मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

सद्गुरु संत रैदास की भक्ति



   संत रैदास की 
"भक्ति"

प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा 
ऎसी "भगति" करे  "रैदासा"  

(गतांक से आगे)

चौदहवीं -पन्द्रहवीं सदी में काशी महानगरी में विश्वनाथ गली तक जाने वाले किसी एक मार्ग के किनारे एक छोटी सी गुमटी में घासफूस के आसान पर बैठे "संतगुरु रैदास" अपने " प्यारे साहिब " का ध्यान लगाए, खानदानी चर्मकारी ( मोचीगीरी) का व्यवसाय करते थे ! 

मध्यम श्रेणी के खाते पीते "मोची" परिवार के कर्ता - उनके पिता ने उन्हें अपने घर से बेदखल कर दिया था इस कारण कि रैदास खानदानी दूकान से अर्जित धन को  जरूरतमंद फकीरों को दान में दे देते थे !
  
घर से बेदखल हुए रैदास अपने उस छोटे से ठीहे से भी व्यापार से अधिक खैरात बाटने का ही काम करते थे ! गृहस्थी चलाने भर की कमाई हाथ में रखकर वह शेष सब निर्धनों में तकसीम कर देते थे !

                      

लगभग नित्यप्रति ही गंगास्नान एवं काशी विश्वनाथ दर्शनार्थ पधारे ग्राहक अपने धूल-भरे पदत्राण - चमड़े के चट्टीजूते मोजरी आदि रैदास जी को रख रखाव हेतु सौंप कर निश्चिन्त हो दसास्वमेध घाट और विश्वनाथ गली की ओर चले जाते थे ! संत रैदास तीर्थयात्रियों के जूतों को बड़े प्रेम से गाँठते संवारते , उन पर रंग रोगन लगाते, उन्हें खूब चमकाते और स्नान दर्शन कर वापस आये ग्राहकों को उनके जूते स्वयम अपने हाथों से पहिनाकर श्रद्धा से उन्हें प्रणाम करके उन्हें विदा करते थे ! साधारणतः वह ग्राह्कों से अपनी उस सेवा का पारिश्रमिक भी नहीं मांगते थे !

क्यों ?                      

काशीविश्वनाथ के सेवक भक्तजनों के पद्त्राण की धूल मस्तक से लगा कर उन्हें महसूस होता था कि जैसे वह भक्तों की चरणधूलि नहीं बल्कि मातेश्वरी गंगा के पवित्र जल में डुबकी लगा रहे हैं और शिवालय के गर्भ गृह में स्वयम अपने हाथों से देवाधिदेव विश्वनाथ का अभिषेक कर रहे हैं ! शिव भक्तों के स्वरूप में भगवान शंकर के जीवंत विग्रह का दर्शन कर वह रोमांचित हो जाते थे ! इस अमूल्य निधि की प्राप्ति के बाद ग्राहकों से उन्हें कुछ और मेहनताना पाने की दरकार महसूस ही नहीं होती थी !  

उस स्थिति में सद्गुरु संत रैदासजी की वाणी में साक्षात माता सरस्वती शारदा का वास हो जाता और उस जमाने की आम बोल चाल की भाषा में, पौराणिक ऋषि मुनियों द्वारा अनुभूत आध्यात्मिक "परम सत्य" का गूढ़ रहस्य संजोये काव्यमयी कृतियाँ उनके कंठ से स्वतः स्फुरित होने लगती थीं ! गाहक के रूप में उनके सन्मुख विराजे साधारण से साधारण प्राणी में उन्हें अपने "साहिब" का दर्शन होता था और वह आनंद से गा उठते थे -
ऐसो कछू अनुभव कहत न जाई ! 
साहिब मिलें  तो  को  बिलगाई !!
सबमें हरि हैं हरि में सब हैं हरि अपनों जिन जाना !
साखी नहीं  और  कोई  दूसर  जाननहार समाना !!


केवल गंगास्नान करने जाने वाले भक्तों में ही रैदासजी अपने प्यारे "साहेब" के दर्शन नहीं करते थे , उन्हें तो प्रत्येक जीवधारी में ही  उनका  "मालिक" नजर आता था चाहे वह मानव हो अथवा पशु हो ,पंछी हो, जलथलचर हो , नभचर हो ! यदि वह मनुज हो तो चाहे वह किसी भी धर्म-मत  का अनुयायी हो ,मुसलमान हो , हिंदू हो, यहूदी हो या ईसाई हो रैदास जी को सभी धर्मावलंबियों के इष्ट के रूप में केवल "एक परमेश्वर" के ही दर्शन होते थे ! प्रियजन ! तभी वह अक्सर कहा करते थे

कृष्ण करीम रामहरिराघव जब लगि "एक" न पेखा !
    बेद कतेब  कुरान  पुरानन  सहज  राम   नहीं देखा !!   

यह पूछने पर कि वह तीज त्योहारों पर भी देवालय मे जाकर विधिवत पूजा पाठ क्यूँ नहीं करते ,वो प्रश्नकर्ता से कहते " मैं क्यूँ जाऊं मंदिर मस्जिद , मुझे तो  आप में ही "राम रहीम" का दीदार हो रहा है "!

प्रियजन, रैदास जी रूढ़ीवादी कर्मकांडीय पूजा पाठ के मुकाबले  मानसिक पूजा को अधिक महत्व देते थे ! वह बड़े से बड़े पर्व त्यौहार के दिन भी अपना निर्धारित काम अधूरा छोड़ कर गंगा स्नान अथवा शिव दर्शन को नहीं जाते थे ! वह कर्तव्य कर्म छोड़ कर ऎसी पूजा करना व्यर्थ समझते थे! कारण पूछने पर वह कहते कि ग्राहक उनके लिये भगवान है ! ग्राहक से किया गया वादा समय से पूरा करना उनके लिए पूजा से कम नहीं है !ग्राहकों के जूते बनाना और उन्हें संतुष्ट करना ही रैदास जी की पूजा थी ! 


संत रैदास के चरित्र में शास्त्रों में निरूपित भक्ति के निम्नांकित  सभी नौ लक्षण जिन्हें "नवधा भक्ति" कहते हैं  विद्यमान हैं  :

 श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

(1) श्रवण : तीन लोकों से न्यारी काशी की गली गली में सिद्ध महापुरुषों का निवास था ! उस नगर में ,चाह कर भी कोई भी संत-हृदय मानव , परमेश्वर की अलौलिक लीला, कथा, महत्व,  स्त्रोत इत्यादि को बिना सुने नहीं रह सकता था ! रैदासजी परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर हरि कथा सुनते रहते थे ! 

(2) कीर्तन : ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना। रैदास जी में यह भक्ति लक्षण [कीर्तन] नैसर्गिक रूप से विद्यमान था ! प्यारे प्रभु की अहेतुकी कृपा से रैदास जी अति सुंदर शब्द रचना करते थे तथा स्वयम अपने पदों को गाते भी थे !     
(3) स्मरण : निरंतर अनन्यभाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्तिका स्मरण कर उस पर मुग्ध होना। रैदास जी पल भर को भी प्रभु का विस्मरण नहीं करते थे ! "जिसे नाम रट लग गयी", हो वह कैसे प्रभु को बिसार सकता है ? 

(4) पादसेवा : ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्व  समझना। रैदासजी द्वारा ग्राहकों को भगवान मान कर उनके चरण पादुकाओं की धूल माथे लगाने से बढ़ कर और दूसरी चरण सेवा क्या होगी ?

(5) अर्चन : मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना। बिना देव मंदिर में गये ,रैदासजी अपने ठीहे पर बैठे बैठे अपनी कठौती के गंगाजल से मन हीमन अपने "इष्ट" का अभिषेक किया करते थे !

(6) वंदन : भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्रभाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।
रैदासजी प्राणिमात्र को भगवान का अंश मानते थे !


(7) दास्य : ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना। रैदासजी ने कहा "प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा "


(8) सख्य : ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पणकर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।
मित्र हितैषी होते हैं , प्यारेप्रभु से अधिक रैदास का कोई और हितैषी नहीं था !प्रभु का दासत्व स्वीकार कर उन्होंने उन्हें अपना परम हितैषी मित्र बना लिया था !


