने  पर , ऐसे साधक की सभी जायज़  आवश्यकताओं की पूर्ति कर देते  हैं !  

और देखा आपने हमारे "प्यारे प्रभु" ने अपने इस प्रेमी सेवक 'भोला" को उसके इस जीवन में कभी भी निराश नहीं किया , उसकी सारी सात्विक जरूरियातें अविलम्ब पूरी कीं और देखते देखते उसे उसके जीवन की "सांझ" तक पहुंचा दिया ! कितनी तीव्र गति से रिटायर होने के बाद के ये २३ वर्ष बीत गए  -- और अब तो उसके जीवन के दिन और भी जल्दी -जल्दी बीत रहे हैं :

आज से लगभग ६० वर्ष पूर्व ,अपनी छोटी बहन "माधुरी" को उसके रेडियो कार्यक्रम में गवाने के लिए मैंने १९५२ में "बच्चन" जी की एक रचना स्वर बद्ध की थी , प्रथम पंक्ति थी उसकी - दिन जल्दी जल्दी ढलता है !


आज अतीत के पृष्ठ पलटते ही उस गीत के शब्द याद आने लगे और वह ६० वर्ष पुरानी धुन भी याद आ गयी ! सोचा आपको सुनादूं लेकिन रेकोर्डिंग करवाते समय एकाध शब्द बदल गए हैं ,जिसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ ! आज फिर बर्फबारी हुई है , चित्र में मेरे पीछे वाली खिड़की  के बाहर रोड को छोड़ कर नीचे सब कुछ हिमाच्छादित  है ! तो लीजिए सुनिए अपने बुड्ढे तोते से बच्चन जी का वह गीत :
 
दिन जल्दी जल्दी ढलता है 

  हो जाय न पथ में रात कहीं , मंजिल भी तो है दूर नहीं ,
यह सोच थका दिन  का पंथी भी  जल्दी जल्दी चलता है 
दिन जल्दी जल्दी ढलता है 




बच्चे प्रत्याशा में होंगे ,नीडों से झाँक रहे होंगे ,
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है 
दिन जल्दी जल्दी ढलता है 

मुझसे मिलने को कौन विकल , मैं होऊँ किसके हित चंचल ?
यह  प्रश्न शिथिल करता पद को भरता उर में विव्ह्लता है 
दिन जल्दी जल्दी ढलता है 

"बच्चन"
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बहुत बकवास कर चुका , कम्प्यूटर पर झुके झुके घंटों बैठे रहने के कारण अब कंधों में पीड़ा हो रही है ! कृष्णा जी नोटिस दे चुकी हैं कि मुझे आज इस पीड़ा से उबरने के लिए एक और अर्थात चौधवी दवाई खानी पड़ेगी !
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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2 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

रोचक संस्मरण्।

रेखा ने कहा…

बच्चन जी की रचना को स्वरबद्ध करके हमसभी तक पहुँचाने के लिए आपका बहुत -बहुत धन्यवाद