गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

भक्ति सूत्र (गतांक के आगे)

 प्रेमस्वरूपा भक्ति 
(गतांक के आगे)

नारद भक्ति सूत्र के  प्रसंग पर विस्तृत चर्चा छेडने से पहिले,
मेरे प्यारे स्वजनों,आप सबको,
दीपावली की हार्दिक शुभकामना 
संजोये यह भक्तिरचना सूना दूँ !
 नमामि अम्बे दी्न वत्सले 
रचना श्रद्द्धेया "मा योग शक्ति " की है 
धुन बनाई है छोटी बहन श्रीमती माधुरी चंद्रा ने 


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चलिेये  अब् प्रसंग विशेष पर चर्चा हो जाये 
प्रेम 
प्रेम मानवीय जीवन का आधार है ! प्रेम मानव ह्रदय की गुप्त निधि है ! जीव को यह निधि  उस ईश्वर ने ही दी है जिसने उसे यह मानव शरीर दिया है ! प्रेम का संबंध ह्रदय से है और ईश्वर ने मानव ह्रदय में ही प्रेम का स्रोत  स्थापित कर दिया है !

हृदय मानव शरीर का वह अवयव है जो उसके शरीर में उसके जन्म से लेकर देहावसान तक पल भर को भी  बिना रुके धड़क धडक कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता  रहता है ! 

मानव शरीर का दाता- 'ईश्वर' स्वयम प्रेम का अक्षय आगार हैं ! प्यारा प्रभु अपनी संतान - मानव के हृदय में भी इतना प्रेम भर देता है जो मानव के हृदय में आजीवन बना रहता है ! मानव का यह प्रेम बाँटने से घटता नहीं और बढ़ता ही जाता है !प्रेम के स्वरुप में ईश्वर स्वयम ही प्रत्येक प्राणी के हृदय में विराजमान है ! 

श्रीमद भगवद्गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि: 
ईश्वर :्सर्व  भूतानाम ृहृद्देशे  अर्जुन तिष्ठति !

"भक्ति" विषयक चर्चा में भगवान कपिल ने भी ,
अपनी 'माता" से कुछ ऐसा ही कहा था :   
"सब जीवधारियों के ह्रदयकमल ईश्वर के मंदिर है" 
(श्रीमद भागवत पुराण - स्क.३/ अध्या.३२ /श्लोक ११)

 श्री राम के परमभक्त गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा कि 
ईस्वर अंस जीव अविनासी ! चेतन अमल सहज सुखरासी !! 

जीव परमात्मा का अंश है अत स्वभावत : वह अपने अंशी सर्व व्यापक ईश्वर से मिलने के लिए आतुर रहता है !  जैसे नाले नदी की ओर और नदियाँ सागर की ओर स्वभावतः ही बहती जातीं हैंवैसे हीजीव भी अपने अंशी से मिलने के लिए सतत व्याकुल रहता है ! यही उसकी सर्वोपरि चाह है ! ईश्वर अंश मानव शिशु के समान जीव अपनी अंशी 'जननी मा ' के आंचल की शीतल छाया में प्रवेश पाने को  आजीवन मचलता रहता है ! 


कृष्णप्रेमी भक्त  संत रसखान ने इस संदर्भ में यह कहा कि " सच्चा प्रेम स्वयमेव 'हरिरूप' है और हरि 'प्रेमरूप' हैं" ! उनका मानना था कि " हरि और प्रेम" में किसी प्रकार का कोई तत्विक भेद नहीं है ! उन्होंने कहा था  


प्रेम हरी कौ रूप है , त्यों  हरि  प्रेम सरूप 
एक होय द्वै यों लसै ,ज्यों सूरज औ धूप
तथा   
कारज-कारन रूप यह 'प्रेम' अहै रसखान 


