सोमवार, 30 जुलाई 2012

तुझसे हमने दिल है लगाया


यू एस ए में इस वर्ष के खुले सत्संग में आनंदवर्षा करते
हमारे प्यारे महाराज जी

हुत प्यार करते हैं तुमको सनम
[तुम्हारे बिना जी न पाएंगे हम]?

शायद यही शब्द हैं उस फिल्मी गीत के जो अपने समय में बहुत ही मशहूर हुआ था ! उन दिनों मैं भी इसे कभी कभार गुनगुना लिया करता था ! समय के साथ धीरे धीरे भूल गया इसे !

लेकिन आज मेरा दिल बार बार अपना यह गीत गाने को कर रहा है!

तुझसे हमने दिल है लगाया ,जो कुछ है बस तू ही है
हर दिल में तू ही है समाया,जो कुछ है बस तू ही है

आप पूछोगे - क्यूँ ?

प्रियजन , अभी गुज़रे मई महीने की बात है ! हमारे परम श्र्द्द्धेय गुरुदेव (डॉक्टर)विश्वामित्र जी महाराज ,यहीं अमेरिका में हम सब के पास थे ! यहाँ के खुले सत्संग में महाराज जी ने पूरी संगत को ही जितना प्यार और आशीर्वाद दिया था और अपनी कृपा दृष्टि से जितनी शक्ति प्रदान की थी कोई भी सत्संगी अपने जीवन में तो उस दिव्य अनुभूति को भुला नहीं सकेगा !

पूर्णाहुति की अंतिम बैठक के बाद विदाई के समय मुझे गले लगाकर मेरी पीठ पर हाथ फेरते फेरते उन्होंने मेरे तन-मन और मेरे अन्तःकरण पर प्यार और आशीर्वाद का शीतल सुगंधमय चन्दन लेप लगाया था ,उसकी गमक अभी भी मेरे आन्तरिक और बाह्य जीवन को पवित्र कर रही है ! गुरु कृपा ही तो श्री रामकृपा है ! गुरु कृपा में आनंद ही आनंद है !

गुरु दर्शन में ही तो है उस आनंदघन परम का दर्शन !

इधर ५-६ वर्षों में मैंने जब भी श्री महाराज जी को अपने भजन सुनाये ,लगभग हर बार ही गाते गाते मेरा मुँह सूख गया , मैं ठीक से गा न सका फिर भी हमारे उदार चित्त महराज जी ने मेरे उस अति मामूली गायन की भी प्रसंशा की , सराहना की !

कौन हो सकता है हमारे इन सद्गुरु के समान उदार ,कृपालु ,क्षमावान ?

उनसे बिछुड कर आज मेरी मनोदशा कैसी है ? थोड़ा बहुत तो आपको मेरी इस लम्बी ख़ामोशी से ही समझ में आगया होगा ! कुछ स्नेही स्वजनों को शायद ऐसा लगा हो जैसे 'गैस' खतम होने से अंकल की खटारा कहीं वीराने में खड़ी हो गयी ! प्रियजन , सत्य है उनकी सोच ,अपनी गाड़ी खड़ी तो हो गयी है लेकिन स्वजनों उस वीराने में निकट ही एक 'पेट्रोल पम्प' भी दिखाई दे रहा है ! -- सद्गुरु की मधुर स्मृतियों को संजोये -- उनके हस्त लिखित पत्र :

मैं आजकल महाराज जी से दिव्य विभूति स्वरूप प्राप्त उनके उन पत्रों का आश्रय लिए जी रहा हूँ जो श्री महराज जी ने हमारे अमेरिका प्रवास के दौरान हम दोनों को चिंता मुक्त करने तथा हमे आश्वासन और आशीर्वाद देने के लिए समय समय पर भारत से हमारे पास भेजे थे !इन पत्रों के विषय में क्या क्या बताऊँ

उनके कर कमलों से लिखे हुए स्नेह एवं आशीर्वाद से भरे वे पत्र पाकर जो अपार आनंद हमे मिल रहा है उसका वर्णन करना कठिन है !पत्र पढते समय ऐसा लगता है कि जैसे वे हमारे निकट ही बैठे हैं और आज जब वे ब्रह्मलीन हो गये हैं तब भी प्रतीत हो रहा है कि जैसे वे हमारे अंग-संग ही हैं ,उनका वरद हस्त मेरे मस्तक पर है तथा असीम आनंद की एक लहर हमारे मस्तक से अंतर तक प्रवाहित हो रही है ,अभी इस समय आपसे चर्चा करते हुए भी एक सिहरन सी हो रही है ! ऐसा लगता है जैसे श्री गुरुदेव स्वयं ही मेरी उँगलियों को मेरे इस 'की बोर्ड' पर संचालित कर रहे हैं !

