शुक्रवार, 8 मार्च 2013

गृहस्थ संत - [ भाग २ ] - मार्च ६ , २०१३

श्रेष्ठतम गृहस्थ संत
हमारे ''बाबू" 
"माननीय शिवदयाल जी"
 श्री राम परिवार के आदर्श - मार्गदर्शक
जिन्होंने अपने सिद्धांतों को निज आचरण से चरितार्थ किया


नित्यप्रति अपने चेम्बर में आने से पहले और हाई कोर्ट से निकलने पर ,सर्व प्रथम
श्री हनुमान जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते
माननीय श्री शिवदयाल जी  

चंद पाठकों के मन में प्रश्न उठा है कि मैंने अपने ब्लॉग ,"महाबीर बिनवौ हनुमाना"  में यह निजी प्रसंग क्यूँ उठाया है  ? अस्तु स्पष्ट करदूं कि इसमें न तो पवनपुत्र श्री "महाबीर जी" का कोई स्वार्थ है ,न दिवंगत जस्टिस शिवदयाल जी का और न मेरा ही ! यकीन करें  दिखावे का  'परहित' करके कुछ पुण्य कमाने की लालच में भी हम यह जद्दोजहद नहीं कर रहे हैं !

बन्धुजनों , आपको कितनी बार बता चुका हूँ कि मुझसे , जो कुछ "वह ऊपरवाले" करवाते हैं,वही करता हूँ ! अपनी निजी कोई क्षमता नहीं है मुझमे !"उनकी" प्रेरणा ही मूल स्रोत है!
प्रियजन "उनकी" इच्छा से ही मेरी [मेरी ही क्यूँ , आप सब की भी] रसोई में प्रसाद पकता है ! प्रियजन ,उस प्रसाद में जो कुछ मुझे सबसे अच्छा लगता है मैं बड़े शौक से उसे अपने स्वजनों को खिलाना चाहता हूँ ! यह मेरा जन्मजात स्वभाव है ! मैं यही कह सकता हूँ कि "जिन्हें भाये ,स्वीकारें , न भाये तो छोड दें "!

चलिए ,गृहस्थ संत की कथा आगे बढाएं ----

२८ फरवरी की प्रातः कृष्णा जी अपने निश्चित कार्यक्रम के अनुसार  ५ बजे से ही अपनी साधना में जुटी थीं ! मेरे अधजगे कानों में रोज की तरह उनकी दैनिक प्रार्थना के शब्द श्री अमृतवाणी का गायन ,"भक्ति प्रकाश" का पाठ और अंत में 'राम' धुन' के अस्पष्ट बोल रह रह कर पड़ रहे थे !

प्रियजन , मैं उतनी सुबह नहीं उठ पाता ! बात यह है कि अनेक  कारणों से मैं अक्सर रात भर लगभग जगा ही रहता हूँ ! प्रात ३ - ४ बजे के बाद ही मुझे नींद आती है ! सुबह सात बजे के बाद ही मैं बिस्तर छोड़ता हूँ !

हा तो उस २८ फरवरी के प्रातः जाग खुलने पर ,बिस्तर पर लेटे लेटे ही मुझे  संत तुलसी दास  जी का एक पद  याद आने लगा ! मैंने वह पद पहले सुना अवश्य था परन्तु स्वयम कभी गाया नहीं था !  न जाने क्यूँ उस पद की स्थायी के बोल मुझे बार बार झकझोर रहें थे और मेरा मन कर रहा था कि मैं उसे गाऊँ ! -

लेकिन प्रश्न यह था कि गाऊँ तो कैसे गाऊँ ! उस पद के शेष शब्द [बोल] मुझे मालूम ही नहीं थे ! कहाँ खोजूँ मैं उन्हें ? यहाँ अमेरिका में कृष्णा जी की लाइब्रेरी में  "राम चरित मांनस"  तो है परन्तु "तुलसीदास"  के अन्य ग्रन्थ - गीतावली, कवितावली  अथवा  विनयपत्रिका  उपलब्ध नहीं है !

मैं अभी इस उधेड़ बुन में ही था कि अचानक एक चमत्कार हुआ ! फुटकर भजनों की एक पुस्तक खोलते ही मेरी दृष्टि जिस पहले भजन पर पडी , वो वही भजन विशेष था जिसकी   खोज मैं इतनी तत्परता से कर रहा था  ! उस भजन का अकस्मात मिल जाना , मेरे लिए मेरे "आका"- "मेरे प्यारे प्रभु" का संदेश था ! "वह" सुनना चाहते हैं , मैं सुनाउंगा , मैंने निश्चित कर लिया !

