शनिवार, 23 मार्च 2013

ग्रहस्थ संत शिवदयाल जी - भाग ४


गृहस्थ संत
संत के लक्षण :

यह सार्वभौमिक  सत्य है कि जीवात्मा में "संतत्व" के लक्षण निसर्ग से  विद्यमान होते हैं ! धरती पर आने के बाद सत्संग अथवा कुसंग के प्रभाव से जीव में धीरे धीरे उन सद या दुष् प्रवत्तियों का बाहुल्य हो जाता है जो उसे संगति से प्राप्त होती हैं !

सत्संग व्यक्ति को दैविक प्रवृत्तियां प्रदान करता है तो कुसंग उसे दानवीय प्रवत्तियों की ओर  प्रेरित करता है ! इसप्रकार जाने-अनजाने ही जीवन भर हमारे स्वभाव पर , हमारी मनोवृत्तियों पर , हमारी रूचि-अरुचि पर "संग" का प्रभाव पड़ता रहता है !  कहावत है "जैसा संग वैसा रंग" !

प्रभुकृपा ,सौभाग्य  एवं संस्कार वश प्राप्त "सत्संग'" द्वारा मनुष्य के मन में उसके निज विवेक के प्रकाश में दिव्य जीवन जीने की प्रवृत्ति जाग्रत होती है और  वह अपने जीवन में,"सहजता" से प्राप्त वस्तुओं ,परिस्थितिओं ,अवस्थाओं और व्यक्तियों का"सदुपयोग" करता है ! इस प्रकार वह संघर्ष के  दुर्गम शिखर लांघता हुआ सफलता की राह पर  आगे बढता रहता है !

उपरोक्त  नैसर्गिक विधि का लाभ सभी जीवों को मिल सकता है यदि वह इसमें के इन तीन शब्दों पर विशेष ध्यान दे - १. सत्संग , २.सहजता , ३. सदुपयोग

पिताश्री एवं पूर्वजों की पुन्यायी का लाभ सब जीवों को मिलता ही है और इसके साथ जुड़ जाता है जन्म जन्मांतर से संचित उसका अपना प्रारब्ध जो वह साथ लाता है !निसर्ग किसी को भी वंचित नहीं रखता उसके इस अधिकार से !

प्रियजन ,"मैं", [ मेरा यह शरीर नहीं ] ,जीवात्मा "मैं" और "आप"' - "हम सभी" इस धरती पर अपना अपना प्रारब्धीय खजाना लेकर आये हैं ! रुखसती के समय हमारे "पिता परमेश्वर"  ने हिसाब किताब बराबर करके हमे अच्छा खासा दहेज दिया है !  उस पूंजी को घटाना बढाना हमारे इस जन्म के कृत्यों पर अवलंबित है !

चर्चा चल रही है आदर्श गृहस्थ संत माननीय शिवदयाल जी की , तो सुनिए --

माननीय शिवदयाल जी की परम पावन जीवात्मा भी इस संसार में अपने सुसम्पन्न देबलोकीय मायके से भरपूर दहेज सहेज कर इस धरती पर अपने साथ लाई थी ! संतत्व के लक्षण इनकी वंशावली के  लगभग सभी पूर्वजो में अनेकों पीढ़ियों से विद्यमान थे ! इनके परदादा मुंशी हीरा लाल जी ने युवावस्था में अपना समृद्ध , भरा पूरा परिवार त्याग कर सन्यास ले लिया था ! सन्यासी परदादा को नाम मिला था - "रामशरण" !

इस संदर्भ में परिवार के एक अन्य विशिष्ट सदस्य जो वयस में माननीय शिवदयाल जी से छोटे थे ,और 'माननीय' को "गुरु-पितु -मात" सदृश्य मानते थे ,अपना देह त्यागने से कुछ समय पूर्व एक महत्वपूर्ण जानकारी दे गये ! उनके कथन का भावार्थ कुछ यूँ है -

"मैं अमृत बेला में "माननीय-------- " एवं स्वामी सत्यानन्द जी महाराज  के मानसिक  सानिध्य में श्री राम कृपा से ध्यानस्थ होता हूँ ! उस समय मुझे विचित्र अनुभूतियाँ होती है ! विपत्ति काल में जब मुझे सहायता की दरकार होती है ,ये दोनों गुरुजन मुझे मेरी ध्यानस्थ अवस्था में ही उचित परामर्श एवं मार्ग दर्शन दे जाते हैं ! एक अन्य अनुभूति भी मुझे होती है ! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे "माननीय ---------" के शरीर में परदादा सन्यासी "रामशरण जी" की ही आत्मा विराजमान है !"

देहावसान के लगभग ७-८ वर्ष पूर्व १९९६ में प्रथम हार्ट अटेक के बाद स्वस्थ होने पर "श्री शिवदयाल जी" ने अपने नाम के पहले "श्री राम शरण" लिखना प्रारम्भ कर दिया था !

शिवदयाल जी को विरासत में मिले  "संतत्व" का यह जीवंत प्रमाण है !

पूर्वजों से मिली विरासत में संतत्व के अतिरिक्त उन्हें मिले थे पिताश्री "परमेश्वर दयाल   जी" के सारे 'एसेस्ट्स' और उनकी सारी 'लाइबेलटीज़' !

चलिए अभी थोड़ी पिताश्री "परमेश्वर दयाल जी" की चर्चा हो जाए

प्लेग की महामारी में सब कुछ गवां कर यू.पी ,से विस्थापित होकर उनका  परिवार मुरार ग्वालियर में आ कर बसा था ! ऐसे में बेइंतहा मुश्किलें झेल कर परमेश्वर दयाल ने १९१६ में ,"हाईकोर्ट वकील" की परीक्षा पास की और २१ वर्ष की अवस्था में वहीं ग्वालियर में प्रेक्टिस प्रारंभ की ! गुरुआदेश  का पालन करते हुए उन्होंने शुरू में कुछ महीनों तक निःशुल्क जन सेवा की !

परमेश्वर पर परमेश्वर की अपार कृपा थी ! तीन चार वर्ष में ही उनकी वकालत चमक उठी और वह नगर " म्यूनिसिपल कमेटी" के "स्टेंडिंग कौंसिल" नियुक्त हुए ! शीघ्र ही वह "टाउन इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट"  के भी कौंसिल बने और  आजीवन उस पद पर आसीन रहें !

केवल २३ वर्ष वकालत करके ४३ वर्ष की अल्पायु में वह चल बसे ! इन २३ वर्षों में उन्होंने "विधि" [ कानून ] के क्षेत्र में जो कुछ किया काबिले तारीफ़ है ! कहते हैं उनकी केस की तय्यारी इतनी जबरदस्त होती थी कि विपक्षी वकील भी इनका लोहा मान जाते थे और अक्सर माननीय न्यायाधीश भी खुल कर सरेआम उनकी सराहना करते थे तथा अन्य वकीलों को उनका अनुकरण करने की सलाह देते थे !

देहावसान से कुछ दिन पहले वही सलाह परमेश्वर दयाल जी ने  अपने पुत्र शिवदयाल को एक पर्चे पर लिख कर दी ! उन दिनों नये वकील शिवदयाल अपना पहला केस जीतने की तैयारी कर रहें थे !  पर्ची पर लिखा था :-

You must so prepare and present a case that :
1. You win the case 
2. You win your client
3. You win the Hon. Court
4. You win the opposing counsel -- and 
5. You win yourself 

विधि के क्षेत्र में उनकी अन्य महती उपलब्धियों का वर्णन अगले अंक में  !
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क्रमशः 
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निवेदक : व्ही.  एन.  श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : समस्त राम परिवार 
एवं विशेष सहयोग :
श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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1 टिप्पणी:

Shalini kaushik ने कहा…

रुखसती के समय हमारे "पिता परमेश्वर" ने हिसाब किताब बराबर करके हमे अच्छा खासा दहेज दिया है ! उस पूंजी को घटाना बढाना हमारे इस जन्म के कृत्यों पर अवलंबित है ! bahut sahi kaha hai aapne .aabhar
aap sabhi ko holi kee bahut bahut shubhkamnayen .