सोमवार, 25 मार्च 2013

मीरा की होली

प्रेम दीवानी मीरा की होली

प्रियतम "गिरिधर" के रंग राती - मीरा
पंचरंगी चूनर से मुंह ढाके झिरर्मिट में होली खेलने जाती है और वहीं -
वोही झिरमिट में मिलो सांवरो खोल मिली तन गाती , सैयां
मै तो गिरिधर के रंग राती
मीरा बाई

समग्र मानवता को इस प्रेम-प्रीति-रस-रंग-भरी 
होली की हार्दिक बधाई  
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कुछ  "हंसगुल्ले"  भेज रहा  हूँ   देशवासियों   खाते  जाओ
होली के दिन खाकर इनको ,जन जन को यह बात बताओ 

मीरा गिरिधर हाथ बिकी थी ,"चोरन" हाथ बिके हैं हम सब 
बहुत गंवाया अब तक हमने ,  प्यारे अब कुछ नहीं गंवाओ


याद रखो कल क्या झेला था , झेल रहें हो किसे आज तुम 
"मा" "मु"  दोनों  सही नहीं हैं , कोई   नई    चेतना  लाओ  

कल - [भूतकालीन] 
कल तक जिसको स्वयम संवारा माया ने अपनी माया से 
गली  गली  में  स्थापित  कर  मूर्तिवन्त अपनी  काया से 

आज 
आज मुलायम पड़े मुलायम देखा जब 'सिबिआई डंडा' 
कमल हाथ में लें, या, अब वो लहरायें 'हथछ्पा'तिरंगा 

कल [भविष्य कालीन] 
कल  क्या  होगा यह तो सोंचो ओ  प्यारे लखनउआ वोटर     
'गज' 'दोपहिया' त्याग पियारे चढ़ जाओ उन्नति की मोटर 

उसको ही दो वोट,व्यक्ति जो हो सच्चा सेवक जनजन का            
हो  निष्काम  करे  जन सेवा और बने स्वामी जन-मन का 
उसको ही दो वोट ---- 
 
बकलम - व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला" [ कानपुरी ]


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गिरिधारी कृष्ण की होली 
मीराबाई के शब्दों में  

होली के दिन न गाऊँ , ऐसा तो हो ही नहीं सकता ! आपको सुनाना है ! उनका आदेश है ! जब तक जियो गाते जाओ ! सो गा रहा हूँ  मीरा की होली : बुड्ढातोता जैसा गा पायेगा , खांसते खूस्ते गाता रहेंगा - इसी बहाने "उनको" याद कर लेता हूँ  -
गिरिधारी कृष्ण की होली मीराबाई के शब्दों में  

होरी खेलत हैं गिरिधारी 
मुरली चंग बजत है न्यारो संग जुवति ब्रिज नारी 
होरी खेलत हैं गिरिधारी 

चन्दन केसर छिडकत मोहन ,अपने हाथ बिहारी ,
भर भर मूठ गुलाल लाल चहुँ  देत सबंन पर डारी
होरी खेलत हैं गिरिधारी



छैल छबीले नवल कांन्ह संग स्यामा प्रान पियारी 
गावत चारु  धमार राग तहं , दे  दे कल  करतारी
होरी खेलत हैं गिरिधारी 

फाग जु खेलत रसिक सांवरी बाढ्यो रस ब्रिज भारी 
मीरा को प्रभु गिरिधर मिलिया ,मोहनलाल बिहारी 
होरी खेलत हैं गिरिधारी

[मीरा ]

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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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शनिवार, 23 मार्च 2013

ग्रहस्थ संत शिवदयाल जी - भाग ४


गृहस्थ संत
संत के लक्षण :

यह सार्वभौमिक  सत्य है कि जीवात्मा में "संतत्व" के लक्षण निसर्ग से  विद्यमान होते हैं ! धरती पर आने के बाद सत्संग अथवा कुसंग के प्रभाव से जीव में धीरे धीरे उन सद या दुष् प्रवत्तियों का बाहुल्य हो जाता है जो उसे संगति से प्राप्त होती हैं !

सत्संग व्यक्ति को दैविक प्रवृत्तियां प्रदान करता है तो कुसंग उसे दानवीय प्रवत्तियों की ओर  प्रेरित करता है ! इसप्रकार जाने-अनजाने ही जीवन भर हमारे स्वभाव पर , हमारी मनोवृत्तियों पर , हमारी रूचि-अरुचि पर "संग" का प्रभाव पड़ता रहता है !  कहावत है "जैसा संग वैसा रंग" !

प्रभुकृपा ,सौभाग्य  एवं संस्कार वश प्राप्त "सत्संग'" द्वारा मनुष्य के मन में उसके निज विवेक के प्रकाश में दिव्य जीवन जीने की प्रवृत्ति जाग्रत होती है और  वह अपने जीवन में,"सहजता" से प्राप्त वस्तुओं ,परिस्थितिओं ,अवस्थाओं और व्यक्तियों का"सदुपयोग" करता है ! इस प्रकार वह संघर्ष के  दुर्गम शिखर लांघता हुआ सफलता की राह पर  आगे बढता रहता है !

उपरोक्त  नैसर्गिक विधि का लाभ सभी जीवों को मिल सकता है यदि वह इसमें के इन तीन शब्दों पर विशेष ध्यान दे - १. सत्संग , २.सहजता , ३. सदुपयोग

पिताश्री एवं पूर्वजों की पुन्यायी का लाभ सब जीवों को मिलता ही है और इसके साथ जुड़ जाता है जन्म जन्मांतर से संचित उसका अपना प्रारब्ध जो वह साथ लाता है !निसर्ग किसी को भी वंचित नहीं रखता उसके इस अधिकार से !

प्रियजन ,"मैं", [ मेरा यह शरीर नहीं ] ,जीवात्मा "मैं" और "आप"' - "हम सभी" इस धरती पर अपना अपना प्रारब्धीय खजाना लेकर आये हैं ! रुखसती के समय हमारे "पिता परमेश्वर"  ने हिसाब किताब बराबर करके हमे अच्छा खासा दहेज दिया है !  उस पूंजी को घटाना बढाना हमारे इस जन्म के कृत्यों पर अवलंबित है !

