शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

स्वामी विवेकानंद (गतांक से आगे)

जनवरी १२, २०१३  
विश्वगुरु स्वामी विवेकानन्द जी की 
एक सौ पचासवीं जयन्ती पर 
समस्त मानवता को हार्दिक बधाई
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स्वामी विवेकानंद जी ने समग्र मानवता के आध्यात्मिकु उत्थान ,भौतिकी प्रगति एवं सर्वांगीण  मंगलमय कल्याण के लिए आज से १५० वर्ष पूर्व भारत की पवित्र धरती पर जीवन धारण किया था !


प्रियजन, भारत की इस महान विभूति की विलक्षणता तो देखें कि केवल ३९ वर्ष की अल्पायु तक इस धरती पर विचरने वाले  इस तत्ववेत्ता महापुरुष ने इतने थोड़े समय में ही कैसे  भारत की प्राचीनतम सांस्कृतिक संपदा को खोजा, खंगाला , निज अनुभूतियों के आधार से उन्हें समझा, उनका मूल्य आंका और खरा पाकर उन्हें 'स्वीकारा ;  तत्पश्चात उस अमूल्य निधि को  अति उदारता से समस्त विश्व में वितरित किया ! 

उन्होंने स्वदेश और पाश्चात्य जगत में हिंदुत्व के प्रति फैली भ्रामक मान्यताओं को दूर करके  विश्व मानवता  को भारतीय आध्यात्म और धर्म  के शाश्वत स्वरूप से परिचित करवाने और उसे वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित करने का सफल प्रयास किया !

स्वामीजी ने सद्गुरु परमहंस रामकृष्णदेव जी के मार्गदर्शन से तथा  अपने जीवन के असंख्य दिव्य अनुभवों से यह जाना कि "मानव सेवा ही वास्तविक "ईश्वर-पूजा" है ! उन्होंने  स्वयम को दलित और निर्धन वर्ग का अनन्य भक्त और सेवक माना था  ;वे  कहा करते थे ," मैं कोई तत्ववेत्ता नहीं हूँ ! न  संत  हूँ और न  दार्शनिक ही हूँ  ! मैं तो गरीब हूँ और ग़रीबों का सेवक हूँ  ! मैं सच्चा महात्मा उसे ही कहूँगा ,जिसका हृदय ग़रीबों के लिए तड़पता हो !

उनका दृढ़ मत था कि मानवता का एकमात्र धर्म "सेवा" ही है ! यथार्थतः  किसी भी 'धर्म' का निर्वहन केवल 'उपवास" या "रोजा" रखकर, प्रदर्शनात्मक ढंग से ,हठयोग की कष्टप्रद साधनायें करने अथवा काबा-काशी या चारोंधाम भ्रमण करके मंदिरों ,मस्जिदों और गिरिजाघरों में अपने अपने ढंग से श्रद्धा सुमन अर्पित करने ,चादरें चढाने अथवा मोम बत्तियाँ जलाने से नहीं होता है ! अस्तु विविध धर्मावलंबियों के भिन्न भिन्न पारम्पारिक अनु
ष्ठानों को "धर्म" नहीं समझना चाहिए !

स्वामी जी कहते थे कि ,मानव धर्म केवल कर्मकांडी अनुष्ठानो में ही संकुचित नहीं है, वह अत्यंत व्यापक है ! वास्तव में ,पूरी मानवता द्वारा "धारण" करने हेतु प्रतिष्ठित केवल एक "सत्य धर्म" है  जिसका निर्वहन  "प्रत्येक जीवधारी प्राणी को "आत्मरूप" जानने , उससे हार्दिक "प्रीति" करने, और उसकी "निस्वार्थ सेवा" करने से होता  है ! 


प्रियजन  ,स्वामी विवेकानंद केवल जानते , मानते और सोचते ही नहीं थे !  उन्होंने जो जाना , जिसे माना  ,जो संकल्प किया ;उसे कार्यान्वित किया ! उनकी कथनी और करनी में कोई भेद नहीं था ! हिंदू धर्म को कैसे गतिशील और व्यावहारिक बनाया जाए; यही उनका मौलिक चिंतन रहा !