महाराज जी का एक पत्र


ये पत्र मेरे जीवन की एक अनमोल निधि हैं ! इस पत्र में महाराज जी ने मेरी एक रचना की प्रसंशा की थी ! समझदार हैं आप ,अवश्य ही अंदाजा लगा सकते हैं कि इस पत्र को पाकर यह दासानुदास कितना धन्य व कृतकृत्य हुआ होगा !

महाराज जी ने यह भी लिखा है कि वह यह भजन मुझसे सामने बैठ कर सुनना चाहते हैं !

प्रियजन , महाराजजी को मैं यह भजन नहीं सुना सका ! इसका मलाल मुझे आजीवन रहेगा !

आज आपको वही भजन, सुनाने की प्रेरणा इस समय श्री महाराजजी मुझे दे रहे हैं , अस्तु प्रस्तुत है ,मेरा वह भजन :

तुझसे हमने दिल है लगाया ,जो कुछ है बस तू ही है
हर दिल में तू ही है समाया , जो कुछ है बस तू ही है

[इस भजन की सम्पूर्ण शब्दावली श्री राम शरणं दिल्ली की वेब साईट पर उपलब्ध है]
=====================================
निवेदक : व्ही .एन . श्रीवास्तव "भोला "
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
एवं
श्रीमती श्रीदेवी कुमार .
==================

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

पहली जुलाई का वह अपूर्व - पूर्वाभास

सुनामी से पहले का शून्याकाश 
 'हमारा  पूर्वाभास' 
------------------- 
केवल मैं ही नहीं , यहाँ अमेरिका के अनेक साधकों ने मुझे बताया कि 
पहली जुलाई की सुबह से ही अकारण उन्हें अपने 
चारो ओर एक अजीब सूनेपन का अनुभव  हो रहा था ! 
सभी के मन में एक अनोखी टीस ,एक दिव्य अनुभूतिमय मधुर पीड़ा सी हो रही थी ! 


१ जुलाई की अपनी मनः स्थिति का विवरण मैं अपने २ जुलाई के ब्लॉग में दे चुका हूँ ! 
-------------------------------------------
"पहली जूलाई यहाँ , वहाँ दो जुलाई थी" 
-------------------
 ना कहीं शोर था औ , ना कहीं सियाही थी 

फिर भि मनपे मिरे घनघोर घटा छाई थी 


कुछ भि बदला न था सब कुछ हि रोज जैसा था .
फिर भि हर चीज़ क्यूँ बदली सि नजर आई थी 


भीड़ में जीस्त की मुझ को मिली तन्हाई थी 
हर तरफ क्यूँ मिरे  मायूसियत सि छाई थी 

दर्दे दिल क्यूँ उठा मेरी समझ में ना आया 
क्यू उठी आह जहां गूँजती शहनाई थी 

बस यही याद है मुझको मिरे प्यारे हमदम 
फर्स्ट की शाम यहाँ ,वहाँ दो जुलाई थी 
[भोला]
यू.एस.ए से 
===========
Neither was there any indication of an approaching cyclone 
nor did the horizon turn BLACK
but my loved ones 
   this HEART of mine, for unknown reasons,got filled with a mysterious PAIN
It was JULY 1, here and JULY 2 in India  
] BHOLA in USA ]
---------------------
प्रियजन ,उस दिन मैं अकारण ही दुखी होकर संत कबीर के,'आवागमन-जीवन मरण' के  आध्यात्मिक भजनों का गायन कर रहा था ! 

वैसे साधारणतःमेरे प्रियजन मुझे इस प्रकार के दार्शनिक गूढ़ तथ्यों से ओतप्रोत प्रतीकात्मक पद गाने से मना करते थे जिनमे जीवात्मा  के इस संसार से  प्रयाण का जीवंत चित्रण होता है !                            
[शायद इस विचार से कि अब मेरी भी चलाचली की बेला है और ये - मेरे अपने कहे जाने वाले  स्नेही स्वजन अभी से उस दृश्य की कल्पना  नहीं करना चाहते ]
पर उस दिन शायद किसी अन्तःप्रेरणा से कृष्णा जी ने भी मुझे रोका टोका नहीं
 और मेरे उस विरह भावनामयी गायन का ज्यों का त्यों वीडीयोंकरण भी कर लिया !

