बुधवार, 22 मई 2013

स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती


 गृहस्थसंत माननीय शिवदयाल जी पर 
 संतशिरोमणि स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती 
की असीम करुणा
------------------


अनंतश्री  स्वामी अखंडानंदजी

भारतीय वेदान्त-दर्शन  एवं  व्यावहारिक जीवन विज्ञान के मर्मज्ञ  अनंतश्री  स्वामी अखंडानंद जी बीसवीं सदी के  ऐसे सिद्ध संत थे जिनके  रोम रोम में पौराणिक धर्म ग्रंथों का तत्व रमा हुआ था ! उनकी वाणी में ऐसा  माधुर्य  था कि वे  इस अगम्य ज्ञान को अपनी रसमयी भाषा शैली द्वारा अति सहजता से साधारण से साधारण जिज्ञासु साधक को समझा देते थे !

प्रियजन , वैसे तो मुझको श्री महाराज जी के मंगलमय दर्शन शैशव एवं युवा अवस्था में कानपुर में कई बार हुए थे पर वे सब के सब दूर से दर्शन मात्र थे ! उनके अति निकट बैठ कर, उनसे एकांत में कुछ सुनने ,समझने तथा सीखने का सुअवसर मुझे मुंबई आने पर १९७०-७५  के दौरान हुआ ! यहाँ स्पष्ट कर दूँ ऐसा सौभाग्य मुझे अपने परम पूज्यनीय  "बाबू"- गृहस्थ संत माननीय श्री शिवदयाल जी की स्नेहिल कृपा से ही प्राप्त हुआ था !

आइये ! स्वामीजी की धूमिल सी याद जो १९७०-७१ तक मुझे थी वह केवल इतनी थी कि जब मैं बहुत छोटा था तब कानपुर के फूल बाग ,परमट घाट अथवा सरसैया घाट पर वर्ष में एक बार भागवत सप्ताह का आयोजन अवश्य होता था और इन समारोहों के प्रमुख प्रवचनकर्ता विद्वान संत श्री स्वामी अखंडानंद जी हुआ करते थे ! पढाई और खेल कूद में व्यस्त रहने के कारण मैं स्वयम तो ऎसे संतसमागमों में नहीं जाता था लेकिन मेरी प्यारी अम्मा उन्हें नहीं छोडती थीं ! वह यथासम्भव ऐसे सभी भागवत सप्ताहों में ,मोहल्ले की अपनी सहेलियों के साथ अवश्य शामिल होती थीं ! प्रवचन से लौटने पर अम्मा  हमे " व्यास गद्दी" पर आसीन - कथावाचक के विषय में बताती और कथा के सारतत्व से अवगत कराती थीं ! शुरू शुरू में केवल इतने से ही मेरा परिचय स्वामी अखंडानंद जी से हुआ था !

तत्पश्चात विश्व विद्यालय से शिक्षित दीक्षित होकर कानपुर में कार्यरत होने पर १९५२ - ६७  के बीच कभी कभी मुझे  हार्नेस फेक्टरी से घर लौटते हुए रास्ते में पड़ने वाले जयपुरिया हाउस में आयोजित ऐसे दो चार सत्संगों में शामिल होने का अवसर मिला था जहां मुझे अनंतश्री स्वामी अखंडानंद जी महाराज के साक्षात दर्शन हुए ! महाराजश्री वहाँ पर आयोजित भागवत सप्ताह में प्रभु की रहस्यमयी लीलाओं की कथा कह रहे थे !  मुझे महाराजश्री के  वचन सुन कर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनके रोम रोम में रमा वैदिक ग्रन्थों का सारतत्व - "ज्ञानयोग , भक्ति एवं कर्म योग के समन्वित स्वरूप में "त्रिवेणी" के पतित पावन जल के सदृश्य उनके श्रीमुख से सतत प्रवाहित हो रहा है !

प्रियजन , वहाँ  त्रिवेणी के उस अमृततुल्य रस का पान  केवल साधारण श्रद्धालु श्रोता  ही नहीं अपितु मंच पर विराजित उस जमाने के अनेक जाने माने विचारक तथा सिद्ध संत भी कर रहे थे  ! मैंने देखा कि स समय महाराजश्री के साथ उस मंच पर आसीन  रहतीं  थीं देश की अनेकानेक  महानतम आध्यात्मिक विभूतियाँ जिनमे उल्लेखनीय हैं - ;परमपूजनीया श्रीश्री मा आनंदमयी ,वृन्दावन ,काशी,हरिद्वार,ऋषिकेश तथा बिठूर [ब्रह्मावृत] से  पधारे अन्य सिद्ध संतजन ! मंच महात्माओं से खचाखच भरा रहता था पर खेद है  कि अभी मुझे किसी अन्य संत का नाम याद नहीं आ रहा है ! 

 स्वामीअखंडानंद जी महाराज के श्रीचरणों के निकट बैठने का प्रथम सुअवसर  मुझे मुंबई में मिला ! १९७१ में  मैं मुम्बई में कार्यरत था ! ये वे दिन थे जब बड़े बड़े नगरों में प्रसिद्ध  फिल्मी "गायकों" की "नाइट्स" मनाईं जातीं थीं ! कहीं  "मुकेश नाईट" होती थी तो कहीं "मुहम्मद रफी नाईट",कहीं "गीता दत्त" नाईट और कहीं स्वर कोकिला "लता मंगेशकर जी की नाईट" होती थी  ! ऐसे माहौल में , भलीभांति यह जानते हुए कि उस फिल्मी चकाचौंध मे भजन संध्या जैसे प्रवचनात्मक संगीत कार्यक्रम का सफल होना असंभव है , कुछ  सत्संगी मित्रों के आग्रह पर  मैंने और मेरे बहनोई विजय  बहादुर चन्द्रा ने  [ जो उनदिनो भारत सरकार की फिलम्स डिवीजन में निदेशक थे ]   ,उन भडकीली फिल्मी नाइट्स" से टक्कर लेने के लिए मुम्बई में  पहली बार एक "संगीतमयी आध्यात्मिक संध्या" आयोजित करने का मन बनाया !

हमे इसकी प्रेरणा मिली थी गुरुदेव स्वामी सत्यानान्दजी महाराज के इस सन्देश से --

बृद्धि आस्तिक भाव की शुभ मंगल संचार 
भ्युदय  सद धर्म का राम नाम विस्तार !!

किस नाम का विस्तार ? किस "नाम " का प्रचार" ? ! प्रियजन  "अपने"  नाम का प्रचार अथवा विस्तार नहीं करना है ! स्वामी जी ने ,प्यारे प्रभु के राम नाम के प्रचार व विस्तार की बात कही है ! यह वही "नाम" है जिसके लिए तुलसी ने कहा था - 

राम नाम मणि  दीप धरु ,जीह  देहरी द्वार ,
तुलसी भीतर बाहरहु जो चाहसि उजियार !!  

निश्चित किया गया कि, आम जनता के लिए यह कार्यक्रम निःशुल्क होगा , प्रवेश हेतु कोई टिकट नहीं बेचे जायेंगे !  हम दोनों ने अपने निजी रिसोर्सेज से एक बडा सभागार बुक किया, म्यूजीशिय्न्स की तलाश की , उन्हें राजी किया तथा हमारे पूरे परिवार ने इस कार्यक्रम के आयोजन में हमारा सहयोग किया ! 

एकाध नामी अतिथि कलाकारों के अलावा सभी प्रमुख गायक हमारे परिवार के ही थे ! परिवार के बच्चों ने हाल की सजावट की थी ! इन बच्चों ने ही  कार्यक्रम के अंत में श्रोताओं में प्रसाद स्वरूप वितरित करने के लिए "पारसी डेयरी" के स्वादिष्ट पेड़े तथा राम नाम अंकित बेल पत्र प्लास्टिक के लिफाफों में भरे थे ! वितरण भी बच्चों ने ही किया ! प्रियजन मुम्बई में ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी सार्वजनिक निःशुल्क कार्यक्रम में प्रसाद भी वितरित हुआ ! 

गायकों में मंच पर थे स्वनाम धन्य सर्वश्री पंडित गोविन्द जी (जयपुर वाले) - जिन्होंने "जनम तेरा बातों ही बीत गयो " गाया ,संगीत निदेशक - सुरेन्द्र कोहली जी जिन्होंने गाया था " राम से बड़ा राम का नाम" , सुप्रसिद्ध प्ले बेक गायिका श्रीमती वाणी जयराम तथा  इन अतिथि कलाकारों के अलावा स्वयम मैं , मेरी छोटी बहन श्रीमती मधु चंद्र तथा मेरे भतीजे कीर्ति अनुराग थे ! सूत्रधारक  - बहनोई चन्द्रा साहेब थे ! लाइव साउंड रेकोर्डिंग बेटी श्रीदेवी [ १२ वर्षीय] और बड़े पुत्र राम जी  [१० वर्षीय] कर रहे थे ! 

=============

प्रियजन , आप ठीक ही सोच रहे हैं कि- 

अपने मुंह मियामिटठू "भोला" तब तक नहीं रुकेंगे जब तक कोई उन्हें अंकुश न चुभाएगा !, लेकिन विश्वास करें कि उनका उपरोक्त कथन अक्षरशः सत्य और पूर्णतः प्रासंगिक है ! क्यूँ और कैसे ?  

महापुरुषों का कथन है कि सर्व मंगल हेतु निःस्वार्थ भावना से संकल्पित कोई कार्य कभी  निष्फल नहीं होता ! ऐसे कर्म एवं कर्ता  पर गुरुजनों के आशीर्वाद तथा उनकी अहेतुकी कृपा सतत बरसती  रहती है ! हमारे कार्यक्रम में भी कुछ ऐसा ही हुआ ! 

अनंतश्री स्वामी अखंडानंद जी महाराज ने उस कार्यक्रम के दौरान [हमारी जानकारी के बाहर] हमारे पूरे परिवार को अपनी कृपामयी "दृष्टिदीक्षा" से नवाजा ! उन्होंने लगातार दो घंटों तक सभागार में उपस्थित रह कर वहाँ के वातावरण को परमानंद रंजित  एक अनूठी  दिव्यता से भर दिया ! हम धन्य हुए उन्होंने हमारी भक्तिमयी विनती "प्यारे प्रभु"  के दरबार तक पहुचा दी ! उसका विस्तृत विवरण अगले अंक में भेजने का प्रयास करूँगा ! 

आत्म कथा का उपरोक्त अंश मैंने अपने सभी पाठकों स्वजनों तथा परिजनों के हितार्थ सुनाया ! इस आत्म कथा द्वारा मैं आपको यह अवगत करा रहा हूँ कि 
सत्य-प्रेम एवं करुणा मय "धर्म पथ" 
पर चल कर कैसे यह नाचीज़ [निवेदक]  सन.१९२९ से आज तक की,
 दिनों दिन बढ़तीं अश्लील एवं भ्रष्ट परिस्थियों में सिर उठा कर जी सका है !
 हमारी भविष्य की पीढियां भी उस धर्मपथ पर चलें ऎसी हमारी मनोकामना है ! 


पूज्यनीय "बाबू"की शुभेच्छा से मुझे, कब और कैसे ,
स्वामी अखंडानंद जी महाराज के साथ 
आत्मीय सम्बन्ध बनाने का सुअवसर मिला उसका विवरण भी आगे दूँगा, 

=========================================
निवेदक : व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
=========================


शुक्रवार, 17 मई 2013

अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल - सूरदास

मेरा नटवर नागर - नचा रहा है मुझे ,
इस जीवन में ,
पिछले चौरासी वर्षों से :
===============

लगभग एक पखवारे से  मैं "महाबीर बिनवौ हनुमाना" की रचना द्वारा होने वाली अपनी ईशोपासना नहीं कर पा रहा हूँ ! आप ही कहो स्वजनों ,  बिना अपने मदारी के आदेश के यह परतंत्र और निर्बल बंदर- "भोला", स्वेच्छा से क्या कर सकता है ? कौन सा करतब दिखा सकता है वह अपने मदारी के इशारों के बिना ?

अपना "ब्लॉग" भेज नहीं पा रहा हूँ --लेकिन आजकल किसी दिव्य प्रेरणा से  रोज प्रातः उठते ही कोई न कोई भूली बिसरी "संत वाणी" अनायास ही याद आ जाती है ! कभी मीरा , कभी तुलसी , कभी कबीर और कभी सूरदास का पद गुनगुनाता हुआ जागता हूँ और फिर सारे दिन उसका ही नशा चढ़ा रहता है और मैं वह भजन ही गाता रहता हूँ ! ऐसा लगता है जैसे "प्यारे प्रभु"  मेरे उस भजन गायन को ही मेरे द्वारा उनकी आराधना मान कर पत्र पुष्प सरिस उसे स्वीकार लेते हैं ! "उनके" प्रसाद स्वरूप मेरा मन आनंदित हो जाता है ! "उनकी" उदारता हमे गद गद कर देती है और हम धन्य हो जाते हैं ! हरि इच्छा मान कर , उन्ही भजनों मे से एक आज आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ ! ----

अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल  

मेरी अवस्था तक पहुचे पाठक एवं श्रोतागण जो ७० - ८० वसंत देख चुके हैं संत सूरदास के इन शब्दों की सार्थकता सहजता से ,भली भांति आँक लेंगे !

प्रियजन  एक प्रार्थना है , कृपया मेरे बूढे कंठ की कर्कशता एवं गायकी के दोषों पर ध्यान न दीजियेगा ! सूर की शब्दावली में परिलक्षित इस पद के भाव समझने का प्रयास करें!


अब मैं नाच्यों बहुत गोपाल 
काम क्रोध को पहिर चोलना ,कंठ विषय की माल !
अब मैं नाच्यों बहुत गोपाल 

महामोह को नूपुर बाजत ,निंदा शबद रसाल 
भरम भर्यों मन भयो पखावज ,चलत कुसंगत चाल !
अब मैं नाच्यों बहुत गोपाल 


अब मैं नाच्यों बहुत गोपाल 
तृष्णा नाद करत घट भीतर ,नाना विधि दे ताल 
माया को कट फेंटा बांध्यो ,लोभ तिलक दे भाल 
अब मैं नाच्यों बहुत गोपाल 

कोटिक कला कांछि दिस्रराई जल थल सुधि नहिं काल 
सूरदास की यहे अविद्या दूर करो नंदलाल !
अब मैं नाच्यों बहुत गोपाल 
=================
ये न सोंचें कि "महाबीर बिनवौ हनुमाना" में संतत्व की चर्चा थम गयी है ! 
बहुत कुछ लिखा पड़ा है ! "ऊपरवाले"  की स्वीकृति प्राप्त होते ही प्रकाशित कर दूँगा !
रुकावट के लिए खेद है !
=================
निवेदक: व्ही .  एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोगिनी: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
=============================

सोमवार, 6 मई 2013

राम कृष्ण कहिये उठि भोर - नंददास -

  अवध ईश वे धनुष धरे हैं , ये बृज माखन चोर
राम कृष्ण कहिये उठि भोर  
 ===================  
प्रियजन !  गृहस्थ संत माननीय शिवदयाल जी  की कथा अभी समाप्त नहीं हुई है!
अगला अंक तैयार हो रहा है 
----------------------------

इस बीच इस शिथिल शरीर से आच्छादित मेरे अदृश्य चैतन्य मन में सहसा कुछ  बहुत पुराने  "भजनों का ज्वार" सा उमड आया है और मैं उन्हें अनायास ही गुनगुनाने भी लगा हूँ ! १९५०-६० की बनाई हुईं धुनों में इन भजनों का एक एक शब्द मेरे ८४  वर्षीय थके  मांदे    कंठ से स्वतः प्रवाहित हो रहे हैं !  

( आप तो जानते ही हैं कि अब मेरी यह दशा है कि मैं कभी कभी अपने नाती पोतों के नाम तक भूल जाता हूँ ! मुझे इस हालत में ,इन शब्दों का यकायक याद आना अवश्य ही "मेरे प्यारे प्रभु"  की इस इच्छा का प्रतीक है कि "उठो प्यारे गाओ प्यारे गाओ" ) 

उन अनेक भजनों में से सबसे पुराना , छोटी बहन माधुरी के रेडियो प्रोग्राम के लिए बनाई धुन में प्रियजन -मेरे प्यारे प्रभु के प्रतिरूप आप को सुनाता हूँ , जानता हूँ , आपके ज़रिये "मेरा प्यारा" भी सुन लेगा : मेरा स्वार्थ बस इतना है ! यह भजन "उन्हें" ही सुना रहा हूँ :


राम कृष्ण कहिये उठि भोर 
अवध ईश वे धनुष धरे हैं , ये बृज माखन चोर 
राम कृष्ण कहिये उठि भोर 





इनके छत्र चंवर सिंघासन , भरत शत्रुघ्न लक्ष्मण जोर 
उनके लकुट मुकुट पीताम्बर नित गैयन संग नंद किशोर 
राम कृष्ण कहिये उठि भोर 

इन सागर में सिला तराई ,इन राख्यो गिरि नख की कोर ,
नंददास प्रभु सब तज भजिये जैसे निरखत चन्द्र चकोर ,
राम कृष्ण कहिये उठि भोर 
===================

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे 

हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे


==================

प्रियजन  
प्यारे प्रभु के आदेश से , 
उनके ही शब्द ,उनकी ही वाणी 
उनका दासानुदास भोला  
उनके श्री चरणों पर 
पत्र पुष्प  सरिस समर्पित कर रहा है!

=========================
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोगिनी:  श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
==============================    

बुधवार, 1 मई 2013

"स्वामी चिन्मयानन्द" की "बाबू" पर कृपा


सतसंगत मुद मंगल मूला  ! सोई फल सिधि सब साधन फूला !!

"तुलसी"
 ====== 

महापुरुषो का कथन है कि कीर्ति, यश, सद्गति, विभूति और भलाई ,केवल उन जीवों को मिलती है  जो धर्म और नीति के पथ पर चलते हैं और इस पथ पर अधिकांशतः  वे जीव ही चल पाते हैं जिन्हें उनके मानव जीवन में  'सत्संग' का लाभ प्राप्त  होता है ! एक अन्य नैसर्गिक नियम यह भी है कि जीव को , विवेक की प्राप्ति केवल "सत्संग"से ही हो सकती है और 'जीव' को ऐसा "सत्संग" एक मात्र "प्यारे प्रभु" की  कृपा से हीं मिलता है  !

जिस जीव पर प्रभु की असीम कृपा होती है उन्हें  परम सिद्ध महापुरुषों के दर्शन स्वयमेव  होते रहते हैं ! आवश्यकता पड़ने पर ये संत  प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में उपस्थित होकर  'जीव' के भौतिक और आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान करते  हैं  और उस जीव के मानवीय  व्यक्तित्व को उत्तरोत्तर विकसित करते रहते हैं !

महापुरुषों का यह भी कहना है कि  "जीव" के दो मन होते हैं ! एक होता है 'आंतरिक मन " और दूसरा "संसारी अर्थात -व्यवहारी मन" !  सत्संग से ज्ञान, भक्ति, वैराग्य ,शील और सदाचार को अपनाकर  जीवन जीने  वाला साधक अपने 'आतंरिक मन' को  प्रबुद्ध करता है और "व्यावहारिक मन" को संयमित रखता है !

हमारे 'बाबू', माननीय शिवदयाल जी , एक ऐसे ही सौभाग्यशाली व्यक्ति थे , जिन्हें  आजीवन सिद्ध महापुरुषों के दर्शन हुए तथा उनके साथ आत्मीय सामीप्य बनाने का सुअवसर मिला ! एक पारिवारिक सत्संग में उन्होंने  हमे बताया कि ऐसे संत समागम से "बाबू" की संस्कार जनित नैसर्गिक सत्प्रवृत्तियों  का सम्वर्धन हुआ और उन्हें अथाह आत्मबल मिला ! इसके साथ साथ उनके  "व्यावहारिक - सांसारिक  जीवन"  का अप्रत्याशित उत्कर्ष हुआ और उन्हें अपूर्व "आत्मिक आनंद" की भी अनुभूति हुई !

अब सम्बन्धित प्रसंग पर आत्मकथा का एक अंश सुनलें :

प्रियजन  १९८३-८४ में , मैं [निवेदक 'भोला'], कानपुर में कार्यरत था ! उन्ही दिनों स्वामी चिन्मयानंदजी कानपूर में  गीता-ज्ञान-यज्ञ आयोजित करवाने तथा ब्रह्मावर्त (बिठूर) में मंधना के "बनखनडेश्वर महादेव मंदिर" के निकट , बृद्ध स्त्री-पुरुषों के रहने  योग्य ओल्ड    एज होम्ज़ , "पितामह सदन" स्थापित करने की योजना  सम्पन्न करवाने आये थे !  मेरे परम सौभाग्य से  स्वामी जी तब 'चिन्मय मिशन' के स्थानीय कार्यकर्ताओं की मंत्रणा   मेरे निवासस्थान पर भी पधारे थे !  धन्य हो गये हम सपरिवार !

इसके कुछदिन पश्चात बाबू और भाभी भी कानपूर आये ! उनके आगमन के कदाचित कुछ दिवस पूर्व ही स्वामी चिन्मयानंद जी हमारे घर आये थे ! अस्तु मैंने बाबू को  स्वामी जी के स्वतः मेरे घर पर आगमन के विषय में [ कदाचित 'सगर्व' ] बताया ! [ प्रियजन साधारण मानव हूँ - थोड़ा अहंकार अवश्य ही निहित होगा मेरे उस कथन में ]

तभी पूज्य  बाबू ने हमे बताया कि एकबार शिवानंद आश्रम ऋषिकेश में बाबू की भेट फर्राटे से हिन्दी में बातचीत करने वाले एक तेजस्वी दक्षिण भारतीय युवक से हुई थी ! वह   युवक "बाल कृष्ण मेनन",एक पत्रकार था जो  महात्मा गांधी  के असहयोग आंदोलन में सक्रिय भाग लेने के कारण जेल भी काट चुका था ! जेल में सौभाग्यवश किसी अन्य स्वतंत्रता सेनानी ने उसे "शिवानद आश्रम" के "डिवाइन लाइफ सोसायटी" का साहित्य पढ़ने को दिया ! युवक बाल कृष्ण उस  शिवानंद-साहित्य में निहित "तत्व-ज्ञान" से  अत्याधिक  प्रभावित  हुआ और उसने निशच्य कर लिया कि जेल से मुक्त होते ही वह "पत्रकारिता" का धधा त्याग कर "स्वामी शिवानंद जी" का शिष्य बन जाएगा !

वह तेजस्वी युवक जो बाबू को शिवानंद आश्रम में मिला था "बाल कृष्ण मेनन" ही था जिसने स्वामी शिवानंद जी के आदेश से  ८ वर्षों तक  "तपोवन स्वामी" के श्री चरणों  में वेदान्त का गहन अध्ययन किया और कालान्तर में "स्वामी चिन्मयानन्द" के नाम से विश्व विख्यात हुआ !