इसके अतिरिक्त ,देश-विदेश-भ्रमण के अपने निजी अनुभवों से वे इस निष्कर्ष पर पहुँच  गये थे कि: 

१. कोरा आध्यात्मवाद और कोरा भौतिकवाद ,दोनों आधे अधूरे हैं ! 


२. भारतीय "वेदान्त-ज्ञान" तथा पाश्चात्य जगत के "तकनीकी विज्ञान" के मिलन द्वारा   ही विश्व-कल्याण सम्भव है !    

३. भारतीय 'आध्यात्मिक चिंतन' की सम्पदा और पाश्चात्य जगत के 'तकनीकी विज्ञान ' का खजाना एक दूसरे से मिल कर समस्त  मानवता  का  मंगलमय सर्वान्गीण  विकास कर  सकता  है ! 

४. मानवता के  अभ्युदय के  लिए भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृतियों का संगम होना  आवश्यक है ! 

इस विचार को क्रियात्मक स्वरूप प्रदान करने के उद्धेश्य से,  विवेकानंद जी ने ,भारतीय वेदान्त के सारतत्व पर आधारित - "विश्वबंधुत्व'" की भावना और जीवों की एक दूसरे के प्रति "स्नेहिल-सौहार्दपूर्ण व्यवहार" की सस्कृति को  पाश्चात्य जगत की " तकनीकी , वैज्ञानिक  भौतिकवादी संस्कृति" से जोड़ कर एक "बहु जन हिताय , बहु जन सुखाय",  विश्व के निर्माण की कल्पना की ;और उसके लिए ही अपना जीवन समर्पित किया !


स्वामी जी की वाणी में उनके समग्र जीवन का अनुभव मुखर होता है ! उनके वचन और , रहनी -सहनी में उनका धर्म-दर्शन जीवंत है ! उनकी निस्वार्थ जनसेवा और त्याग में  उनके गुरु और इष्ट की पूजा मूर्तिमंत हुई  !

स्वामी विवेकानंद  की 'कथनी'   

[क] मेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य यह है कि मैं गुरुदेव  ठाकुर रामकृष्णदेवजी के स्वप्नों को साकार करूं और उनके आदेशानुसार मनुष्य जाति  को मानवता के दिव्य स्वरूप से परिचित करवाऊँ तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उस सात्विक  दिव्यता को  अभिव्यक्त करने का उपदेश दूँ और उसके लिए उपाय बताऊँ !  


[ख] निर्धनता, अस्पृश्यता ,निरक्षरता  तथा रूढिवादिता  के अभिशाप से मानवता को  मुक्त कराए बिना विश्व का सम्वर्धन ,संरक्षण और अभ्युदय होना सम्भव नहीं है !


[ग]  
"पढ़ने के लिए जरूरी है एकाग्रता और एकाग्रता के लिए जरूरी है ध्यान । ध्यान के द्वारा ही हम इंद्रियों पर संयम रख सकते हैं। शम, दम , तितिक्षा ,चित्त की शुद्धि तथा एकाग्रता को बनाए रखने में ध्यान बहुत सहायक होता है।"

उनकी 'करनी'

प्रत्येक "कर्ता" को , अपने "कर्म" के दौरान , तीन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है - --    १. उपहास,  २. विरोध  और  ३. स्वीकृति ! 

स्वधर्मानुसार सात्विक कर्म करने वाले कर्ता को ,उपहास और विरोध का दृढता से  सामना करते हुए कर्म करते रहना चाहिए ! स्वीकृति - सफलता निश्चित ही मिलेगी ! 

वातावरण कैसा भी हो,  परिस्थितियाँ अनुकूल हों अथवा  प्रतिकूल , यदि  आस्तिक भाव, आत्मविश्वास तथा  पूरी ईमानदारी के साथ उपलब्ध उपकरणों का सदुपयोग करते हुए कर्म किया जाए तो अंत में सफलता अवश्य ही 'कर्ता' के चरण चूमेगी ! 

उपरोक्त दोनों बहुमूल्य सिद्धांतों / तथ्यों को भली भांति समझ कर स्वामी जी अपने सभी कर्म क्रियान्वित करते थे ! 
 