चमत्कार ? - हम दोनों के आश्चर्य की सीमा न रही जब २ जुलाई के प्रातः मैंने उस दिन का ब्लॉग लिखने के लिए "ब्लोगर - महाबीर विनवौ हनुमाना" चालू किया  , ड्राफ्ट में पहिली जुलाई को मेरे द्वारा अकारण गाये संत कबीरदास रचित "जीवात्मा की म्रत्यलोक यात्रा " विषयक पदों के वीडियो क्लिप नजर आये जिन पर हमने शीर्षक दिया था -
"दो जुलाई के ब्लॉग के लिए" 
प्रियजन, 
नहीं कह सकता , हमने क्यूँ , किस भावावेश में वह शीर्षक उन भजनों को दिया होगा ! 
क्या यह पूर्वाभास था , चंद घंटों में ,हम पर ,दर्द के सुनामी के टूट पड़ने का ? 
राम जाने अथवा हमारे प्यारे गुरुजन ही जाने ]

दो जुलाई की सुबह ड्राफ्ट ब्लोग्गर देखने के बाद जब मेल खोली 
तो जैसे एक गाज सी गिर गयी -- 
विभिन्न श्री राम शरणं से आई मेल देख कर हक्का बक्का रह गया 
तदोपरांत क्या क्या हुआ बयान नहीं कर पाऊंगा !
================================================
चलिए आपको एक एक कर के दिखाऊँ ,और सुनाऊँ भी कबीर के वे पद जो मेरे मुख से अनायास ही पहली जुलाई को अश्रु बूंदों की तरह झरे थे 
[कृष्णाजी और हमारी बड़ी बेटी श्रीदेवी के सौहाद्रपूर्ण सहयोग के बिना यह संभव न होता ]


================================================

कौनो ठगवा नगरिया लूटल हो 
चन्दन काठ के बनल खटोलना तापर दुल्हिन सूतल हो 
उठोरी सखी मोरी मांग संवारो ,दुल्हा मोसे रूसल हो 
कौनो ठगवा नगरिया लूटल हो 

यम के दूत पलंग चढ़ी बैठे , अँखियन अँसुआ छूटल हो 
कहत कबीर सुनो भाई साधो जग से नाता छूटल हो  
कौनो ठगवा नगरिया लूटल हो 
[ संत कबीरदास ]
===========================================
आज इतना ही ,धीरे धीरे उस दिन वाले कबीरदास के सभी भजन सुनादूंगा 
-------------------------------------------------------------------
और हाँ, पिछले ब्लॉग की स्वामी विवेकानंद जी वाली कथा भी पूरी करूँगा और उसके साथ श्री गुरुदेव विश्वामित्र जी महराज के सम्बन्ध के विषय में भी बताऊंगा !
=========================
निवेदक:  व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा  श्रीवास्तव
श्रीमती श्री देवी कुमार 
==============

सोमवार, 16 जुलाई 2012

मेरा तो बस तू ही तू

गुरुदेव श्री महाराज जी की 
यू एस ए से विदाई 

 

मैं और गुरुदेव - विदाई का 'वह' करुण क्षण 
--------------------------------------

मेरे प्यारे गुरुदेव 

तुझसे हमने दिल है लगाया ,जो भी है बस तू ही है 
हर दिल में तू ही है समाँया    जो भी है बस तू ही है 
तुझसे हमने दिल है लगाया
[ भोला ]
------------------  
गुरू कृपा के सहारे क्या से क्या बन गया
'मैं'  
[ मेरी आत्म कथा से  ]
महापुरुषों  से सुना है कि , इंसान लाख स्वयम को संसार का सबसे बड़ा ग्यानी ,ध्यानी, भगत , संत -सन्यासी समझे पर रहता है वह सदा सदा ही 'एक मानव'-
"भ्रम भूल में भटकता" एक अति साधारण जीव !
प्रियजन , इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हूँ 
मैं 
संत कबीर के शब्दों में 
मैं ="अपराधी जनम को मन में भरा विकार " 
   और हमारे प्यारे 'बाबागुरू' के शब्दों में 
मैं = "अपराधी हूँ बड़ा नख शिख भरा विकार"  
इस प्रकार मैं हूँ तो एक "बड़ा अपराधी"ही उस पर भी अति करुणा कर  
  दुख भंजन "बाबागुरू" ने मेरी करी सम्हार
[भोला]