चर्चा चल रही है आदर्श गृहस्थ संत माननीय शिवदयाल जी की , तो सुनिए --

माननीय शिवदयाल जी की परम पावन जीवात्मा भी इस संसार में अपने सुसम्पन्न देबलोकीय मायके से भरपूर दहेज सहेज कर इस धरती पर अपने साथ लाई थी ! संतत्व के लक्षण इनकी वंशावली के  लगभग सभी पूर्वजो में अनेकों पीढ़ियों से विद्यमान थे ! इनके परदादा मुंशी हीरा लाल जी ने युवावस्था में अपना समृद्ध , भरा पूरा परिवार त्याग कर सन्यास ले लिया था ! सन्यासी परदादा को नाम मिला था - "रामशरण" !

इस संदर्भ में परिवार के एक अन्य विशिष्ट सदस्य जो वयस में माननीय शिवदयाल जी से छोटे थे ,और 'माननीय' को "गुरु-पितु -मात" सदृश्य मानते थे ,अपना देह त्यागने से कुछ समय पूर्व एक महत्वपूर्ण जानकारी दे गये ! उनके कथन का भावार्थ कुछ यूँ है -

"मैं अमृत बेला में "माननीय-------- " एवं स्वामी सत्यानन्द जी महाराज  के मानसिक  सानिध्य में श्री राम कृपा से ध्यानस्थ होता हूँ ! उस समय मुझे विचित्र अनुभूतियाँ होती है ! विपत्ति काल में जब मुझे सहायता की दरकार होती है ,ये दोनों गुरुजन मुझे मेरी ध्यानस्थ अवस्था में ही उचित परामर्श एवं मार्ग दर्शन दे जाते हैं ! एक अन्य अनुभूति भी मुझे होती है ! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे "माननीय ---------" के शरीर में परदादा सन्यासी "रामशरण जी" की ही आत्मा विराजमान है !"

देहावसान के लगभग ७-८ वर्ष पूर्व १९९६ में प्रथम हार्ट अटेक के बाद स्वस्थ होने पर "श्री शिवदयाल जी" ने अपने नाम के पहले "श्री राम शरण" लिखना प्रारम्भ कर दिया था !

शिवदयाल जी को विरासत में मिले  "संतत्व" का यह जीवंत प्रमाण है !

पूर्वजों से मिली विरासत में संतत्व के अतिरिक्त उन्हें मिले थे पिताश्री "परमेश्वर दयाल   जी" के सारे 'एसेस्ट्स' और उनकी सारी 'लाइबेलटीज़' !

चलिए अभी थोड़ी पिताश्री "परमेश्वर दयाल जी" की चर्चा हो जाए

प्लेग की महामारी में सब कुछ गवां कर यू.पी ,से विस्थापित होकर उनका  परिवार मुरार ग्वालियर में आ कर बसा था ! ऐसे में बेइंतहा मुश्किलें झेल कर परमेश्वर दयाल ने १९१६ में ,"हाईकोर्ट वकील" की परीक्षा पास की और २१ वर्ष की अवस्था में वहीं ग्वालियर में प्रेक्टिस प्रारंभ की ! गुरुआदेश  का पालन करते हुए उन्होंने शुरू में कुछ महीनों तक निःशुल्क जन सेवा की !

परमेश्वर पर परमेश्वर की अपार कृपा थी ! तीन चार वर्ष में ही उनकी वकालत चमक उठी और वह नगर " म्यूनिसिपल कमेटी" के "स्टेंडिंग कौंसिल" नियुक्त हुए ! शीघ्र ही वह "टाउन इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट"  के भी कौंसिल बने और  आजीवन उस पद पर आसीन रहें !

केवल २३ वर्ष वकालत करके ४३ वर्ष की अल्पायु में वह चल बसे ! इन २३ वर्षों में उन्होंने "विधि" [ कानून ] के क्षेत्र में जो कुछ किया काबिले तारीफ़ है ! कहते हैं उनकी केस की तय्यारी इतनी जबरदस्त होती थी कि विपक्षी वकील भी इनका लोहा मान जाते थे और अक्सर माननीय न्यायाधीश भी खुल कर सरेआम उनकी सराहना करते थे तथा अन्य वकीलों को उनका अनुकरण करने की सलाह देते थे !

देहावसान से कुछ दिन पहले वही सलाह परमेश्वर दयाल जी ने  अपने पुत्र शिवदयाल को एक पर्चे पर लिख कर दी ! उन दिनों नये वकील शिवदयाल अपना पहला केस जीतने की तैयारी कर रहें थे !  पर्ची पर लिखा था :-

You must so prepare and present a case that :
1. You win the case 
2. You win your client
3. You win the Hon. Court
4. You win the opposing counsel -- and 
5. You win yourself 

विधि के क्षेत्र में उनकी अन्य महती उपलब्धियों का वर्णन अगले अंक में  !
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क्रमशः 
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निवेदक : व्ही.  एन.  श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : समस्त राम परिवार 
एवं विशेष सहयोग :
श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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रविवार, 17 मार्च 2013

संत स्वभाव गहौंगो - माननीय शिवदयाल जी [भाग ३]


कबहुक हौं यह रहनि रहौंगो ?
कबहुक संत स्वभाव गहौंगो ?
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जीवन का उपरोक्त उद्देश्य प्रति पल याद रखने वाले आदर्श गृहस्थ संत 
"माननीय शिवदयाल जी" 
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२८ फरवरी के प्रातः तुलसी के इस पद ने ही क्यों मुझे झकझोरा ? यह पद जिसे मैंने पहले कभी नहीं गाया था , यह पद, जिसकी प्रथम पंक्ति के अलावा मुझे और कोई पंक्ति याद नहीं थी ! और हाँ ,यह पंक्ति भी मुझे किसी एक विशेष धुन के साथ याद आई ? क्यूँ ?

मेरा निजी अनुमान है कि उस प्रातः कदाचित [ ? ] ,"परमधाम" में विराजित हमारे प्यारे "प्रभु" की इच्छापूर्ति हेतु ,"उनके" ही आदेशानुसार सुषुप्ति में मुझे इस पद विशेष को, गाने की प्रेरणा हुई ! परन्तु जैसा मैं कह चुका हूँ , मेरे पास उस पद की स्थायी  के आलावा  उसके आगे के शब्द थे ही नहीं ! कैसे करूं "उनकी" इच्छा पूर्ति ?  मैं बेचैन था !

ऐसे में "उनकी"  कृपाजंनित चमत्कार का दूसरा झोंका आया और  अकस्मात ही  उस पद के शेष शब्द भी नाटकीय ढंग से सहसा मेरे सन्मुख प्रगट हो गये !


प्रियजन , विश्वास कीजिए हमारे "प्यारे प्रभु" जिस जीव से जो कृत्य विशेष करवाना चाहते हैं , जिस कवि से जो लिखवाना चाहते हैं , जिस संगीतज्ञ से जो सुनना चाहते हैं , जिस वैज्ञानिक से जो अनुसंधान करवाना चाहते हैं उसकी प्रेरणा "वह"उस जीव को यथा समय  दे देते हैं !

