मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

नारद भक्ति सूत्र [गतांक के आगे ]


अथातो   भक्तिं व्याख्यास्याम: 
सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा ,
अमृतस्वरूपा
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"भक्ति" रमप्रेम रूपा है , अमृतस्वरूपा है 
  "मन में, ईश्वर के लिए परमप्रेम का होना ही "भक्ति" है"  
(देवर्षि नारद)
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भक्ति के आचार्य देवर्षि  नारद ने अपने  "भक्ति सूत्र" के उपरोक्त ३ सूत्रों में भक्ति का सम्पूर्ण सार निचोड़ दिया है ! शेष ८१ सूत्रों में उन्होंने  'रम प्रेम रूपा भक्ति' की विस्तृत व्याख्या की है तथा वास्तविक भक्ति के लक्षण समझा कर उन्हें साधने की प्रक्रिया बतलायी है इसके साथ ही , उन्होंने साधकों को प्रेमाभक्ति की सिद्धि से मिलने वाले दिव्य परमात्म 
स्वरूप "परमानंद" की अनुभूतियों से अवगत किया है और अन्ततोगत्वा यह तक कह दिया है कि भक्ति को किसी सीमा में बांधना कठिन है तथा , उसके लिए अलग से प्रमाण खोजना व्यर्थ है , भक्ति स्वयम ही भक्ति का प्रमाण है !

भक्ति प्रदायक यह प्रेम है क्या ?

कहते हैं कि संसार का आधार ही प्रेम है !  हम  सब  स्वभाववश नित्य ही  "प्रेम"  करते हैं ! उदाहरणतः माता पिता का उनके बच्चों के प्रति और बच्चों का अपने माता पिता के प्रति प्रेम ! मिया बीवी का प्रेम ! सास बहू का प्रेम ! नंद भौजाई का प्रेम ! आज के नवयुवक -युवतियों का "वेलेंटाइनी तींन शब्दों वाला "आइ लव यू" तक सीमित  प्रेम इत्यादि  ! 

इनके अतिरिक्त हम जीवधारी तो निर्जीव पदार्थों से भी प्रेम करते हैं ! छोटे छोटे बच्चे अपने खिलौनों से और हम आप जैसे वयस्क अपनी चमचमाती प्यारी "फरारी कार" और "थ्री बेड रूम कम डी डी विध टू फुल एंड वन हाफ बाथ" के अपार्टमेंट के प्रेम में मग्न रहते हैं ! हमारी देवियाँ अपने रंग रूप एवं वस्त्राभूषण से और अपने पति परमेश्वर के वैभव से प्रेम करती हैं !शायद ही कोई प्राणी इस प्रेम से अछूता हो !

कैसे भूल गये हम उन ऊंची कुर्सी वाले वर्तमान राजनेताओं को ,जो निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपनी कुर्सी से सदा के लिए चिपके रहने का प्रयास करते रहते हैं! इतना प्रेम है उन्हें अपनी जड़ कुर्सियों से ! 

कहाँ तक गिनाएं ?  किसी ने ठीक ही कहा है कि इस  जगत में प्रेम हि प्रेम भरा है ! आज की दुनिया में नित्य ही ,हर गली कूचे में  हम और आप इस स्वार्थ से ्ओतप्रोत प्रेम  के नाटकों का मंचन देख रहे हैं पर प्रश्न यह हैकि यह सर्वव्याप्त प्रेम ही क्या वास्तविक प्रेम है ? यह समझने की बात है ! सच पूछिए तो केवल आज का जगत ही इस कृ्त्रिम प्रेम से नहीं भरा है , हमारा पौराणिक साहित्य भी ऎसी अनेकानेक प्रेम कथाओं से परिपूरित है!

सर्वाधिक चर्चित पौराणिक प्रेम कथा हैं इन्द्र लोक की अप्सरा मेनका के प्रति राजर्षि विश्वामित्र का प्रेम प्रसंग ! इसके अतिरिक्त -

आप कदाचित यह कथा भी जानते ही होंगे कि अपने किसी अवतार में , देवर्षि  नारद जी भी माया रचित "विश्वमोहिनी" के रूप सौंदर्य एवं ऐश्वर्य से इतने आकर्षित हुए कि एक साधारण मानव के समान उसपर मोहित होकर वह उससे प्रेम कर बैठे ! करुणाकर विष्णुजी को अपने परम प्रिय भक्त नारद का यह अधोपतन कैसे सुहाता ?  अपने भक्त नारद को उस मोह से मुक्ति दिलाने के लिए विष्णु भगवान को  उनके साथ एक अति अशोभनीय छल करना पड़ा था ! विष्णु भगवान ने नारद को मरकट- काले मुख वाले परम कामी बंदर  का स्वरूप प्रदान कर उनकी जग हसाई करवा दी ! नारद जी अति लज्जित हुए !  कभी कभी भगवान को भी अपने भक्तों को सीख देने और उन्हें पाप मुक्त करने के लिए ऐसे बेतुके काम करने पड़ते हैं !

तदनंतर इन भुक्त भोगी ब्रह्म ज्ञानी नारद जी ने अपने ब्रह्मज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर समग्र मानवता  को परमप्रेमरूपा एवं अमृतस्वरूपा भक्ति की सिद्ध  हेतु  उनका मार्ग दर्शन करने के प्रयोजन से ये भक्ति विषयक ८४ सूत्र  निरूपित किये ! , 

[ प्रियजन , "परमप्रेम"  स्वार्थ प्रेरित सांसारिक प्रेम से सर्वथा भिन्न है ! अगले अंकों में देखिये कि इन  भुक्त भोगी नारद जी ने अपने भक्ति सूत्रों में , इस " परमप्रेम" को कैसे परिभाषित किया है ]

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चलिए अब हम पौराणिक काल से नीचे उतर कर आज के वर्तमान काल में प्रवेश करें !  आप जानते ही हैं कि यह आलेख श्रंखला आपके प्रिय इस भोले स्वजन  की आत्म कथा का एक अंश हैं और इस आत्मकथा में उसने उसके  निजी अनुभवों के आधार पर अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों के संस्मरण संकलित किये हैं  , तो आगे सुनिए - 

लगभग ३० वर्ष की अवस्था तक मैं सनातनधर्म एवं आर्यसमाज  की पेचीदियों में भ्रमित था ! तभी  प्यारे प्रभु की अहेतुकी  कृपा से,  १९५९ में मुझे सद्गुरु मिले ! मुझे अनुभव हुआ कि जीव के भाग्योदय का प्रतीक है सद्गुरु मिलन और ऐसा भाग्योदय बिना हरि कृपा के हो नहीं सकता ! ऐसे में हमरे सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी का यह कथन कि,


भ्रम भूल में भटकते उदय हुए जब भाग , 
मिला अचानक गुरु मुझे लगी लगन की जाग 

तथा परम राम भक्त गोस्वामी तुलसीदासजी का यह कथन कि  

बिनु हरि कृपा मिलहिं नहि संता  

दोनों ही सर्वार्थ सार्थक सिद्ध हुए !

आत्म कथा है ,निजी अनुभव सुना रहा हूँ ! 

मुझे 'नाम दान' दे कर दीक्षित करते समय गुरुदेव ने मुझे आजीवन 'श्रद्धायुक्त प्रेम ' के साथ अपने इष्टदेव  के परम पुनीत नाम का जाप , सुमिरन ,ध्यान, एवं भजन कीर्तन द्वारा उनकी भक्ति करते रहने का परामर्श दिया ! उन्होंने प्रेम पर जोर देते हुए कहा था कि ग्रामाफोन के रेकोर्ड पर रुकी सुई के समान मशीनी ढंग से नाम जाप न करना ! भक्ति करने का ढंग बताते हुए उन्होंने कहा कि :


भक्ति करो भगवान की तन्मय हो मन लाय
श्रद्धा प्रेम उमंग से भक्ति भाव में आय 

प्रेम भाव से नाम जप तप संयम को धार 
आराधन शुभ कर्म से बढे भक्ति में प्यार

श्रद्धा प्रेम से सेविये भाव चाव में आय 
राम राधिये लगन से यही भक्ति कहलाय

सच्चा धर्म है प्रीति पथ समझो शेष विलास 
मत मतान्तर जंगल में अणु है सत्य विकास
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तब उम्र में छोटा था , विषय की गम्भीरता समझ में नहीं आई थी ! इस संदर्भ में याद आया कि बचपन में अपनी माँ की गोद में मीरा बाई का एक भजन सुना था जो तब से आज तक अति हृदयग्राही लगा है तब उस भजन का भी भाव मेरी समझ के परे था लेकिन आज मैं उसे भली भाँती समझ पाया हूँ ! अब् यह जान गया हूँ कि जब साधक के मन में मीरा बाई जैसी लगन  होगी तथा उनके समान ही प्रभु दरसन की उत्कट लालसा होगी तब ही उसे वास्तविक प्रेमा भक्ति की रसानुभूति होगी और तब ही परमानंद के सघन घन उमड घुमड कर उसके मन मंदिर में बरसेंगे !

प्यारी अम्मा की गोदी में सुना हुआ भजन था 

मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा न कोई!!

जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई, 
तात मात भ्रात बंधू ,आपनो न कोई!! 

छाड दयी कुल कि कांन कहा करिये कोई, 
संतन ढिंग बैठ बैठ लोक लाज खोई !!
[शेष नीचे लिखा है] 
लीजिए आप भी सुन लीजिए
(मेरे थकेमांदे बूढे अवरुद्ध कंठ की कर्कशता पर ध्यान न दें 
केवल उस प्रेमदीवानी मीरा के प्रेमाश्रुओं से भींगे शब्दों को सुनिए) 




प्रियजन इस भजन की निम्नांकित पंक्तियाँ , हमारे आज के 
इस प्रेम भक्ति योग के विषय में पूर्णतः सार्थक हैं   

 असुवन जल सींच सींच प्रेम बेल बोई  
अब् तो बेल फैल गयी आनंद फल होई!! 

भगत देख राजी भई जगत देखि  रोई
दासी मीरा लाल गिरिधर तारों अब् मोही !! 
(प्रेम दीवानी मीरा )
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यथासंभव क्रमशः अगले अंकों में 
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 निवेदक : व्ही . एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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1 टिप्पणी:

प्रभुदास विपुल सेन / Prabhudas Vipul Sen ने कहा…

सुंदर कार्य। अति आनन्ददायक कार्य है आपका।
जय हो ।
विपुल लखनवी
https://freedhyan.blogspot.com/