शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

स्वामी विवेकानंद - 'दीक्षा विशेष'

'यात्रा'
  
 तार्किक "नरेंद्र नाथ"  से  विश्वधर्मगुरु "विवेकानंद" तक 
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(गतांक से आगे)
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पितामह' संन्यासी  ,'पिता' पाश्चात्य सभ्यता के साथ  ब्रह्मसमाजी निरंकारी विचारधारा से प्रभावित और 'माँ' कट्टर सनातनी, साकार ब्रह्म की उपासिका ,'शिव भक्त' ! तीर्थराज प्रयाग  में ,गंगा यमुना सरस्वती की त्रिवेणी के जल के समान तीन पतित पावन संस्कारों में गुथा  था कलकत्ते का वह "दत्त" परिवार ! 


जन्म से पूर्व माता के गर्भाशय में नरेंद्र को विरासत के रूप में प्राप्त हुआ,अपने संन्यासी पितामह से विरक्ति ,त्याग और सेवा का भाव ; अपने कर्मठ ,कर्तव्यनिष्ठ  पिताश्री से 'कर्म योग' का ज्ञान तथा इनके अतिरिक्त साकार ब्रह्म' की उपासिका अपनी प्यारी माँ से उसे मिली ,प्रेमभक्ति युक्त देवोपासना एवं सत्य, प्रेम, करुणा युक्त सात्विक जीवन जीने की कला !   

दिव्यदृष्टि के धनी  ठाकुर ने पहली नजर में ही आँक ली इस १८ वर्षीय विलक्षण नरेन्द्र  की आतंरिक दिव्य सम्पन्नता ! दूर से देखकर ही ठाकुर ने इस तेजस्वी युवक के बाहरी दिखावे वाले भ्रान्ति उत्पादक  आवरण से ढंकी उसकी वास्तविक दिव्यता का आंकलन कर लिया ! ठाकुर को नरेंद्र के स्वरूप में साक्षात  "श्री  नारायण" के दर्शन हुए और  उन्होंने नरेंद्र के अन्तस्तल में बिराजे उस 'महात्मा' को भी देखा जो विश्व कल्याण हेतु  इस धरती पर अवतरित हुआ था ! 

यहाँ ,परमहंस , नरेंद्र में उस भावी "युग पुरुष" का दर्शन कर रहें थे जो भविष्य में ,केवल भारत में ही नहीं ,समस्त विश्व में एक अनूठी आध्यात्मिक जागृति पैदा करने वाला था  और उधर ठाकुर के विचित्र बाह्य स्वरूप उनकी अर्धनग्नता और उनके व्यवहार की असाधुता को देख कर ,युवक "नरेन्द्र" इस सोच में पड़ गया था कि प्रोफेसर विलियम हेस्टी  की बात मान  कर कहाँ फंस गया वह ?!  उसके मन में बार बार यह प्रश्न उठ रहां था कि " जब बड़े बड़े पंडित, वेदान्ती  मेरे प्रश्नों के उत्तर न दे सके तब  काली मंदिर का यह निरक्षर पुजारी  मेरी शंकाओं का क्या समाधान करेगा ?"

"नरेंद्र" के ताम्र वर्ण के ,गठीले कसरती शरीर से निरंतर फूटता ,दिव्यता का प्रतीक उसका "आभा मंडल" ठाकुर को दिन के प्रकाश में भी साफ़ साफ नजर आ रहां था ! ठाकुर ने प्रथम दृष्टि में ही तत्त्वजिज्ञासु नरेंद्र की सात्विकता और उसकी अंतर्चेतना पर दृढता से आसीन उसकी श्रद्धा - भक्ति की गहनता को भलीभाँति नाप लिया  ! और ---

नरेंद्र के इस प्रश्न के उत्तर में , कि क्या ठाकुर उसे भी 'भगवान' का दर्शन करवा सकते हैं ,उन्होंने कहा "चलो हमारे साथ हमारी कोठरी में चलो , वहीं एकांत में तुम्हारे सब  प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे "! तदोपरांत ------


परमहंस राम कृष्ण देव नरेंद्र नाथ को अपनी कोठरी की ओर ले चले ! 


दीक्षा विशेष 

ठाकुर  विचित्र थे ,दीक्षा देने के लिए  उनकी कोई एक निश्चित 'विधि पद्धति' अथवा प्रणाली' नहीं थी ! दीक्षा-आकांक्षी साधकों की योग्यता देख कर प्रत्येक साधक को वे उसकी अपनी समझ तथा ग्राह्य शक्ति के अनुरूप नई नई विधि से दीक्षित करते थे ! 