सो दुखभंजन गुरुजन की अहेतुकी कृपा से मुझ अभागे मानव का भी भाग्य जगा और  मेरे सन्मुख का 'भ्रम भूल' का पर्दा' आप से आप ही खुल गया ! मेरे शुष्क जीवन में प्रेमाभक्ति  की  एक अविरल धारा प्रवाहित हो गई  ! "वसुदेवकुटुम्बकम" मत [ पथ ]के अनुयाई तथा सारी मानवता को निज इष्ट स्वरूप समझने [मानने\ वाले  अपमे समय के अनेकानेक संत जनों से मेरा सम्पर्क हुआ , उनका दर्शन लाभ हुआ उनके श्रीचरणों का सानिध्य प्राप्त हुआ ! जीवन में सत्संगों के अवसर पर अवसर आने लगे !

मेरे अतिशय प्रिय स्वजनों , यही है , मुझे अपने गुरुजन की अहेतुकी कृपा  के परिणाम स्वरूप प्राप्त अनमोल निधि ! और इसके फलस्वरूप गुरुजन की प्रेरणा से रचना हुई -

पायो निधि राम नाम ,सकल शांति सुख निधान 
+++++++++
रोम रोम बसत राम, जन जन में लखत राम 
सर्वव्याप्त ब्रह्म राम ,सर्व शक्तिमान राम  
पायो निधि राम नाम 
++++++++++

सुविचारित तथ्य एक , आदि अंत राम नाम 
पायो निधि राम नाम 
 [भोला[
---------

मेरी बेशकीमती निधि
"सतसंग लाभ" 


मुझे  सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी के ही आशीर्वाद से ,समय समय पर अनेकों सिद्ध संतों के दर्शन हुए तथा उनका सत्संग और सानिध्य मिला ! मेरा  सौभाग्य था कि , दिवंगता  साध्वी सन्यासिनी श्री श्री माँ आनंदमयी  , 'विपुल' मुम्बई के दिवंगत वेदान्ती संत स्वामी अखंडानंद जी महाराज , चिन्मय मिशन के सर्वस्व दिवंगत स्वामी चिन्मयानन्द जी तथा गणेशपुरी [महाराष्ट्र ] के संस्थापक संत दिवंगत श्री मुक्तानन्दजी  महाराज के न केवल दर्शन हुए ,मुझे उनसे एकांत में वार्तालाप करने के सुअवसर भी मिले !

आर के मिशन के अनेकों संतों से मिला था ! परमहंस जी की जीवनी के कुछ अंश पढे भी थे पर स्वामी विवेकानंद जी के विषय में मेरा ज्ञान अति सीमित था ! प्यारे प्रभु की कृपा से  उन्हें भी निकट से समझने का अवसर मुझे यहाँ यू एस ए में मिला !

यहाँ २००३ में , स्वामी विवेकानंदजी के जीवन पर आधारित एक पुस्तक "तोडो कारा" मुझे पढ़ने को मिली  !  मेरी बड़ी  बहू मणिका ने भारत से मंगाई थी वह पुस्तक , और अवश्य ही स्वामी जी के जीवनी का वह हृदयग्राही चित्रण उसे बहुत ही पसंद आया होगा तभी तो उसने यह जानते हुए भी कि मैंने वर्षों पहले ही आँखों की कमजोरी के कारण पढ़नालिखना छोड़ दिया था , वह पुस्तक मुझे पढ़ने को दी !

यौवन के द्ल्हीज पर ,१६-१७ वर्ष की अवस्था में ,शरतबाबू की 'देवदास' तथा ४० -४५ वर्ष की अवस्था में योगानंद जी की जीवनी [Autobiography of a Yogi ] को पढ़ने में जितना आनंद मुझे आया था उससे कहीं अधिक आनंद मुझे विवेकानंद जी की इस जीवन कथा को पढनें में आ रहा था !

यहाँ उत्तरी यू एस ए के 'विंटर' की शीतल रातों में , जब बेड रूम के शीशे के बड़े बड़े झरोखों के बाहर , दूर दूर तक बर्फ की मोटी मोटी तहों में ढंकी धरती, मकानों की बर्फ ओढ़े  छतें , बिना पत्तों के ठूठ से खड़े बड़े बड़े वृक्षों की बर्फ के बोझ से धरा चूमतीं डालियों के आलावा दूर दूर तक कुछ नजर ही नहीं आता था  ,मैं देर रात तक 'सेंट्रल हीटिंग' के होते हुए भी , रजाइयों की तहों में दुबका हुआ 'बुक लाईट' और विशेष चश्में के सहारे ,विवेकानंद जी की वह जीवनी  पढता रहता था !