                      वेदान्त दर्शन के महांन प्रवक्ता स्वामी चिन्मयानंदजी

पूज्य श्री स्वामी चिन्मयानंद  ने जन साधारण की ,हिंदू धर्म संबंधी भ्रांतियों का निवारण करने के उद्देश्य से १९५३ में चिन्मय -मिशन की स्थापना की थी ! चिन्मय शब्द परमात्मा का वाचक है और  उसी की पीठिका पर मिशन का नामकरण हुआ था ! मिशन का लक्ष्य था समाज के एक एक व्यक्ति को आत्मोन्नति  करने  की प्रेरणा देना , जन साधारण को सुख शांति और समृद्धि से पूरित करना और प्रत्येक नागरिक को समाज का उपयोगी अंग बनाना !

स्वमी जी ने  इस मंगलमय हेतु की प्राप्ति के लिए भारतीय सनातन धर्म के मूल्यों की अलख जगाकर मानव जीवन को दिव्य गुणों से पूरित करने हेतु ,वेदान्तिक ग्रंथों  में से श्रीमदभगवत गीता को चुना और उसके आश्रय से मानवता को पुरुषार्थी ,सत्कर्मी , आत्मनिर्भर और सदाचारी बनाने के लक्ष्य से  देशविदेश में  स्थान-स्थान पर "गीता ज्ञान
 यज्ञ"आयोजित   किये ! 


१९६६ में  स्वामी चिन्मयानंद जी का  'गीता ज्ञान यज्ञ' जबलपूर नगर में आयोजित हुआ ! उन दिनों पूज्य बाबू  जबलपुर में कार्यरत थे ! बाबू सपरिवार  उस ज्ञानयज्ञ में सम्मिलित हुए ! वहाँ  अपनी स्वाभाविक विनोद मयी शैली में स्वामी जी ने "गीता" के १२वे अध्याय  
के भक्ति योग का विवेचन किया तथा अति प्रेरणादायी शब्दों में भक्ति के दिव्य गुणों को जीवन में उतारने हेतु घर घर में "गीता" चचा चलाने का सुझाव दिया !


स्वतंत्रता सेनानी , विधि विशेषज्ञ , कुशल पत्रकार से सन्यासी बने चिन्मयानंद जी के तर्कसंगत वचनों से प्रेरणा ग्रहण कर बाबू भाभी ने जबलपुर में अपने निवास स्थान पर ही चिन्मय मिशन की विधि के अनुसार "श्री गीता जी" का साप्ताहिक सत्संग आयोजित करने का निश्चय किया और तत्काल वह चालू भी हो गया ! इस सत्संग में जिज्ञासु साधक  श्रीमदभगवत गीता के दो श्लोक पढते थे और फिर विभिन्न प्रख्यात टीकाकारों की व्याख्या  बारी बारी से पढकर सत्संगी परस्पर प्रश्नोत्तर तथा आपसी सम्वाद और  विचार विमर्श से उन श्लोकों का गूढ तम भाव समझने का प्रयास करते थे !  यह सत्संग  बाबू के रिटायर होने तक जबलपुर में उनके निवास -स्थान पर  लगभग ११ वर्ष तक अनवरत चलता रहा !

गोस्वामी तुलसीदास का कथन कितना सार्थक है कि संतों का संग मंगलमय और  परम आनंद का स्रोत होता है !

बीसवीं शताब्दी के एक अन्य महान संत प्रातः स्मरणीय - 
अनंत श्री  स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती  
के वरद हाथों से मुझ दासानुदास और पूज्य बाबू को 
क्या प्रसाद  मिला ,क्या आशीर्वाद मिला ,हम पर कैसी  कृपा वर्षा की उन्होंने ? 
यह जानने के लिए करिये प्रतीक्षा आगामी अंक की  ---- 

क्रमशः 

==============================
निवेदक : व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोगिनी : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
==============================