स्वामी जी के जीवन का लक्ष्य था , विश्व में एक मानवतावादी , चरित्रवान , सम्वेदनशील समाज की स्थापना करना, समाज की निस्वार्थ भाव से सेवा करना , शिक्षा के प्रति जागरूक रहना , इन्द्रिय संयम से मन और योग से तन को स्वस्थ रखना  ; जिसके लिए वे सदैव प्रयत्नशील रहें !

सद्गुरु के स्वप्न और अपने लक्ष्य को  साकार रूप देते हुए विवेकानंदजी ने सर्व प्रथम नवम्बर १८९४  में उत्तरी अमेरिका के न्युयोर्क महानगर में " वेदान्त समिति " का गठन किया  ; तत्पश्चात  १ मई  १८९७  को   कोलकत्ता में रामकृष्ण मिशन की और  १८९८ में बैलूर  में रामकृष्ण मठ की स्थापना की  ! इसके बाद उनके शिष्यों ने  विश्व भर में स्थान स्थान पर उनके "कर्म"  और योग के आदर्षों से अनुप्राणित अनेक "रामकृष्ण मठ" और "विवेकानंद केन्द्र" स्थापित किये ! 

देश -विदेश में स्थापित ये केन्द्र और मिशन आज तक परमहंस रामकृष्ण ठाकुरजी  एवं उनके शिष्य विवेकानंद के संदेशों के प्रबल प्रचारक एवं  प्रसारक बने हुए है ! इन संस्थाओं तथा इनके द्वारा संचालित विद्यालयों एवं स्वास्थ्य केन्द्रों में आधुनिक उपकरणों के प्रयोग से श्रेष्ठतम शिक्षा एवं उच्चस्तरीय चिकित्सा उपलब्ध कराई जाती है ! विद्यालयों में विविध कलाओं के साथ साथ वैज्ञानिक व तकनीकी शिक्षा तथा  योग और वेदांन्त की शिक्षा भी दी जाती है ! इनमें शिक्षार्थियों को आस्तिक जीवन जीने की कला सिखाई जाती है तथा आर्त-जनों की सेवा तथा आवश्यकतानुसार विविध प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित जनसमुदाय की सेवा की प्रेरणा दी जाती है ! 

इन मिशनों द्वारा देश विदेश में की जा रहीं मानवता की ये उत्कृष्ट सेवाएं महान तत्ववेत्ता युगपुरुष - स्वामी विवेकानंद जी और उनके सद्गुरु परमहंस ठाकुर रामकृष्ण देव जी के वेदान्तिक चिंतन एवं  व्यावहारिक धर्म दर्शन को  चिरजीवंत रख कर अनंत काल तक ,इस आद्वितीय गुरु-शिष्य जोड़ी के अभिनंदनीय श्री चरणों पर श्रद्धा सुमन अर्पित करती रहेंगीं ! 

एक आवश्यक सूचना 
मेरे पिछले - ५ जनवरी वाले आलेख के प्रकाशित होने के बाद उसमे 
स्वामी जी के शिकागो वाले ५ मिनिट के भाषण का 'वीडियो क्लिप' 
संलग्न हो गया है ! कृपया आप उसे अवश्य देखें और स्वामी जी की 
ओजपूर्ण वाणी सुनें   

[क्रमशः] 

स्वामी जी के शिक्षाप्रद सूत्रात्मक वचनों का संकलन 
और बहुत कुछ अगले अंकों  में प्रस्तुत करेंगे  

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निवेदक: व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला"
 सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
श्रीमती श्री देवी कुमार  . 
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4 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज शनिवार (12-1-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!

कविता रावत ने कहा…

विश्वगुरु स्वामी विवेकानन्द जी की
एक सौ पचासवीं जयन्ती पर सार्थक प्रेरक प्रस्तुति हेतु आभार ....
हार्दिक शुभकामनायें...

Bhola-Krishna ने कहा…

धन्यवाद ,आभार !कृपया पिछले और आगे के भी अंक पढ़ें !

G.N.SHAW ने कहा…

काका और काकी जी को प्रणाम | बहुत दिनों बाद लौटा हूँ , क्षमाप्रार्थी हूँ | स्वामी विवेकानंद जी पर बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति |