रविवार, 17 मार्च 2013

संत स्वभाव गहौंगो - माननीय शिवदयाल जी [भाग ३]


कबहुक हौं यह रहनि रहौंगो ?
कबहुक संत स्वभाव गहौंगो ?
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जीवन का उपरोक्त उद्देश्य प्रति पल याद रखने वाले आदर्श गृहस्थ संत 
"माननीय शिवदयाल जी" 
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२८ फरवरी के प्रातः तुलसी के इस पद ने ही क्यों मुझे झकझोरा ? यह पद जिसे मैंने पहले कभी नहीं गाया था , यह पद, जिसकी प्रथम पंक्ति के अलावा मुझे और कोई पंक्ति याद नहीं थी ! और हाँ ,यह पंक्ति भी मुझे किसी एक विशेष धुन के साथ याद आई ? क्यूँ ?

मेरा निजी अनुमान है कि उस प्रातः कदाचित [ ? ] ,"परमधाम" में विराजित हमारे प्यारे "प्रभु" की इच्छापूर्ति हेतु ,"उनके" ही आदेशानुसार सुषुप्ति में मुझे इस पद विशेष को, गाने की प्रेरणा हुई ! परन्तु जैसा मैं कह चुका हूँ , मेरे पास उस पद की स्थायी  के आलावा  उसके आगे के शब्द थे ही नहीं ! कैसे करूं "उनकी" इच्छा पूर्ति ?  मैं बेचैन था !

ऐसे में "उनकी"  कृपाजंनित चमत्कार का दूसरा झोंका आया और  अकस्मात ही  उस पद के शेष शब्द भी नाटकीय ढंग से सहसा मेरे सन्मुख प्रगट हो गये !


प्रियजन , विश्वास कीजिए हमारे "प्यारे प्रभु" जिस जीव से जो कृत्य विशेष करवाना चाहते हैं , जिस कवि से जो लिखवाना चाहते हैं , जिस संगीतज्ञ से जो सुनना चाहते हैं , जिस वैज्ञानिक से जो अनुसंधान करवाना चाहते हैं उसकी प्रेरणा "वह"उस जीव को यथा समय  दे देते हैं !

हमने आध्यात्मिक गुरुजनों से यह बात सुनी  है कि ऎसी प्रेरणाएँ अक्सर मध्य रात्रि की गहन शांति में अवतरित होती हैं !  मुझे महापुरुषों के इस कथन की सत्यता का निज- अनुभव भी है  ! प्रियजन , अपने इस जीवन में जो थोड़े से भजनों की शब्द एवं स्वररचना मैने की है  वो ऎसी ही "दिव्य प्रेरणाओं" से सम्भव हुई  है !

कुछ अन्य नामीगिरामी शायरों , मौशीकारों -स्वर शिल्पियों ने भी मुझसे इस कथन की सच्चाई क़ुबूल की है !




संगीत निर्देशक 'नौशाद साहेब' एवं उनकी बेगम साहिबा 
१९८३-८४ में कानपुर में निवेदक "भोला" के स्थान पर   


अपने अनुभव बताते हुए "नौशाद साहेब" ने मुझे  बताया था कि उनकी मशहूर संगीत रचना "प्यार किया तो डरना क्या" की "धुन" सहसा ऐसी ही ईश्वरीय प्रेरणा से बनी थी !

एक भेंट में ,प्रसिद्द संगीत निर्देशक श्री चितलकर रामचन्द्र जी ने भी मुझे बताया था कि उनकी सुप्रसिद्ध रचना "तन डोले मेरा मन डोले" की धुन भी इसी तरह की प्रेरणा के प्रसादस्वरूप उन्हें  मिली थी ! उन्होंने बताया कि हफ्तों प्रयास करने पर भी जब वह इस गीत की कोई "लोकप्रिय" धुन  न बना सके तो निराश होकर वह प्रोड्यूसर को ये गीत लौटाने के लिए अपने घर से निकले ! तभी कार का इंजन चालू करते ही,बिजली की तरह उनके जहन में उस गीत की वर्तमान "हिट" धुन कौंध गई और जब यह धुन उन्होंने अपने प्रोड्यूसर को गाकर सूनायी  , तो फिर क्या कहने थे , वाह वाह की झडी लग गई थी ! आपको याद ही होगा कि यह गीत कितना लोकप्रिय हुआ था !  

एक मजेदार बात बताऊँ, इस गाने के रिलीज होने के दस पन्द्रह वर्ष बाद तक नये नये " दूल्हे " मंडप से बिन ब्याहे ,उठ कर चल देते थे यदि उनकी सालियाँ उन्हें इस गीत पर नृत्य करके नहीं दिखाती थीं  !   [ मेरे जमाने की बात है , स्वजनों थोड़ा  हंसिये तो ]

आप को एक और बात बताऊँ , ये दोनों ही संगीतकार परम आस्थावान थे !अपने अपने इष्ट देवों पर दोनों को ही अटूट श्रद्धा थी , और  वे उन के प्रति पूर्णतः समर्पित थे ! आपने सुना ही है कि उनके इष्टदेवों ने किस तरह ,यथा समय उपस्थित होकर उनकी मदद की ! 


हमारे श्रद्धेय "बाबू" ,माननीय शिवदयाल जी के "संतत्व" की चर्चा चल रही थी और उस संदर्भ में तुलसी के इस पद "कबहुक हौं यह रहनि रहौंगो " का उल्लेख आया था ! प्रश्न उठा था कि  उनकी  जयंती पर २८ फरवरी को ही क्यूँ  मुझे इस भजन विशेष के गाने की प्रेरणा हुई थी और मैंने उस समय यह अनुमान लगाया था कि कदाचित वह "हरि इच्छा" से हुआ होगा ! परन्तु शायद मेरा अनुमान पूर्णतःसही नहीं था ! 

इस संदर्भ में हमारे श्री रामपरिवार के एक महत्वपूर्ण सदस्य , हम सब के अतिशय प्रिय , श्रद्धेय बाबू के चरण - अनुगामी  उनके पुत्र ----ने ,मेरे उस आलेख पर कमेन्ट करते हुए मेरे पास ई मेल द्वारा निम्नांकित जानकारी दी है :  

विनय पत्रिका के जिस भजन का आपने आज उल्लेख किया है वह पूज्य बाबूजी के अत्यंत प्रिय भजनों में से एक थाआपको शायद पता हो कि यही एक हस्तलिखित पद था जिसे फ्रेम कराके बाबूजी ने जबलपुर से ही पूजा मंदिर में रखा था।

मेरी समझ से, वे आदर्श भक्त के आचार-विचार-रहनी को जीने का ध्येय बना चुके थे अत: प्रति पल अपना उद्देश्य स्मरण रखने का उनका यह विलक्षण तरीका था। कोई और भजन या पद फ्रेम कराके बाबूजी ने पूजा में नहीं रखा था। 

-------------- सर्वविदित है, पूज्य बाबूजी ने 1952 में परमपूज्य स्वामी सत्यानंदजी महाराज से अधिष्ठान प्राप्त करने पर,उसी दिन अपने घर नरसिंह  बाड़े, दाल बाज़ार, लश्कर, ग्वालियर  के पूजा कक्ष  में पधराया था। हमारा परम सौभाग्य है कि हमारे ----- पूजा मंदिर को वही अधिष्ठान सुशोभित कर रहा है। ----------------------

पाठकगण , ई मेल मिलने पर मैंने प्रियवर --- से फोन पर बात की ! उन्होंने बताया कि वह भजन अयोध्याजी के गोसाईं संत सीतारामसरन जी महाराज ने ५० - ६० वर्ष पूर्व कभी, ग्वालियर अथवा जबलपुर के घर के सत्संग में गाया था ! 

ग्वालियर वाले प्रवचन में तो मैं भी था और मुझे ठीक से याद है कि स्वामी जी का कोई एक भजन सुनकर आनंदरस में सराबोर मेरी आँखें भर आईं थी और स्वामी जी ने एक पीला ,जोगिया रंग का रुमाल मेरे ऊपर फेंका था ! वह कौन सा भजन था ,अब यह मुझे याद नहीं ! परन्तु हो सकता है कि वह तुलसी का यही पद हो :

कबहुक हों यह रहनि रहौंगो 
श्री रघुनाथ कृपालु कृपा सौं संत स्वभाव गहौंगो 

ऐसा लगता है जैसे निवेदक दासानुदास को 'पथभ्रष्ट' होते देख,
"परम कृपालु परमेश्वर" ने तथा ब्रह्मलोक में उपस्थित 
दास "भोला"के सब शुभचिंतकों एवं गुरुजनों ने २८ फरवरी के प्रातः 
उसपर अति कृपा करके ,उसे इस पद विशेष की याद दिलाई  
और " संत स्वभाव ग्रहण " कर कल्याण पथ पर अग्रसर होने का निदेश दिया !

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निवेदक : व्ही. एन.  श्रीवास्तव  "भोला"
सहयोग :  श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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