[ प्रियजन अपने पिछले ब्लॉग में प्रेमीभक्तों की नामावली पर जो तुकबंदी मैंने की थी उसमें रसखान का नाम मुझसे कैसे छूटा ,कह नहीं सकता ! सच तो ये है कि १४ वर्ष की अवस्था में  ही उनकी ," या लकुटी अरु कामरिया" और "छछिया भर छाछ पे नाच नचावें" वाले सवैयों ने मुझे, क्या कहूँ , क्या (पागल या दीवाना) बना दिया था ! मैं हर घड़ी उनकी ये प्रेम रस पगी सवैयाँ गुनगुनाता रहता था ! मेरी उस आशु तुकबंदी में अब रसखान भी शामिल हो गये हैं , देखिये -------

प्रेमदीवानी मीरा ,सहजो  मंजूकेशी
 यारी नानक सूर भगतनरसी औ  तुलसी , 
महाप्रभू,  रसखान प्रेम रंग माहि रंगे थे
परम प्रेम से भरे भक्ति रस पाग पगे थे
अंतहीन फेहरिस्त यार है उन संतों की 
प्रेमभक्ति से जिन्हें मिली शरणी चरणों की 
(भोला, अक्टूबर २१.२०१३) 

आदर्श गृहस्थ संत माननीय शिवदयाल जी ने फरमाया है 

वही रस है जहां प्रेम है ,प्रीति  है !  प्रेम जीवन का अद्भुत सुख है ! प्रेम हमारे ह्रदय की अंतरतम साधना है ! प्रेमी को तभी आनंद मिलता है जब उसका प्रेमास्पद से मिलन होता है ! अपने नानाश्री  अपने समय के मशहूर शायर मुंशी हुब्ब  लाल साहेब "राद" का एक शेर गुनगुनाकर वह फरमाते हैं : 

दिले माशूक में जो घर न हुआ तो ,मोहब्बत का कुछ असर न हुआ 

प्रेम लौकिक भी है और अलौकिक भी है ! जगत व्यवहार का प्रेम लौकिक है और प्यारे प्रभु से प्रेम पारमार्थिक है  ! 

पारमार्थिक परमप्रेम अनुभव गम्य है ,! यह उस मधुर मिठास का अहसास है जिसके अनुभव से प्रेमी अपना  अस्तित्व तक खो देता है ,उसकी गति मति निराली हो जाती है ! अनुभवी प्रेमी भक्त स्वयम कुछ बता नहीं सकता ! उसका व्यक्तित्व अन्य साधारण जनों से भिन्न हो जाता है ! उसका  रहन सहन , उसकी चालढाल , उसकी बातचीत स्वयम में उसकी भक्ति को प्रकट करते हैं इसी भावना से नारदजी ने यह सूत्र दिया कि भक्ति को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, वह अपने आप में स्वयं ही प्रत्यक्ष प्रमाण है  स्वयम प्रमाणत्वात  (ना.भ.सूत्र ५९)

परम प्रेम' अनिर्वचनीय है ! प्यारे स्वजनों , इस प्रेम का स्वरूप  शब्दों में बखाना नहीं जा सकता ! इस अनिर्वचनीय "परम प्रेम" से प्राप्त "आनंद" का भी वर्णन नहीं किया जा सकता ,वह भी अनिर्वचनीय है ! इस परमानंद को अनुभव करने वाले  की दशा वैसी होती है जैसी उस गूंगे की जो गुड खाकर परम प्रसन्न और अति आनंदित तो है लेकिन वह गुड के मधुर स्वाद का वर्णन शब्दों द्वारा नहीं कर सकता ,वह गूंगा जो है ! 

अनिर्वचनीयम्  प्रेम स्वरूपम्" - ( नारद भक्ति सूत्र - ५१ )
मूकास्वादनवत् - ( ना. भ. सूत्र  ५२ )

प्रीति की यह प्रतीति ही भक्ति है 

क्रमशः
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निवेदक :  व्ही , एन.  श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग :  श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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