एक मध्य रात्रि को मैंने विवेकानंद जी के जीवन का वह प्रसंग पढ़ा जिसमे कहा गया था कि एक नवयुवक, उन दिनों तक का अविश्वासी नरेंद्र [ नोरेंन ] परमहंस जी को भजन सुनाया करता था ! यह भी कहा गया था कि अक्सर उसका भजन सुनते सुनते  परम हंस स्वामी रामकृष्ण जी समाधिस्त  हो जाते थे !

अपने महाराज जी का इस विवरण से क्या सम्बन्ध है , शीघ्र बताऊंगा ;;

क्रमशः 
------
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
===========================

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

गुरुदेव - कहाँ खोजूं तुम्हे ?


सद्गुरु कहाँ हैं ?

  आज मिटाकर सारे अंतर 'गुरुवर' मिले 'परम' से ऐसे
  विलग नहीं कर सकता कोई ,मिला दुग्ध में हो जल जैसे  


कल तक हम साधकजन अक्सर कहा करते थे : 


सद्गुरु कभी निकट आते हैं   मिलते कभी बिछड जाते हैं 
पर आज वर्तमान स्थिति यह है कि : 
प्रियजन  अब वह दूर नहीं हैं "वह" हर ओर नजर आते हैं !! 

आज परमगुरु श्री राम की असीम कृपा से 


समय शिला पर खिली हुई है "गुरू"-चरणों की दिव्य धूप       
आंसूँ पोछो,आँखें खोलो ,देखो चहुदिश "गुरू" का स्वरूप !!


  वो अब हम सब के अंतर में बैठे हैं बन कर यादें  
 केवल एक नाम लेने से , पूरी होंगी सभी मुरादें
"भोला"
====

अभी मुझे लग रहा है जैसे महराज जी मुझसे कह रहे हैं :
"मोको कहाँ  ढूढे रे वंदे मैं तो तेरे पास में" 



मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में 


ना तीरथ में ना मूरत में , ना एकांत निवास में 
ना मंदिर में ना मस्जिद में ,ना काशी कैलास में 
 मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में 

ना मैं जप में ना मैं तप में ,ना मैं ब्रत उपबास में  
ना मैं किरिया करम में रहता नहीं जोग सन्यास में 
 मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में 

खोजी हो तो तुरत पा जाये पल भर की तलाश में  
कहे कबीर सुनो भाई साधो , मैं तो हूँ बिस्वास में
 मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में
[संत कबीर दास ]
-------------------
स्वजन !
महसूस करो कि  नजरों से दूर होते हुए भी हमारे प्यारे गुरुदेव अभी इस पल भी हमारे अंग संग हैं 
और हम भ्रम भूल में भटकते साधकों का मार्ग दर्शन कर रहे हैं !
 केवल हमारी ओर देख कर ही वह अपने नेत्रों से निस्तारित ज्योति किरणों  द्वारा
  कर्तव्य पालन हेतु  हमे उचित प्रेरणाएं दे रहे हैं ,
हमसे गले मिलते समय  हमारी पीठ थपथपा रहे हैं ,
हमारी हथेली थामे वह हमारे थके हारे तन मन में नवीन ऊर्जा संचारित कर रहे हैं ! 
=================================================== 

साधकजन !

जरा सोंच कर देखिये हम कितने भाग्यशाली हैं कि हमे अपना यह मानव जीवन सुधारने और उसे सजाने संवारने हेतु , बाबागुरु स्वामी सत्यानन्द जी महराज , श्रद्धेय संत प्रेम जी महाराज तथा गुरुदेव श्री विश्वामित्र  महाजन जी जैसे संत महापुरुषों का समागम प्राप्त हुआ ! इन दिव्य महात्माओं के श्रीचरणों में बैठ कर हम जैसे कुटिल खल कामी कापुरुष अपना जीवन सुधार सके ,
 जिनके सत्संग से हमारा जीवन परिष्कृत हुआ ,मधुर हुआ 
जिनके समागम से हमने अपने दैनिक आचार -विचार- व्यवहार मंगलमय बनाये तथा 
 स्वस्थ एवं अनुशासित जीवन जीना सीखा ! 