हमने आध्यात्मिक गुरुजनों से यह बात सुनी  है कि ऎसी प्रेरणाएँ अक्सर मध्य रात्रि की गहन शांति में अवतरित होती हैं !  मुझे महापुरुषों के इस कथन की सत्यता का निज- अनुभव भी है  ! प्रियजन , अपने इस जीवन में जो थोड़े से भजनों की शब्द एवं स्वररचना मैने की है  वो ऎसी ही "दिव्य प्रेरणाओं" से सम्भव हुई  है !

कुछ अन्य नामीगिरामी शायरों , मौशीकारों -स्वर शिल्पियों ने भी मुझसे इस कथन की सच्चाई क़ुबूल की है !




संगीत निर्देशक 'नौशाद साहेब' एवं उनकी बेगम साहिबा 
१९८३-८४ में कानपुर में निवेदक "भोला" के स्थान पर   


अपने अनुभव बताते हुए "नौशाद साहेब" ने मुझे  बताया था कि उनकी मशहूर संगीत रचना "प्यार किया तो डरना क्या" की "धुन" सहसा ऐसी ही ईश्वरीय प्रेरणा से बनी थी !

एक भेंट में ,प्रसिद्द संगीत निर्देशक श्री चितलकर रामचन्द्र जी ने भी मुझे बताया था कि उनकी सुप्रसिद्ध रचना "तन डोले मेरा मन डोले" की धुन भी इसी तरह की प्रेरणा के प्रसादस्वरूप उन्हें  मिली थी ! उन्होंने बताया कि हफ्तों प्रयास करने पर भी जब वह इस गीत की कोई "लोकप्रिय" धुन  न बना सके तो निराश होकर वह प्रोड्यूसर को ये गीत लौटाने के लिए अपने घर से निकले ! तभी कार का इंजन चालू करते ही,बिजली की तरह उनके जहन में उस गीत की वर्तमान "हिट" धुन कौंध गई और जब यह धुन उन्होंने अपने प्रोड्यूसर को गाकर सूनायी  , तो फिर क्या कहने थे , वाह वाह की झडी लग गई थी ! आपको याद ही होगा कि यह गीत कितना लोकप्रिय हुआ था !  

एक मजेदार बात बताऊँ, इस गाने के रिलीज होने के दस पन्द्रह वर्ष बाद तक नये नये " दूल्हे " मंडप से बिन ब्याहे ,उठ कर चल देते थे यदि उनकी सालियाँ उन्हें इस गीत पर नृत्य करके नहीं दिखाती थीं  !   [ मेरे जमाने की बात है , स्वजनों थोड़ा  हंसिये तो ]

आप को एक और बात बताऊँ , ये दोनों ही संगीतकार परम आस्थावान थे !अपने अपने इष्ट देवों पर दोनों को ही अटूट श्रद्धा थी , और  वे उन के प्रति पूर्णतः समर्पित थे ! आपने सुना ही है कि उनके इष्टदेवों ने किस तरह ,यथा समय उपस्थित होकर उनकी मदद की ! 


हमारे श्रद्धेय "बाबू" ,माननीय शिवदयाल जी के "संतत्व" की चर्चा चल रही थी और उस संदर्भ में तुलसी के इस पद "कबहुक हौं यह रहनि रहौंगो " का उल्लेख आया था ! प्रश्न उठा था कि  उनकी  जयंती पर २८ फरवरी को ही क्यूँ  मुझे इस भजन विशेष के गाने की प्रेरणा हुई थी और मैंने उस समय यह अनुमान लगाया था कि कदाचित वह "हरि इच्छा" से हुआ होगा ! परन्तु शायद मेरा अनुमान पूर्णतःसही नहीं था ! 

इस संदर्भ में हमारे श्री रामपरिवार के एक महत्वपूर्ण सदस्य , हम सब के अतिशय प्रिय , श्रद्धेय बाबू के चरण - अनुगामी  उनके पुत्र ----ने ,मेरे उस आलेख पर कमेन्ट करते हुए मेरे पास ई मेल द्वारा निम्नांकित जानकारी दी है :  

विनय पत्रिका के जिस भजन का आपने आज उल्लेख किया है वह पूज्य बाबूजी के अत्यंत प्रिय भजनों में से एक थाआपको शायद पता हो कि यही एक हस्तलिखित पद था जिसे फ्रेम कराके बाबूजी ने जबलपुर से ही पूजा मंदिर में रखा था।

मेरी समझ से, वे आदर्श भक्त के आचार-विचार-रहनी को जीने का ध्येय बना चुके थे अत: प्रति पल अपना उद्देश्य स्मरण रखने का उनका यह विलक्षण तरीका था। कोई और भजन या पद फ्रेम कराके बाबूजी ने पूजा में नहीं रखा था। 

-------------- सर्वविदित है, पूज्य बाबूजी ने 1952 में परमपूज्य स्वामी सत्यानंदजी महाराज से अधिष्ठान प्राप्त करने पर,उसी दिन अपने घर नरसिंह  बाड़े, दाल बाज़ार, लश्कर, ग्वालियर  के पूजा कक्ष  में पधराया था। हमारा परम सौभाग्य है कि हमारे ----- पूजा मंदिर को वही अधिष्ठान सुशोभित कर रहा है। ----------------------

पाठकगण , ई मेल मिलने पर मैंने प्रियवर --- से फोन पर बात की ! उन्होंने बताया कि वह भजन अयोध्याजी के गोसाईं संत सीतारामसरन जी महाराज ने ५० - ६० वर्ष पूर्व कभी, ग्वालियर अथवा जबलपुर के घर के सत्संग में गाया था ! 

ग्वालियर वाले प्रवचन में तो मैं भी था और मुझे ठीक से याद है कि स्वामी जी का कोई एक भजन सुनकर आनंदरस में सराबोर मेरी आँखें भर आईं थी और स्वामी जी ने एक पीला ,जोगिया रंग का रुमाल मेरे ऊपर फेंका था ! वह कौन सा भजन था ,अब यह मुझे याद नहीं ! परन्तु हो सकता है कि वह तुलसी का यही पद हो :

कबहुक हों यह रहनि रहौंगो 
श्री रघुनाथ कृपालु कृपा सौं संत स्वभाव गहौंगो 

ऐसा लगता है जैसे निवेदक दासानुदास को 'पथभ्रष्ट' होते देख,
"परम कृपालु परमेश्वर" ने तथा ब्रह्मलोक में उपस्थित 
दास "भोला"के सब शुभचिंतकों एवं गुरुजनों ने २८ फरवरी के प्रातः 
उसपर अति कृपा करके ,उसे इस पद विशेष की याद दिलाई  
और " संत स्वभाव ग्रहण " कर कल्याण पथ पर अग्रसर होने का निदेश दिया !