ठाकुर के प्रमुख शिष्यों में जहां एक तरफ उनके ही समान निरक्षर उनका निजी सेवक "लाटू" जैसा अति साधारण व्यक्ति था ,वहीं दूसरे छोर पर था एक अति प्रतिभाशाली कलकत्ता विश्व विद्यालय का स्नातक ] Graduate ] और संसार के विविध धर्मों को गहराई से समझने बूझने वाला ,परमज्ञानी नवयुवक-"नरेंद्र नाथ दत्त",जिसकी आभा मंडल में ठाकुर को "सप्त ऋषियों" सा जगमगाता  तेज पुंज दृष्टिगत होता था ! 
  
नरेंद्र जैसे तेजस्वी अनुयायी को पाकर श्री रामकृष्णदेव कृतार्थ हो रहें थे !उनको नरेंद्र में अपनी समग्र आध्यात्मिक संपत्ति का वास्तविक उत्तराधिकारी मिल गया था ! वह शीघ्रातिशीघ्र नरेंद्र में अपनी समस्त संचित साधना संचारित कर देना चाहते थे ! अस्तु -


ठाकुर, नरेंद्र को वहीं काली बाड़ी के प्रांगण में स्थित अपनी छोटी सी अंधेरी कोठरी में ले आये ! कोठरी में "माँ" की प्रतिमा के सन्मुख एक नन्हा सा दीपक टिमटिमा रहा था ! वहाँ ठाकुर स्वयम एक काठ के पीढे पर बैठे और उन्होंने नरेंद्र को कोठरी के एक कोने में पडी सतरंगी बिछाकर , ठीक सामने बैठने का आदेश  दिया !

ठाकुर के आदेशानुसार नरेन्द्र सतरंगी बिछा कर ठाकुर के सामने बैठ गया, तदोपरांत ठाकुर ने  नरेंद्र के शरीर पर से उसकी गंजी और कमीज़ उतरवाई ! नरेंद्र झुझूला उठा ! वह  मन ही मन बडबडाया "क्या पागलपन है यह ? आखिर करना क्या चाहता है यह पाखंडी ?    

स्थिति यह थी कि जहाँ समर्थ गुरु को अपने चेले में साक्षात् "प्रभु" के दर्शन हो रहें थे वहीं तार्किक बुद्धि वाले ,नास्तिक शिष्य को उस गुरु के व्यवहार में पागलपन के अतिरिक्त कुछ और नजर ही नहीं आ रहा था ! ठाकुर भाप गये नरेंद्र के मन की दुविधा मिटाने के लिए  नरेंद्र के उघारे शरीर पर उसके "मन" और "प्राण" के केंद्र -स्थल का स्पर्श किया ! 

ठाकुर का दिव्य स्पर्श पाते ही नरेंद्र को एक अनूठी अनुभूति हुई, उसे आत्म साक्षात्कार हुआ ! नरेंद् की बाह्य चेतना अंतर्मुखी हो कर ऊर्ध्वगामी हो गई ! ठाकुर के उस अति सूक्ष्म स्पर्श से 'नरेंद्र' को अलौकिक आनंद का अनुभव हुआ ,  परम तत्व का बोध हुआ और उसका आध्यात्मिक पथ प्रशस्त हुआ ! 


१८८१ नवम्बर से अपने जीवन की अंतिम घड़ी -१८८६ तक के पांच वर्षों में  परमहंस श्री रामकृष्ण देव ने अन्य साधकों और शिष्यों  के ,अनेकानेक आरोपों और आक्षेपों की परवाह किये बिना बड़े लगन से,शनैः शनैः नरेंद्र के व्यक्तित्व का विकास किया ,उसकी विद्वता में ,दार्शनिक और व्यावहारिक  आध्यात्म का संगम करवाया ,उसे मानवतावादी कर्मयोगी बनाया और इस प्रकार उसे परम नास्तिक से परम आस्तिक बना  कर भारतीय आध्यात्म और संस्कृति का विश्व गुरु बना दिया ! 


नरेन्द्र नाथ दत्ता से विश्वगुरु स्वामी विवेकानंद 
बनने और उसकेआगे की कथा 
अगले अंक में 

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निवेदक : व्ही. एंन . श्रीवा स्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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4 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

अद्भुत जानकारी- आभार एवं प्रणाम

Bhola-Krishna ने कहा…

धन्यवाद , आभार !

बेनामी ने कहा…

बहुत सुंदर पर अगले अंक का लिंक सही जगह दे , बाकी सब आप का प्रयास शराहनीय है - नीरज चतुर्वेदी भूरा

Bhola-Krishna ने कहा…

धन्यवाद प्रियवर, लिंक वाली बात समझ में नहीं आई ! कम्प्यूटरचालन का उतना ज्ञान नहीं है हमे ! वैसे प्रति आलेख के सबसे नीचे -'अगले लेख का लिंक' दिया होता है ,वहाँ क्लिक करे तो अगला अंक दिख जाएगा !