प्रियजन श्री राम शरणंम दिल्ली के सभी गुरुजनों ने हमे इतना प्यार दिया कि

सबको मैं भूल गया तुझसे मोहब्बत करके  
एक तू और तेरा नाम मुझे याद रहा

[मुंशी हुब्ब लाल साहेब 'राद भिन्डवी']
----------------------------------------

प्रियजन 
आज केवल मेरा नहीं ,श्री राम शरणम के असंख्य साधकों का कथन है कि :अपने वर्तमान [ जी हाँ हम उन्हें वर्तमान ही मानेंगे ] गुरुदेव डॉक्टर विश्वमित्तर जी महाराज के चुम्बकीय व्यक्तित्व ने हमे इतना आकर्षित कर लिया है कि अब हम किसी  कीमत पर उनसे विलग नहीं होना चाहते, हम हर पल उनका आश्रय पाने को लालायित रहते हैं  , हमारा मन उनसे बार बार मिलना चाहता है , ,
उनके दर्शन  की तृष्णा बुझती ही नहीं !

तुलसी के शब्दों में

आज धन्य मैं धन्य अति ,यद्यपि सब विधि हीन ,
निज जन जान राम मोहिं संत समागम दीन !!

===================================
गुरुदेव डॉक्टर विश्वा मित्तर जी महाराज अमर हैं,
हमारे हृदय सिंघासन पर वह अभी भी आसीन हैं ,
वह हमारे सर्वस्व हैं !
हमे इसका अभिमान है , जी हाँ अभिमान है कि
वह हमारे स्वामी हैं और हम उनके दास !
आइये तुलसी के समान  हम भी उद्घोष करें :
अस अभिमान जाय जनि भोरे 
मैं सेवक गुरुवर पति मोरे 
====================
निवेदक : दासानुदास व्ही .एन .श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
=============================  

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

' गुरु बिन कौन संभारे"


श्री राम शरणम वयम प्रपद्ये 
+++++++++++++++++++


मेरे परम प्रिय स्वजन 

न जाने किस भावावेग में बहकर मैंने अपने २ जुलाई वाले ब्लॉग [संदेश] " कौनों ठगवा नगरिया लूटल हो" में लिख दिया था कि :   


"आज हम लुट गये" 
[प्यारे प्रभु को "ठग" कहने की ध्रष्टता नहीं करूँगा ,पर 'ठगे' तों हम गये ही हैं  ]  

लेकिन 


तीन जुलाई के प्रातः ही एक आकस्मिक प्रेरणा ने मेरे अन्तःस्थल से भ्रम-भ्रान्ति की उस भावना को कि " हम लुट गये " हैं  पलभर में सदासदा के लिए निष्कासित कर दिया ! 


प्रियजन ,अचानक  मुझे ऐसा लगा जैसे एक जानी पहचानी आवाज़ मेरे कानों में हौले हौले कुछ कह रही है ! वह दिव्य वाणी बड़ी मधुरता से मुझे झकझोर कर उस "लूटपाट" की मिथ्या धारणा को सदा सदा के लिए भुला देने की प्रेरणा दे रही थी ! शब्द स्पष्ट न थे पर भाव कुछ ऐसे थे 

मेरे प्यारे ,
  
ये कैसी बहकी बहकी बात कर रहा है ?  तुझे कौन लूट सकता है ? जो जन श्री राम शरण में है उसके घर में कौन सेंध लगा सकता है  ? 

कुछ अंतराल के बाद "वह" फिर बोले 

एक जुलाई को जब तेरे मन में लूटने लुटाने के भाव जगे थे , जब तू "आवागमन - जीवन मरण " की धुनें गुनगुना रहा था "मैं" अपने  "तन पिंजड़े'"में बंद था, 
तुझ तक पहुंच कर तुझे रोक टोक नहीं सकता था लेकिन  
आज मैं स्वतंत्र हूँ  सर्वत्र हूँ ,यहाँ वहाँ हर जगह हूँ !  भारत में भी हूँ और 
वहाँ तुम्हारे पास यू एस ए में भी हूँ !

प्यारे 
सतत उस "परम" का स्मरण कर ! 
थोड़ा झुक ,अपना अंतरपट खोल ,अपने ह्रदय में झाँक 
 "मैं" मिल जाऊँगा ! 
अब तुझे यह दुःख न सताएगा कि पिछले चार वर्ष से तू भारत नहीं जा पाया !  
 श्री राम शरणम के रविवार के सत्संग में शामिल होकर 
तू बाबा गुरु को अपनी नवीनतम  रचना नहीं सुना पाया !