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निवेदक : व्ही. एन.  श्रीवास्तव  "भोला"
सहयोग :  श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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शुक्रवार, 15 मार्च 2013

मार्च १५ , २०१३ 
परम श्रद्धेय 
गुरुदेव डॉक्टर विश्वामित्र महाजन जी की जयंती 
के शुभ दिन सब साधकों को
 हार्दिक बधाई 
आज के दिन मेरी यह प्रार्थना है 
हे गुरुदेव  
मेरा यह गर्व भरा मस्तक गुरुदेव ,चरण तक झुकने दो
हे नाथ मिटादो अहम और मन में मत दुर्गुण बसने दो

मुझको चरणों तक झुकने दो 
कोटिश नमन 
हे गुरुदेव 


मेरे राम !


हम नतमस्तक रहें निरंतर गुरु चरणों पर 
 सर्व शक्तिमय 'राम',हमे दो केवल यह वर
[ प्रार्थी दासानुदास "भोला" व्ही .एन. श्रीवास्तव ]
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आज पुनः गा रहा हूँ  ,
गुरु चरनन में ध्यान लगाऊँ ऐसी सुमति हमे दो दाता
महाराज जी को यह भजन बहुत प्रिय था 
मुझसे मेरा यह भजन सुनकर उन्होंने स्वामी जी महाराज के
वरदश्री चरणों का चित्र मुझे दिया था 
सुने अवश्य
-------------  

गुरु चरनन में ध्यान लगाऊँ ऐसी सुमति हमे दो दाता

मैं अधमाधम पतित पुरातन किस विधि भव सागर तर  पाऊँ 
 ऐसी दृष्टि हमे दो दाता, खेवनहार गुरु को मैं पाऊँ 
 गुरु चरनन में ध्यान लगाऊँ  

गुरुपद नख की दिव्य ज्योति से निज अंतर का तिमिर मिटाऊँ
  गुरु पद पदम पराग धूल से आपना मन निरमल कर पाऊँ     
 गुरु चरनन में ध्यान लगाऊँ 




गुरु चरनन में ध्यान लगाऊँ 
शंखनाद सुन जीवन रण का धर्मयुद्ध में मैं लग जाऊँ 
 गुरुपद रज अंजन आँखिन भर ,विश्वरूप हरि को लख पाऊँ 
 गुरु चरनन में ध्यान लगाऊँ 

भटके नहीं कहीं मन मेरा, आँख मूंद जब उनको ध्याऊँ 
पीत गुलाबी शिशु से कोमल ,गुरु के चरन कमल लख पाऊँ 
गुरु चरनन में ध्यान लगाऊँ 
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[ शब्दकार स्वरकार गायक : व्ही.एन. श्रीवास्तव "भोला"]
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निवेदक: व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला" 
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
ब्रूक्लाइन - [एम्.ए ] यू.एस.ए 
मार्च १५,२०१३ 
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रविवार, 10 मार्च 2013


ओम नमः शिवाय
महा शिवरात्रि की हार्दिक बधाई स्वीकारें 


"शिव" 

मंगलमय   मंगलप्रद   ,   महामोद  के  रूप  !
महामहिमामय  हे  शिव , तेजोमय  ,स्वरुप  !!

हे शंकर शुभ शांतिमय  , सब  के  शरणाधार  !
स्रोत   श्रुति  आदेश  के  , परम  पुरुष सुखकार !!

दीनदयालु   दयानिधे  ,    दाता   परम  उदार  !  
सब  देवों  के  देव  हे  ,   दुःख  दोष  से   पार   !!

   शांत शरण  शिव रूप तू , परम शान्ति के स्थान !
   शंकर  आश्रय  दे  शुभ  ,   शरणागत  जन  जान !!

"भक्ति -प्रकाश"                
 रचयिता: सद्गुरु स्वामी सत्यानान्द्जी  महाराज  



महामहिमामय  देवों के देव महादेव  का स्वरूप तेजोमय और कल्याणकारी है ! "शिव"    शंकर का शब्दार्थ है " कल्याण" ! "महाशिवरात्रि" महा कल्याणकारी रात्रि है ;एक विशेष रात्रि  जो एकमात्र सौरमंडल के लिये ही नही अपितु समग्र जीव जगत के लिए मंगलप्रद है

महापुरुषों का कथन है कि जीवों के परमाधार 'परमेश्वर'  के  कृपा स्वरुप का नाम "श्री राम "है , उनके प्रेम स्वरुप का  नाम  "श्री कृष्ण"  हैं , उनके "वात्सल्य स्वरुप"  " आदि शक्ति माँ जगदम्बा" हैं तथा 'वैराग्य  स्वरुप' भगवान  शिव है !  उनके गुण , स्वभाव और  क्रिया -कलाप के कारण श्रद्धालु  भक्तजन  शिव , शंकर , भोला , महादेव  , नीलकंठ , नटराज , त्रिपुरारी , अर्धनारीश्वर , विश्वनाथ , आदि अनेकानेक  नामों से उनका नमन  करते है !

धर्माचार्यों ने "ओंकार" के मूल , विभु , व्यापक , तुरीय  शिव के  निराकार ब्रह्म स्वरूप को एक अनूठा साकार स्वरूप दिया है ;  जिसमें उन्हें अलौकिक वेशभूषा  से सुसज्जित किया है ! उनके  शरीर  को भस्म से विभूषित  किया है , उनके गले में सर्प और  रुंड मुंड की माला डाली है , उनके जटाजूट में पतित पावनी "गंगधारा" को विश्राम प्रदान किया है  , उनके भाल  को दूज के चाँद से अलंकृत किया है !  एक हाथ से डम डम डमरू बजाते तथा दूसरे में त्रिशूल लहराते "शिव शंकर"  कभी ललितकला सम्राट नटराज , तो कभी पापियों के संहारक , कभी  तांडव नृत्य की लीला से प्रलयंकारी तो कभी भक्त को मन मांगा वरदान देने वाले औघडदानी लगते हैं ! अपने सभी स्वरूपों में वह वन्दनीय हैं !

संत तुलसीदास   की अनुभूति में 'शिव" ऐसे देव हैं जो अमंगल वेशधारी  होते हुए  मंगल की राशि है ; महाकाल के भी काल  होते हुए करुणासागर हैं ,

प्रभु समरथ सर्वग्य  सिव सकल कला गुन धाम !
जोग  ज्ञान  वैराग्य   निधि  प्रनत कल्पतरु नाम !!

शिव समर्थ,सर्वग्य,और कल्याणस्वरूप ,सर्व कलाओं और सर्व गुणों के आगार हैं , योग , ज्ञान तथा वैराग्य के भंडार हैं , करुणानिधि हैं, कल्पतरु की भांति  शरणागतों कों वरदान देने वाले औघड़दानी हैं !

जय शिव शंकर औघड दानी , विश्वनाथ विश्वम्भर स्वामी 
जय शिव शंकर औघड दानी 

सकल सृष्टि  के सिरजन हारे , पालक रक्षक अरु संहारी 
जय शिव शंकर औघड दानी 

हिम आसन त्रिपुरारी बिराजे , बाम अंग गिरिजा महारानी !
जय शिव शंकर औघड दानी 

औरन को निज धाम देत हो , हमते करते आनाकानी !
जय शिव शंकर औघड दानी 

सब दुखियन पर कृपा करत हो,हमरी सुधि काहे बिसरानी !
जय शिव शंकर औघड दानी 


[ शब्दकार स्वरकार गायक - "भोला"]

देवों के देव महादेव की करुणा ; कृपा तथा दानवीरता  के अनगिनत दृष्टांत पौराणिक ग्रंथों  में मिलते  हैं ! "शिव" के भोलेपन को दर्शाता  एक लोकप्रिय आख्यान है उस तुच्छ चोर का , जो शिवलिंग पर लटकती ताम्बे की गंगाजली चुराने के लिए शिवलिंग पर ही चढ़ गया !"भोले" "शिव शंकर",यह सोच कर कि इस श्रद्धालु भक्त ने तो स्वयम को ही उन्हें   समर्पित कर दिया है ,उस चोर पर  इतना रीझे कि उन्होंने उसे उसी क्षण दर्शन दे दिए और उसको मुंह मांगा वरदान भी  दिया ! ऐसे औघड दानी हैं ये "शिव"!

शास्त्रों के अनुसार महा शिवरात्रि  शम्भु-पार्वती के  मांगलिक विवाह का पर्व है ! इसे  श्रद्धालुजन अति  उमंग से व्रत उपवास रख कर , भजन कीर्तन करते  हुए मनाते हैं !

महाशिवरात्रि  का पर्व  हमें यही प्रेरणा देता है कि हम अपने निज स्वरुप को पहचान कर , त्याग , तपस्या  एवं वैराग्य  का जीवन जियें ! प्रेम ,करुणा  और सत्य को अपनाएं !  हम जन जीवन के कल्याण  का शुभ संकल्प  लें !  दैनिक जीवन की कटुता वैमनस्यता और प्रतिकूलता के हलाहल  को "शिव" की भांति पान  करें और आनंद , शान्ति  एवं सुख का "अमृत"  समाज के सुयोग्य व्यक्तियों में वितरित करें ! 

प्रियजन , कैलासनिवासी दिगम्बर शिव का परिवार एक आदर्श गृहस्थ परिवार है ! आज की दुनिया में भी जिस परिवार  का स्वामी "शिव" समान हो  , गृहणी पार्वती सी हो और संतान कार्तिकेय के समान पुरुषार्थी और गणेश के समान विवेकी हो वही परिवार आदर्श गृहस्थ परिवार कहाएगा !

प्रियजन , वह  परिवार जिसके सदस्यों में परस्पर प्रीति , विश्वास और एक दूसरे के प्रति  श्रद्धा है  और जो सभी पुरुषार्थी और विवेकी हैं  उस परिवार को ही प्रसन्नता , सम्पन्नता तथा आत्मिक शान्ति का प्रसाद मिलता है  !

महा शिवरात्रि  के पावन पर्व पर अपने परिवार के "शिव" , सब के अतिशय प्रिय ,  कृष्णा जी और मेरे परमश्रद्धेय "बाबू" की प्रेरणाप्रद स्मृति  हमे उनकी "धर्म निष्ठा" ; उनकी 'कर्तव्य परायणता' तथा उनके "समग्र सद्गुणों" को अपनाने का सुझाव दे रही है !

संत मत

भारत भूमि के अनेक सिद्ध संत महात्माओं ने श्रद्धेय बाबू के उपरोक्त गुणों के कारण उनकी भूरि भूरि प्रशंसा  की , उन्हें सराहा  !  जो भी सिद्ध साधू संत  उनके संपर्क में  आये उन्होंने "शिवदयाल जी" को एक उच्च कोटि का साधक और "गृहस्थ संत" ही माना !

परमार्थ निकेतन ऋषिकेश   के "मुनि महाराज" श्री १०८ स्वामी चिदानन्दजी  ने उनके आदर्श गार्हस्थ जीवन के विषय में कहा --

"बाबूजी एक कुटुंब वत्सल गृहस्थ होकर भी सच्चे  विरागी संत थे ! निष्काम कर्मयोगी थे !  उनका प्रत्येक कर्म परमार्थ के लिए एवं अंतःकरण शुद्धि के लिए था ! भगवत गीता का सार उन्होंने "नाम जपता रहूं , काम करता रहूं " के सूत्र में अनुवादित किया  और इसे जीवन जीने का मंत्र बनाया !"

एक ज्योति जो जीवन पर्यंत तेज और प्रकाश बिखेरती रही
जो बुझ कर भी सुगंध दे रही है !

क्रमशः 
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निवेदक: वही.  एन.  श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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शुक्रवार, 8 मार्च 2013

गृहस्थ संत - [ भाग २ ] - मार्च ६ , २०१३

श्रेष्ठतम गृहस्थ संत
हमारे ''बाबू" 
"माननीय शिवदयाल जी"
 श्री राम परिवार के आदर्श - मार्गदर्शक
जिन्होंने अपने सिद्धांतों को निज आचरण से चरितार्थ किया


नित्यप्रति अपने चेम्बर में आने से पहले और हाई कोर्ट से निकलने पर ,सर्व प्रथम
श्री हनुमान जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते
माननीय श्री शिवदयाल जी  

चंद पाठकों के मन में प्रश्न उठा है कि मैंने अपने ब्लॉग ,"महाबीर बिनवौ हनुमाना"  में यह निजी प्रसंग क्यूँ उठाया है  ? अस्तु स्पष्ट करदूं कि इसमें न तो पवनपुत्र श्री "महाबीर जी" का कोई स्वार्थ है ,न दिवंगत जस्टिस शिवदयाल जी का और न मेरा ही ! यकीन करें  दिखावे का  'परहित' करके कुछ पुण्य कमाने की लालच में भी हम यह जद्दोजहद नहीं कर रहे हैं !

बन्धुजनों , आपको कितनी बार बता चुका हूँ कि मुझसे , जो कुछ "वह ऊपरवाले" करवाते हैं,वही करता हूँ ! अपनी निजी कोई क्षमता नहीं है मुझमे !"उनकी" प्रेरणा ही मूल स्रोत है!
प्रियजन "उनकी" इच्छा से ही मेरी [मेरी ही क्यूँ , आप सब की भी] रसोई में प्रसाद पकता है ! प्रियजन ,उस प्रसाद में जो कुछ मुझे सबसे अच्छा लगता है मैं बड़े शौक से उसे अपने स्वजनों को खिलाना चाहता हूँ ! यह मेरा जन्मजात स्वभाव है ! मैं यही कह सकता हूँ कि "जिन्हें भाये ,स्वीकारें , न भाये तो छोड दें "!

चलिए ,गृहस्थ संत की कथा आगे बढाएं ----

२८ फरवरी की प्रातः कृष्णा जी अपने निश्चित कार्यक्रम के अनुसार  ५ बजे से ही अपनी साधना में जुटी थीं ! मेरे अधजगे कानों में रोज की तरह उनकी दैनिक प्रार्थना के शब्द श्री अमृतवाणी का गायन ,"भक्ति प्रकाश" का पाठ और अंत में 'राम' धुन' के अस्पष्ट बोल रह रह कर पड़ रहे थे !

प्रियजन , मैं उतनी सुबह नहीं उठ पाता ! बात यह है कि अनेक  कारणों से मैं अक्सर रात भर लगभग जगा ही रहता हूँ ! प्रात ३ - ४ बजे के बाद ही मुझे नींद आती है ! सुबह सात बजे के बाद ही मैं बिस्तर छोड़ता हूँ !

हा तो उस २८ फरवरी के प्रातः जाग खुलने पर ,बिस्तर पर लेटे लेटे ही मुझे  संत तुलसी दास  जी का एक पद  याद आने लगा ! मैंने वह पद पहले सुना अवश्य था परन्तु स्वयम कभी गाया नहीं था !  न जाने क्यूँ उस पद की स्थायी के बोल मुझे बार बार झकझोर रहें थे और मेरा मन कर रहा था कि मैं उसे गाऊँ ! -

लेकिन प्रश्न यह था कि गाऊँ तो कैसे गाऊँ ! उस पद के शेष शब्द [बोल] मुझे मालूम ही नहीं थे ! कहाँ खोजूँ मैं उन्हें ? यहाँ अमेरिका में कृष्णा जी की लाइब्रेरी में  "राम चरित मांनस"  तो है परन्तु "तुलसीदास"  के अन्य ग्रन्थ - गीतावली, कवितावली  अथवा  विनयपत्रिका  उपलब्ध नहीं है !

मैं अभी इस उधेड़ बुन में ही था कि अचानक एक चमत्कार हुआ ! फुटकर भजनों की एक पुस्तक खोलते ही मेरी दृष्टि जिस पहले भजन पर पडी , वो वही भजन विशेष था जिसकी   खोज मैं इतनी तत्परता से कर रहा था  ! उस भजन का अकस्मात मिल जाना , मेरे लिए मेरे "आका"- "मेरे प्यारे प्रभु" का संदेश था ! "वह" सुनना चाहते हैं , मैं सुनाउंगा , मैंने निश्चित कर लिया !

विश्वास करिये मेरे अतिशय प्रिय स्वजन ,अपने प्रेमी साधक से जब उसका 'आराध्य देव'  उसका "प्यारा प्रभु " कुछ सुनना चाहता हैं ,"वह" उसे स्पष्ट संकेत देता  हैं ! शब्दों और स्वरों की गंगा-यमुनी धार उस साधक को सराबोर कर देती हैं ! आनंदाश्रु बहाता साधक गाता है ,और उसका "प्यारा" 'सूर' के 'गोपाल' और 'मीरा' के 'गिरिधर नागर'  के समान साधक के अंग संग बैठा हौले हौले मुस्कुराता हुआ ,तन्मयता से भजन सुनता रहता है !

स्वजनों यह कपोल कल्पना नहीं है ! यह मेरा निजी अनुभव भी है ! बी.एच.यू. में ,संगीत मार्तंन्ड  ठाकुर ओमकार नाथ जी से "मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो " सुनकर तथा वर्षों पूर्व  पंडित भीमसेन जोशी से "जो भजे हरि को सदा सो परम पद पायेगा " सुनकर और यहाँ यू.एस.ए. में पंडित जसराज जी से केवल "ओंकार नाद" सुन कर ही मंत्र मुग्ध हजारों श्रोताओं के साथ मैं भी रोमांचित हुआ हूँ , मेरी भी आँखें डबडबाई है मुझे भी अपने प्यारे प्रियतम का सानिध्य महसूस हुआ है !---

आप ठीक सोच रहे हैं , भटक जाता हूँ मैं ! आपको सब कुछ बता देने के प्रयास में !

मुझे भी शब्द मिले, स्वर भी मिले और अति अस्वस्थ होते हुए भी मैंने अपने "प्यारे" को निराश नहीं किया !  बीच में कितनी ही बार खांसी आई , कंठ अवरुद्ध हुआ फिर भी मैं रुका नहीं ,  "उन्हें" सुनाता रहा !"उनसे" प्रार्थना करता रहा कि  "वह" मुझे भी , अधिक नहीं तनिक सा ही " संत स्वभाव " प्रदान करें !

मेरे राम 
मेरे ऊपर कब कृपा करोगे ? कब मुझे "संत स्वभाव " से नवाजो गे ?

कबहुक हौं यह रहनी रहौंगो 
"श्री रघुनाथ कृपालु कृपा सों संत स्वभाव गहोंगो "



कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो ?
श्री   रघुनाथ-कृपालु-कृपा  , ते  संत   स्वभाव  गहौंगो !!

When shall I , by the Grace of the Lord start leading a SAINTLY life?

जथा  लाभ  संतोस  सदा ,   काहूसों  कछु  न  चहौंगो !
परहित निरत निरंतर मन क्रम वचन नेम निबहौंगो !!
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो ?

When shall I be happy with what I possess and stop begging?
When shall I be empowered to serve others wholeheartedly?