(9) आत्मनिवेदन : अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पणकर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। पिता द्वारा परिवार से निष्कासित किये जाने के बाद रैदासजी "भगवान" के श्रीचरणों में पूर्णतः समर्पित हो गये ! दरिद्र नारायन की सेवा उनके लिए पूजा थी!   
प्रियजन , आपको याद ही होगा कि भक्ति के इन्ही नौ लक्षणों को बताने के बाद ,भगवान राम ने भीलनी शबरी से कहा था कि 


नव्  महू  एकहु  जिनके   होई , नारि पुरुष  सचराचर  कोई 
मम दरसन फल परम अनूपा ,जीव पाँव निज सहज सरूपा

भगवान राम ने इन नौ लक्षणों में से केवल एक लक्षण के स्वामी को भी सर्वोच्च भक्त का पद प्रदान किया है , ऐसे में भक्ति के सभी नौ लक्षणों के स्वामी महान संत रैदास जी की स्थिति कितनी ऊंची है हम साधारण मनुजों की  समझ से परे है !


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नव् वर्ष २०१४ के शुभागमन पर स्वजनों का अभिनन्दन करते हुए हम   यह शुभकामना करते हैं कि 
प्यारे प्रभु की अहेतुकी कृपा समग्र मानवता पर सदा सदा बनी रहे !
स्वधर्म का निर्वहन करते हुए हम सब अपने अपने कर्म 
लगन उत्साह और प्रसन्नचित्त से 
संत रैदास के समान सतत करते रहें !
मूल मंत्र 
काम करते रहें , नाम जपते रहें
मन को मंदिर बना उसमे मूरत बिठा 
जाप करते रहें ,ध्यान करते रहें
नाम जपते रहें ,काम करते रहें 
"भोला"    
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    निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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शनिवार, 14 दिसंबर 2013

भक्ति सूत्र

"भक्ति" 
किसकी और कैसे 
की जाये ?
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"निज अनुभूति" 
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१९२९ की जुलाई में ,यू पी के पूर्वी छोर पर स्थित ,अति पिछड़े जनपद --"बलिया" में मेरा जन्म एक पढे लिखे तहसीलदार ,जज, मजिस्ट्रेट और वकीलों के परिवार में हुआ था जिसमे सदियों से प्रचलित था मूर्ति पूजन

ऐसे में  मेरे लिए स्वाभाविक था जन्म से ही परिवार की पारंपरिक मूर्ति -पूजन विधि  का अनुयायी बन जाना ! 

सत्य तो यह है कि बचपन में मैं केवल देसी घी से निर्मित धनिया की पंजीरी , सूजी का हलवा और अति स्वादिष्ट पंचामृत का प्रसाद पाने की लालच में पारिवारिक धार्मिक अनुष्ठानों में अनुशासन  से बैठ कर ध्रुव प्रहलाद सा "भक्त" दीखने का प्रयास करता था !  तत्पश्चात -

हां , ६-७ वर्ष से अधिक का नहीं था तभी मैंने परिवार में "मूर्ति पूजा" के विरोध के स्वर उभरते सुने ! मेरी एक बुआ और दो तीन चचेरी बहनों ने पारम्परिक "मूर्ति पूजा" के विरोध में अपने बलिया के खानदानी घर के परम पवित्र महाबीर ध्वजा वाले आंगन में ही युद्ध का बिगुल बजा दिया ! उन्होंने  उसी आंगन में ,भजन कीर्तन की जगह पने ठेठ भोजपुरी लहजे में ,परिवार के बुजुर्गों को सुनाने के लिए एक नया गीत गाना शुरू कर दिया  - (नहीं जानता कि यह रचना उनमे से किसी एक की थी अथवा वह आर्य- समाज की किसी पुस्तिका से उन्हें मिली थी) ! जो भी हो उस नये गीत का मुखडा कुछ ऐसा था:

"हम आर्या समाज की लड़किन हैं पत्थर को कभी न पूजेंगीं"  

आज लगभग ८० वर्ष बाद मुझे , इस गीत के मुखड़े के आगे का एक भी शब्द याद नहीं आ रहा है ! लेकिन अपने परिवार में मूर्ति पूजन के विद्रोह की इस पहली लहर को मैं भुला नहीं पाया ! आगे क्या हुआ सुनिए ----

कुछ समय बाद १९३८ से ४४ तक कानपुर के डी ए वी हाई स्कूल में नित्य की प्रातःकालीन समवेत प्रार्थना सभा तथा धर्म शिक्षा के प्रत्येक 'पीरियड' में मूर्ति पूजन के खंडन की अति गम्भीर चर्चा सुनने को मिली जिससे मैं एक अजीब दुविधा में पड गया ! एक तरफ  घर में पारंपरिक मूर्ति पूजन और दूसरी ओर विद्यालय में उसका प्रचंड खंडन !

इन दोनों में सत्य क्या है ?  एक भयंकर द्वंद उठता रहा मेरे मन में ! हमारे परिवार में बाप दादों के जमाने से चली आ रही मूर्ति पूजक सनातनी पद्धति अथवा आर्यसमाजियों द्वारा पुनः आविष्कारित समझा जाने वाला,  परम पुरातन भारतीय ऋषिमुनियों द्वारा अनुभूत "परमसत्य" !

 यह "परम सत्य" क्या है ?

मन में यह जानने की उत्सुकता तो थी लेकिन १९४९ तक यूनिवर्सिटी की पढाई में व्यस्त रहने के कारण  इस परम सत्य को खोज निकालने के लिए मेरे पास समय नहीं था !

दैव योग से ,१९४९ - ५० में अवसर और अवकाश मिला कुछ स्वाध्याय करने के लिए ! ( इससे पूर्व मैं इसी श्रंखला के आलेखों मे आत्म कथा में सविस्तार लिख चुका हूँ कि कैसे वाराणसी के संकट मोचन महावीर जी ने फाइनल परीक्षा में फेल करवाकर - मेरी - इस दासानुदास के जीवन को एक चमत्कारिक मोड़ दिया , जिसका अमृततुल्य फल ,मैं आज   ( १२ , दिसम्बर २०१३ ) तक  भोग रहा हूँ ! )

हां तो  १९४९ -५० में मुझे गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका कल्याण का एक वार्षिक विशेषांक पढ़ने का अवसर मिला : उसमे मैंने श्रीमद भागवत का एक सूत्र पढ़ा -


"एकम सद विप्रा बहुधा वदन्ति" 
अर्थात 
एक ही सत्य है 

ब्रह्मज्ञानी जन इस  एक ही परमसत्य का वर्णन  अपनी  अनुभूति के आधार पर भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं ! उन ज्ञानियों की शैली जुदा जुदा है लेकिन उनके भाष्य में वर्णित " परमार्थ  -तत्व" एक ही है ,उसमें कोई भेद नहीं है !
 उस परमसत्य - ईश्वर से की गयी "प्रीति"भक्ती है ! अस्तु प्यारे अपनी प्रीति ईश्वर से जोड़ो ! शास्त्रीय  मार्ग से भक्ति करोगे तो "परम दयालु"  के रूप में ईश्वर तुम्हे मिल जाएगा ! 

इस परम दयालु  सत्ता का सम्पूर्ण श्रद्धा से भजन करने से साधक का हृदय सात्विक हो जाता है , सर्वत्र परमानंद की गंगा बहने लगती है ! 


संत कबीर ने कहा है : 

१.जो सुख पाऊँ राम भजन में ,सों सुख नाहीं अमीरी में !
मन लागो मेरो यार फकीरी में !!

२. कहत कबीरा राम न जा मुख , ता मुख धूल भरी ! 
भजो रे भैया राम गोविन्द हरी !!

३. कहत कबीर सुनो भाई साधो पार उतर गये संत जना रे !!
बीत गये दिन भजन बिना रे 

इस परमानंद 'गंग' के मूल स्रोत को इंगित करते हुए कबीर ने स्पष्ट किया:    
रस गगन गुफा में अजर झरे -
जुगन जुगन की तृषा बुझाती करम भरम अध् व्याधि हरे ,
कहे कबीर सुनो भाई साधो ,अमर होय कबहूँ न मरे !!

आकाश की गुफा में निरंतर रस झरता रहता है ! अमृतरस में सराबोर गंगा रूपी झरना हृदय में बहता है ! उस जल के रस, गंध, रूप, स्पर्श, ध्वनि, में निहित आनंद अतुलनीय है निर्मल है सच पूछिए तो सर्वथा अकथनीय है !


तो क्या यह अतुलनीय दिव्य आनंद केवल सघन बनों तथा दुर्गम पर्वतीय कन्दराओं में तपश्चर्या करने वाले साधकों को ही उपलब्ध है ? 

प्रियजन , ऐसा कुछ भी नहीं है ! हम आप जैसे साधारण मनुष्यों को प्यारे प्रभु ने अपनी अहेतुकी कृपा से भरे पूरे परिवार दिये हैं और अपने अपने परिवार के लालन पालन करने की क्षमता-योग्यता दी है ! वह "प्यारा"  यह जानता है कि इस कलिकाल में हमआप घरबार छोड़ अपने उत्तरदायित्वों 
को बलाए ताख रख कर जंगलों में तपस्या करने नहीं जा सकते हैं ! अस्तु 

प्यारे प्रभु ने हम आप जैसे साधारण व्यक्तियों के समक्ष रोजगारी करके जीवनयापन करने वाले अनेकों सिद्ध महात्माओं के उदाहरण प्रस्तुत किये जिन्होंने घर बार नहीं छोड़ा और ईमानदारी से रोज़ी कमाने के दैनिक कार्य कलाप के साथ साथ अपनी ईशोपासना भजन चालू रखी ! ऐसे संतात्माओं ने भी कबीर के शब्दों में वर्णित उस "गगन गुफा " में अजर झरती आनंद गंगा का सुरस पान किया ! उन्हें भी उस अतुलनीय निर्मल आनंद का आस्वादन हुआ ! 

प्रियजन अपने निज अनुभूतियों के आधार पर मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि  सदगुरु नानक देव , नरसी भगत , संत तुलसीदास आदि के समान ही ,जुलाहे- 'कबीरदास'  , मांस ब्यापारी कसाई- 'सदना' , भीलनी- 'शबरी' तथा चर्मकार (मोची ) 'रैदास जी' को वह निर्मल आनंद बिना अपना पेशा छोड़े , इमानदारी से अपने अपने दैनिक कर्म करते हुए , सहजता से मिल गया होगा !

मीरा बाई ने ऐसे कुछ सिद्ध महात्माओं के नाम याद दिलाए :  


तुम तो पतित अनेक उधारे भव सागर से तारे 
मैं सब का तो नाम न जानूँ कोई कोई नाम उच्चारे  
धना भगत का खेत जमाया ,  
सबरी का जूठा फल खाया 
सदना औ सेना नाई को तुम लीन्हा अपनाई 
कर्मा की खिचडी तुम खाई , गनिका पार लगाई  

चर्मकार संत रैदास ने कहा था कि एक बार जो नाम भक्ति का नशा  चढ़ गया तो फिर वह उतरता नहीं ! आजीवन उस नाम की रटन  लगी रहती है! अन्ततोगत्वा नाम और नामी तो एक हो ही जाते हैं "नामाराधक साधक" भी नाम और नामी में ऐसे रचबस जाता है जैसे त्रिवेणी में गंगा यमुना और सरस्वती ! साधक साध्य से वैसे ही मिलजाता है जैसे चन्दन और पानी , सघन बन और मोर , दीपक और बाती तथा श्रेष्ठ स्वामी और उसका सच्चा निष्कपट सेवक ! 

रैदास जी का एक पद है जिसमे इस भाव का सारांश समाहित है : बहुत दिनों बाद मुझे आज उस भजन की याद आई , सहजता से उसके शब्द भी मिल गये , मैंने गाया, रेकोर्ड किया और कृष्णाजी ने चित्रांकन कर , उसको "यू ट्यूब" पर प्रेषित कर दिया , आप भी सुने :


भजन है   


                                 अब कैसे छूटे नाम रट लागी 



  अब कैसे छूटे नाम रट लागी 
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प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा , ऎसी भगति करे  रैदासा
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संत रैदास संत कबीर आदि महात्माओं की निजी अनुभूतियों के अनुसार कोई भी कर्मठ व्यक्ति यदि अपने सांसारिक "कर्म" ईमानदारी से करता हुआ ,साथ साथ श्रद्धायुक्त भजन (उपासना) भी करता रहे तो निश्चय ही वह परमानंद स्वरूपी प्यारे प्रभु का साक्षातकार पा सकता है !

निवेदक : व्ही एन श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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