जरा सोंच बाबा गुरु ने सहसा ही कितनी कृपा कर दी मुझ पर 
 मुझे इतनी शक्ति दे दी , इतना सक्षम कर दिया कि 
   
श्रीवास्तव जी
अब "मैं" बाबा गुरु के परिवार के एक एक सदस्य के ह्रदय की , 
एक एक धड़कन, साफ़ साफ़ सुन सकता हूँ  
आपजी का हृदयास्प्न्दन ,  
 आपजी के अनकहे शब्द भी मुझे अब स्पष्ट सुनाई दे रहे हैं ! 
आपजी का प्रत्येक कृत्य मुझे साफ़ साफ़ दृष्टिगोचर हो रहा है  !

चिंताएं मेरे हवाले कर अब 
आपजी पूर्णतः निश्चिन्त होकर 
बाबागुरु द्वारा प्रदर्शित प्रेमाभक्ति मार्ग पर आगे बढते रहें 
बाबगुरु का यह चरन दास सतत आपके साथ रहेगा !

============================

गुरु बिनु कौन सम्हारे ?
को भव सागर पार उतारे ?

[ अपना यह भजन यहाँ इस कारण लगाया है कि एक साथ एक स्थान पर अपने परिवार के तीनों पूर्वजो के दर्शन स्वयं कर सकूं और आप सब को भी करा सकूँ 
प्रियजन 
परमपूज्य गुरुदेव श्री विश्वामित्तर जी महाराज को यह भजन बहुत प्रिय लगता था  ]


दासानुदास
भोला 
==== 
  



=====================================
इस भजन की शब्दावली आपको श्रीराम शरणम की वेब साईट पर मिल जायेगी !
=====================================


निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
============================

सोमवार, 2 जुलाई 2012

कोनों ठगवा नगरिया लूटल हो


आज हम सब लुट गये  
"प्यारे प्रभु " को ठग कहने की धृष्टता नहीं करूँगा , पर लूटे तो हम हैं हीं !
=========================

कल जुलाई की पहली तारीख को मैं अकारण ही अपने आप को ,एक अजीब सी उदासी के आलम में भटकता हुआ सा महसूस कर रहा था !

प्रातः काल , नाश्ते के बाद कोठी के अगले भाग के खुले " पेटियो" पर कनेडियन राष्ट्रीय वृक्ष "मेपिल" की छाया में ,छूट पुट घटाओं तथा 'यू एस ए'  के न्यू इंग्लेंड के ' ग्रीष्म - कालीन" प्रखर सूर्य किरणों की 'लुका छुपी' का आनंद लेते हुए खुले आकाश तले,आँखें मूंदें हुए आराम कुर्सी पर बैठा था  ! पास में ही कृष्णा जी भी बैठी थीं !

"प्रेमा भक्ति " के गीत गाने वाला मैं उस समय जो भजन गुनगुना रहा था वे सब ही मेरी अपनी रचनाओं से बहुत भिन्न ,मृत्य लोक में जीव के आवागमन अथवा - मानव के जन्म मृत्यु विषयक थे ! 

प्रातः काल से ही मेरे मन में उन भावों का प्राबल्य था अस्तु बिस्तर छोड़ने से पहले मैंने उन्हें अपने ब्लॉग में टंकित कर लिया और उसके बाद ही ऊपर गया ! आप उत्सुक हैं जानने को तो लीजिए देखिये कि वे भाव क्या थे :

संत महापुरुषों का कथन है कि जीव को यह सूत्र निरंतर याद रखना चाहिए कि,उसे कभी,  किसी एक निश्चित पल में इस  नश्वर शरीर को जिसे  वह  भूले से  चिरस्थायी माने  हुए हैं एक न एक दिन ,इस संसार रूपी रैन बसेरे में ,निर्जीव छोड़ कर जाना ही पडेगा ! उसका अपना कहा जाने वाला 'बोरिया बिस्तर' यहाँ ही रह जाएगा !  उसके अपने कहे जाने वाले सब सम्बन्धी यहीं रह जायेंगे ! पिंजड़ा छोड़ कर जीव पंछी उड़ जायेगा !

प्रियजन , मैंने बचपन में , सुप्रसिद्ध  गायक "के. एल .सैगल " साहेब द्वारा ,पिंजडा छोड़ कर जाने वाले एक पंछी विषयक  भजन सुना था :

पंछी काहे होत उदास ? तू छोड़ न मन की आस ,
पंछी काहे होत उदास ?


                                  देख घटाएं आई हैं वो ,एक संदेसा लाई हैं वो  ,
पिंजरा तज कर उड़ जा पंछी , जा साजन के पास ,
पंछी काहे होत उदास ?


उठ और उठ कर आग लगा दे, फूंक दे पिंजरा पंख जला दे ,
राख बबूला बन कर तेरी, पहुंचे उन के पास ,
पंछी काहे होत उदास ?

आपको अपनी ८३ वर्षीय घिसी पिटी आवाज़ में सुनाने की धृष्टता कर रहा हूँ ---



उसी जमाने  [ १९३०-४० ] का "पंकज मल्लिक जी" का गाया हुआ  एक बहुत प्रसिद्ध गीत  भी याद आया था :

कौन देश है जाना , बाबू कौन देश है जाना ?
खड़े खड़े क्या सोच रहा है , हुआ कहाँ से आना ? ,
कौन देश है जाना , बाबू कौन देश है जाना ?

सांस की आवन जावन हरदम , यही सुनाती गाना ,
जीते जी है चलना फिरना , मरें तो एक ठिकाना 
कौन देश है जाना , बाबू कौन देश है जाना ?

प्रियजन , लगभग ७० वर्ष पूर्व - मेरे पिताश्री को ये दोनों ही गीत बहुत प्रिय लगते थे ! तब वह न केवल बहुत धनाढ्य थे वे प्रतिष्ठा के भी उच्चतम शिखर को छू चुके थे ! बाबूजी मुझसे और मेरी बड़ी बहन - उषा दीदी से ये दोनों गीत अक्सर सुना करते थे ! इन गीतों का आध्यात्मिक अर्थ उस समय हमारी समझ में नहीं आता था लेकिन आज हम दोनों  इनका अर्थ  भली भांति समझ गये हैं !

मानव शरीर में जीव के आगमन तथा उसमें से जीव के प्रयाण की समूची कथा उपरोक्त गीतों में निहित है !

थोडा बड़ा हुआ तो कबीरदास जी की , " जीवंन-मरण " संबंधी , गंभीर भावनाओं और गूढ़ रहस्यों को सरल बोलचाल की भाषा में समझाने वाली रचनाओं का एक पिटारा हाथ लग गया !  हम प्राय: सत्संगों में संत कबीर की ये रचनाएँ बड़े चाव से गाते थे !

कल पहली जुलाई की सुबह मुझे वे सब भजन भी एक एक कर के याद आते रहे और मैं उन सभी भजनों को ,पेटियो की आराम कुर्सी पर बैठा , धीरे धीरे गुनगुनाता रहा !
  • दो दिन का जग में मेला , सब चला चली का खेला  
  • मन फूला फूला फिरे जगत में कैसा नाता रे 
  • हम का ओढावत  चदरिया चलती बेरिया 
  • कौनो ठगवा नगरिया लूटल हो 
  • आई गवनवा की सारी,उमिर अबहीं मोरी बारी

ये न पूछिए कि आज,लगभग एक महीने की खामोशी के बाद ,आपके इन बुज़ुर्ग  ब्लोगर- बन्धु ने  जब ,एक बार फिर   लिखना शुरू किया तब  अनायास ही   वैराग्य के विचारों से ओतप्रोत  जनम -मरण के रहस्य को अभिव्यक्त करने वाले कबीर के इन भजनों को गाने की और आपको सुनाने की इच्छा जागृत हुई !  अगले ब्लॉग के लिए एक साथ ही ५ - ६ भजन गा कर रेकोर्ड कर लिए और उनकी यू ट्यूब पर शूटिंग भी कर ली !
===================================================== 
और आज ( जुलाई २ ) की प्रातः श्री राम शरणं ,लाजपत नगर ,
दिल्ली से जो ह्रदय विदारक समाचार मिला 
उसने पीड़ा के सब बाँध तोड़ दिए ! 
प्रियजन   
इसके आगे अब कुछ भी नही लिख पाऊंगा केवल इतना ही कहूँगा ,
"आज हम लुट गये" 
 ===========================
निवेदक : व्ही . एन . श्रीवास्तव  "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा श्रीवास्तव
======================