परुष  वचन अति  दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न जरौंग !
बिगत-मान  सम सीतल  मन पर-गुन , नहिं दोष कहौंगो!
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो ?

When shall I learn to ignore others' insulting remarks, 
 get rid of  my EGO , and ignore others' fault to appreciate their goodness?

परिहरि  देह   जनित  चिंता ,  दुःख-सुख   समबुद्धि   सहौंगो  
तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि , अविचल हरि-भगति  लहौंगो 
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो ? 

When shall I stop worrying about my physical self and not lose my  
equanimity in happiness or sorrow?
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Finally  Tulsidas says , 
" ONLY by treading  the holy path paved  by great SAINTS , 
one can become a TRUE DEVOTEE "
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क्षमा प्रार्थी हूँ , इंटरनेट में कुछ गडबडी के कारण .गाड़ी आगे नहीं बढ़ पा रही है 
[क्रमशः]
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निवेदक : वही. एन.  श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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रविवार, 3 मार्च 2013

गृहस्थ संत - [भाग- १] - फरवरी २८,'१३

प्रातः स्मरणीय 
श्रेष्ठतम  गृहस्थ संत
भूतपूर्व चीफ जस्टिस ,मध्य प्रदेश , हाई कोर्ट
,


माननीय शिवदयाल परमेश्वरदयाल श्रीवास्तव
[जन्म - फरवरी २८, १९१६ ]++[ निर्वाण - अक्टूबर १, २००३ ]
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                "कोई सुनके मुझको करेगा क्या ? मैं नहीं हूँ नग्म्ये जा फिजा"

बहादुर शाह 'जफर' साहेब मरहूम ने कभी ये कहा था  लेकिन इसके बाद भी उन्होंने अपनी कलम चालू रखी ! वो लिखते रहे, लोगबाग सुनते रहें और आज डेढ़ दो सौ वर्षों बाद भी जमाना उनके कलाम सराह सराह के गुनगुनाता रहता 'है !

मेरे प्यारे पाठकगण ,मानता हूँ थोड़ा बेसुरा हो गया हूँ फिर भी चुप नहीं रहूँगा ! सुनाता ही जाउंगा !  अहंकार से वशीभूत होकर नहीं , प्रियजन ,कहूँगा इसलिए कि जो कहने जा रहा हूँ वह मेरे जीवन का सबसे अनमोल सत्य है , मेरा एक अविस्मरणीय  अनुभव है ! यह मेरे जीवन की उस सत्य अनुभूति की कहानी है -जिसने मेरे जैसे 'लौह खंड' को "सुवर्ण" में परिवर्तित कर दिया ! आत्म कथा द्वारा अपने प्रिय स्वजनों को यह बताना ही मेरा उद्देश्य था  और आज भी है ! अस्तु  सुनिये --

'बनारस हिंदु  विश्व विद्यालय' के 'कोलेज ऑफ टेक्नोलोजी' से स्नातक की डिग्री प्राप्त कर , 'टेक्सटाईल मिलों' के शहर 'कानपुर' की  एक सरकारी 'आयुध निर्माणी' [ऑर्डिनेंस फैक्टरी'] में 'नोंन गजेटेड ऑफिसर अंडर ट्रेनिंग' नियुक्त हुआ !

कदाचित अपने जन्मजात सस्कारों और स्वभाव के कारण हम चारों भाई बहनों को हमारे  कुछ मित्र और सम्बन्धी 'गन्धर्व' कह कर पुकारते थे ! आस पास के कुछ प्रबुद्ध जन पिता श्री द्वारा बनवाए , हमारे घर , 'लाल विला' को "गन्धर्व लोक" कहा करते थे !  क्यूँ ? प्रातः सूर्योदय के पहले ही उस घर की प्राचीरें तानपूरे की झंकार से गूँज उठती थी और भैरवी के दिव्य स्वर से मोहल्ले का वातावरण तरंगित हो जाता था ! दिसम्बर जनवरी की भयंकर ठंढ में भी पड़ोसियों के खिडकी दरवाजे खुल जाते थे - वे कांन लगाकर  अति श्रद्धा से हम चारों के  भजन  - ["जागो बंशीवारे ललना , जागो मोरे प्यारे" आदि ] सुनते थे और इसी बोल को दुहरा कर अपने लल्ला लल्ली को जगाते थे !

हाँ तो इन संस्कारों से युक्त और ऐसे स्वभाव वाला मैं , सप्ताह के छः दिवस ,प्रात ७ बजे से शाम के ५ बजे तक उस आयुध निर्माणी की ऊंची ऊंची दीवारों के पीछे , फौजियों के लिए 'आर्मी बूट' बनाने और उन बूट्स के लिए , गाय भैंस की कच्ची 'खालों' [hides and skins] का शोधन  [Tanning] करवाकर , उनसे  'चमडा'  [leather] बनवाने के काम में व्यस्त रहने लगा !

सोंचा था क्या , क्या हो गया ? आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास ! सोच यह थी  कि ऑयल [तेल] टेक्नोलोजी पढ़ी है , डिग्री लेने के बाद , "केंथाराय्दीन" जैसा खुशबूदार हेयर आयल और "पियर्स" जैसा ट्रांसपेरेंट बाथ सोप बनाने का कारखाना लगाएंगे !  पर  हुआ यह , कि चमड़ा पकाना पड़ा !

२०-२५ वर्ष की छोटी अवस्था में मैं कानपुर के प्रथम संगीत विद्यालय [ College of Music and Fine Arts] के संस्थापक मंडल में रहा जहाँ [तब १९५०-६० के दशक में] पंडित रवि शंकर जी , श्री पुरुषोत्तम दास जलोटा जी , श्री विद्या नाथ सेठ जी , तथा बेगम अख्तर साहिबा आदि अनेको गण्यमान विशिष्ट संगीतज्ञों के साथ बैठने का सौभाग्य मिला और उनका स्नेहाशीर्वाद प्राप्त हुआ !

और फिर उपरोक्त लोकोक्ति चरितार्थ करने के लिए मैं ,हरि भजन के स्थान पर " कपास ओटने लगा" ! --- आयल टेक्नोलोजिस्ट् , संगीतनिदेशक - सिने कलाकार - बनने का स्वप्न संजोये "भोला"  , बंन गया "रैदास"! ! रोज़ी रोटी कमाने के लिए "भोला" पकाने लगा चमड़ा !"

कुछ निकटतम सम्बन्धी ताने भी मारने लगे, " इनके पिताश्री अपने व्यापार में ,बाहर से १०० सवा सौ रूपये के मेट्रिक पास कर्मचारी नियुक्त करते  हैं और ये यूनिवर्सिटी ग्रेजुएट भोला बाबु , ८५ रूपये वाली सरकारी  गुलामी कर रहें हैं ,वो भी एक चमड़े के कारखाने में

ऐसे में उन दिनों मेरी मनः स्थिति कैसी होगी , आप समझदार हैं ,ज़रूर ही अंदाजा लगा सकते हैं ! बंधू ,कभी कभी जी में आता था कि मैं भी अर्जुन के समान हथियार डाल दूँ !

फेक्ट्री में दिन भर के अति व्यस्त कार्यक्रम से थक कर , रात्रि  में नहा धो कर [ जी हाँ चाहे जितनी सर्दी हो दोनों समय का स्नान अनिवार्य था - बताऊँ क्यों ?  चमड़े के कारखाने में काम करने वालों के शरीर से हर घड़ी 'दुर्गन्ध' निकलती रहती है ]  भोजन करने के बाद  सोने के अतिरिक्त और कुछ काम नहीं था ! आजकल की तरह रेडियो टीवी पर आस्था संस्कार दिशा जैसे चेनल तो थे नहीं तब कि किसी संत महापुरुष का प्रवचन सुनता !

आध्यात्मिक गुरुजनों में सर्वोपरि योगेश्वर श्री कृष्ण  ने कुरुक्षेत्र में अपने प्रिय सखा 'अर्जुन' को गीता सुना कर तथा अपने वास्तविक विराट स्वरूप का दर्शन करवाकर उसकी सुषुप्त आत्मचेतना को जाग्रत  किया ; उसे अपना निर्धारित कर्म करने को  प्रेरित किया !

अर्जुन को माध्यम बनाकर श्रीकृष्ण ने समग्र मानवता को निष्काम कर्मयोग का संदेश दिया और क्रियाशील व्यक्तियों को निज विवेक के प्रकाश में हाथ में लिए कार्य की पूर्ति तक  पूर्ण समर्पण के साथ सतत कर्तव्य परायण बने रहने तथा पलायनवाद से बचने का उपदेश दिया !

मेरे सम्पर्क मे तब तक कोई ऐसा प्रबुद्ध महापुरुष नहीं था जो मेरा मार्ग दर्शन करता  !  मैंने तब तक किसी गुरु से दीक्षा भी नहीं ली थी - मेरा कोई आध्यात्मिक गुरु  नहीं था !
घर में प्रचलित पारिवारिक संस्कारों में अपने बाबा दादा के समय से चल रहे खानदानी परम्परागत कर्मकांड युक्त मूर्ति पूजन और डी.ए.वी संस्थाओं  में शिक्षा प्राप्त करने के कारण वहाँ सिखाई गयी वैदिक् विधि अनुसार निराकार ब्रहमोपासना के बीच मैं झूल रहा था ! धर्म गुरुओं के तर्क वितर्क भरमा रहें थे मुझे और इस प्रकार लगभग २५-३० वर्ष की अवस्था तक मैं आध्यात्मिक क्षेत्र में बुरी तरह भ्रमित ही रहा !

मेरे प्रियजन सच मानिए विवाह से पूर्व मैं इस विषय में बिलकुल ही अनभिज्ञ था !

मैं आज के दिन ये जो आध्यात्म की बड़ी बड़ी अफ्लातूनी बातें आपको परोस  रहा हूँ ,इस विषय का प्रथम पाठ मैंने तब पढ़ा जब मैं दूल्हा बन कर,'सिधिया राज' की चार सफेद घोड़ों वाली शानदार  बग्गी पर सवार होकर ,२ ७  नवम्बर १९५६ की रात , "बोले कि भाई 'बम' , बोले के भाई 'बम -"भोले",'"बम बम भोले" का कानपुरी नारा लगाते अपने इष्ट-  मित्रों और सगे सम्बन्धियों सहित ,बेंडबाजे  के साथ  ग्वालियर [मुरार] की 'कोतवाली सन्तर.  स्थित , अपने ससुराल के परमेश्वर भवन पहुँचा !

वह घर मेरे दिवंगत स्वसुर श्री परमेश्वर दयाल जी का निवास स्थान है ! वह  ग्वालियर राज्य के सीनियर एडवोकेट थे तथा राज्य के मजलिसे आम [लोक सभा ]तथा मजलिसे कानून [ लेजिस्लेटिव कौंसिल ] के सदस्य भी थे !  स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने खुल कर गांधीजी का सहयोग किया ,हाथ ठेले  पर  लाद  कर वह घर घर जाकर "खादी" बेचते थे ! वह आजीवन हेतु रहित  समाज  सेवा करते रहें ! उन्होंने निजी बल बूते से "मुरार"  में पब्लिक लाइब्रेरी व  रीडिंग रूम की स्थापना की परन्तु इन संस्थानों  के साथ उन्होंने स्वयम अपना अथवा अपने परिवार के किसी सदस्य का नाम नहीं जोड़ा !  इसके अतिरिक्त अति गोपनीय रख कर उन्होंने कितने ही निर्धन विद्यार्थियों की  पढाई की व्यवस्था की तथा अनेकों निर्धन कुमारियों के विवाह  में आर्थिक सहायता की !

१९३९ में ४३ वर्ष की छोटी सी उम्र में ही श्री परमेश्वर दयाल जी यह संसार छोड़ गये !
ज्येष्ठ पुत्र , २३ वर्षीय श्री शिवदयालजी  बने परिवार के मुखिया और उनके नाज़ुक कंधों पर सहसा ही आ पड़ा इतना बड़ा बोझ ! उस समय परिवार में थीं उनकी बुज़ुर्ग दादी , उनकी मा , उनकी पत्नी ,उनके दो बच्चे , एक छोटा भाई तथा चार बहने !

इन महापुरुष ,श्री शिवदयाल जी ने जिस कुशलता से यह भार वहन किया और इस परिवार को चलाया , अनुकरणीय है ! वे कहते थे :

  सदा यह सोचो कि :
प्रभु ने मुझे इस धरती पर महान बनने के लिए भेजा है ,अस्तु 
मेरे संकल्प , मेरे विचार ,मेरे कार्य सभी महान स्तर के हों !
दूसरों के स्तर से हमे क्या लेना देना ?
अपनी अपनी करनी ,अपने अपने साथ !!
सबके काम आऊँ ,किसी से कुछ न चाहूँ  !!
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कदाचित ऐसे ही संकल्प ने उन्हें एक साधारण मानव से "गृहस्त संत" बना दिया 
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क्रमशः 
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                                     निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती. कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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