विश्वास करिये मेरे अतिशय प्रिय स्वजन ,अपने प्रेमी साधक से जब उसका 'आराध्य देव'  उसका "प्यारा प्रभु " कुछ सुनना चाहता हैं ,"वह" उसे स्पष्ट संकेत देता  हैं ! शब्दों और स्वरों की गंगा-यमुनी धार उस साधक को सराबोर कर देती हैं ! आनंदाश्रु बहाता साधक गाता है ,और उसका "प्यारा" 'सूर' के 'गोपाल' और 'मीरा' के 'गिरिधर नागर'  के समान साधक के अंग संग बैठा हौले हौले मुस्कुराता हुआ ,तन्मयता से भजन सुनता रहता है !

स्वजनों यह कपोल कल्पना नहीं है ! यह मेरा निजी अनुभव भी है ! बी.एच.यू. में ,संगीत मार्तंन्ड  ठाकुर ओमकार नाथ जी से "मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो " सुनकर तथा वर्षों पूर्व  पंडित भीमसेन जोशी से "जो भजे हरि को सदा सो परम पद पायेगा " सुनकर और यहाँ यू.एस.ए. में पंडित जसराज जी से केवल "ओंकार नाद" सुन कर ही मंत्र मुग्ध हजारों श्रोताओं के साथ मैं भी रोमांचित हुआ हूँ , मेरी भी आँखें डबडबाई है मुझे भी अपने प्यारे प्रियतम का सानिध्य महसूस हुआ है !---

आप ठीक सोच रहे हैं , भटक जाता हूँ मैं ! आपको सब कुछ बता देने के प्रयास में !

मुझे भी शब्द मिले, स्वर भी मिले और अति अस्वस्थ होते हुए भी मैंने अपने "प्यारे" को निराश नहीं किया !  बीच में कितनी ही बार खांसी आई , कंठ अवरुद्ध हुआ फिर भी मैं रुका नहीं ,  "उन्हें" सुनाता रहा !"उनसे" प्रार्थना करता रहा कि  "वह" मुझे भी , अधिक नहीं तनिक सा ही " संत स्वभाव " प्रदान करें !

मेरे राम 
मेरे ऊपर कब कृपा करोगे ? कब मुझे "संत स्वभाव " से नवाजो गे ?

कबहुक हौं यह रहनी रहौंगो 
"श्री रघुनाथ कृपालु कृपा सों संत स्वभाव गहोंगो "



कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो ?
श्री   रघुनाथ-कृपालु-कृपा  , ते  संत   स्वभाव  गहौंगो !!

When shall I , by the Grace of the Lord start leading a SAINTLY life?

जथा  लाभ  संतोस  सदा ,   काहूसों  कछु  न  चहौंगो !
परहित निरत निरंतर मन क्रम वचन नेम निबहौंगो !!
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो ?

When shall I be happy with what I possess and stop begging?
When shall I be empowered to serve others wholeheartedly?

परुष  वचन अति  दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न जरौंग !
बिगत-मान  सम सीतल  मन पर-गुन , नहिं दोष कहौंगो!
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो ?

When shall I learn to ignore others' insulting remarks, 
 get rid of  my EGO , and ignore others' fault to appreciate their goodness?

परिहरि  देह   जनित  चिंता ,  दुःख-सुख   समबुद्धि   सहौंगो  
तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि , अविचल हरि-भगति  लहौंगो 
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो ? 

When shall I stop worrying about my physical self and not lose my  
equanimity in happiness or sorrow?
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Finally  Tulsidas says , 
" ONLY by treading  the holy path paved  by great SAINTS , 
one can become a TRUE DEVOTEE "
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क्षमा प्रार्थी हूँ , इंटरनेट में कुछ गडबडी के कारण .गाड़ी आगे नहीं बढ़ पा रही है 
[क्रमशः]
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निवेदक : वही. एन.  श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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1 टिप्पणी:

Shalini kaushik ने कहा…

aap amerika me rahte hue ye lekhan karya kar sampoorn bharatvarsh ka sheesh garv se uncha kar rahe hain ki bhale hi aap desh se tan roop me alag hon kintu man aapka bharat me hi rama hai .aisee hi hai bharat varsh kee mahima"महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें" आभार मासूम बच्चियों के प्रति यौन अपराध के लिए आधुनिक महिलाएं कितनी जिम्मेदार? रत्ती भर भी नहीं . .महिलाओं के लिए एक नयी सौगात WOMAN ABOUT MAN