शनिवार, 11 जनवरी 2014

कलिकाल की भक्ति


भक्ति 

अनंतश्री स्वामी अखंडानन्दजी सरस्वती ने कहा था  
"जीवन" जीने का वह ढंग जिससे भगवान की प्राप्ति हो उसे 
"भगवत धर्म" कहते हैं !


जिज्ञासु साधक के हृदय में "प्यारे प्रभु" के प्रति 'अखंड प्रीति' अर्थात "भगवद भक्ति", जगाने और उसे अविचल बनाये रखने के लिए किया गया कर्म - (उनकी 'क्रिया')  ही "भगवत धर्म" है !    

पौराणिक ग्रन्थों में ऐसे नौ [ ९ ] कर्म उल्लिखित हैं

  
 श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
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परन्तु कलिकाल में हम आप जैसे साधारण इंसानों के लिए, अपने प्यारे इष्ट देव की प्रीति, श्रद्धा और विश्वास को अविचल रख कर उनकी "भक्ति" प्राप्त करने हेतु, उपरोक्त नौ साधनों में से आसानी से अपनाने योग्य केवल निम्नांकित तीन साधन सुझाये गये हैं -

श्रवण, कीर्तन और स्मरण 

इन साधनों के द्वारा साधकों का प्रेमास्पद इष्ट "आनंद-रस" के रूप में प्रकट होता है ! 

उपनिषद के अनुसार ईश्वर का स्वरूप ही रस है !

कलिकाल में मीरा, सूर, तुलसी, चैतन्य महाप्रभु , नरसी मेहता आदि को कीर्तन श्रवण स्मरण के सुरस में सराबोर होने से ही निज वास्तविक स्वरूप का बोध हुआ था , उन्हें दिव्य आनंद का अनुभव हुआ था ! परमानंद की उस अनुभूति में उन्हें उनके प्रेमास्पद प्रभु मिल गये थे !


अनंत काल से प्रसुप्त मानव आत्मा को जगाने 
और उसमे भक्तिभाव स्थापित करने का सवोत्तम साधन रहा है 
"हरि कथा श्रवण, स्मरण एवं भजन - कीर्तन"!

कलियुग के सिद्ध संतों ने कठिन तपश्चर्या एवं यज्ञादिक कर्मों की अपेक्षा,
उपरोक्त इन तीनों साधनों को अन्तःकरण को कोमल बनाने और 
 निज "हृद्यासन" को "प्रभु" के स्वागत योग्य पवित्र  बनाने का 
सरलतम साधन बताया है !


१. श्रवण : श्रवण भक्ति एक कला है! पूरी लग्न लगाकर .एकाग्र मन से निष्ठा से जिज्ञासा की तृप्ति हेतु परमेश्वर की अलौलिक लीला, उनके जन्म , कर्म ,गुण की कथा, महत्व, स्त्रोत इत्यादि को सतत सुनते रहने की अतृप्त पिपासा , इतना कि जैसे बिना सुने रहा ही न जाए ! साधक की यह स्थिति ही है "सात्विकी श्रवण भक्ति"  ! ऐसे श्रवण द्वारा साधक अपने मन को अपने इष्ट के गुणों की कथा में तन्मय कर के "प्रेम रस" में सराबोर हो जाता है !

२. कीर्तनं : मन मंदिर में अपने "प्यारे प्रभु" का विग्रह प्रतिष्ठित कर, बंद नेत्रों से "प्यारे" की छवि निरंतर निहारते हुए , सुध बुध खोकर "उनका" गुणगान करना , गीत संगीत द्वारा "उनकी" अनंत कृपाओं के लिए अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करना, यह है भजन कीर्तन ! 

कीर्तन आत्मा  से निकली हुई झंकार है ! कीर्तन में मोहक शक्ति है  ! 

कीर्तन दो प्रकार का होता है, धुनात्मक और गीतात्मक ! अपने सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी ने कहा था :-

राम राम सुगुनी जन गाते, 
स्वर संगीत से राम रिझाते !! 
कीर्तन कथा करते विद्वान, 
सार सरस संग साधनवान !! 

गायन के दौरान केवल गायक का ही नहीं वरन सभी वास्तविक प्रभुप्रेमी श्रोताओं का उस निर्मल आनंद में सराबोर होकर  रोमांचित होना तथा उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु का झरना है भजन कीर्तन का चमत्कारी प्रभाव !

३.स्मरण :( सुमिरन या सिमरन )  हमारे सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी ने अमृतवाणी में कहा है:  

राम नाम सिमरो सदा अतिशय मंगल मूल,
विषम विकट संकट हरण कारक सब अनुकूल !' 
और 
'सिमरन राम नाम है संगी ! सखा सनेही सुहृद शुभ अंगी !!'  

प्रियजन, श्रवण तथा कीर्तन  तभी आनंद प्रदायक होंगे जब साधक निरंतर अनन्यभाव से परमेश्वर का स्मरण करेगा ! जब साधक अपने प्यारे के महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर पूर्ण रूप से अपने इष्ट के प्रेम में लीन होगा, जब वह तन मन की सुधि भुला कर मीरा की भांति " पग घुँघरू बाँध" कर नाचेगा तभी उसे  उस निर्मल परमानंद   की अनुभूति होगी  !

साधक प्रियजनों, आपको याद दिलाऊँ "स्मरण" ( सुमिरन ) का महत्व उजागर करते हुए सद्गुरु नानकदेव ने गाया था :-


सुमिरन कर ले मेरे मना 
तेरी बीती उमर हरि नाम बिना 

और संत सूरदास जी ने भी स्वयं को चेतावनी देते हुए कहा था   :-


कितक दिन हरि सुमिरन बिन खोये !  
पर निंदा  रस  में   रसना ने  अपने परत  डबोये !!
कितक दिन हरि सुमिरन बिन खोये !! 
काल बलीते सब जग कम्पत ब्रह्मादिक भी रोये !
  सूर अधम की कहो कौन गति उदर भरे पर सोये !! 

ये तीनों साधन अपने प्रभु को याद रखने और उन्हें अपने अंग संग बनाए रखने में सहायक हैं ! इनसे मन प्रसन्न रहता है , नेत्र सजल हो जाते है, शरीर पुलकित होता है और अंतरतम की ऊर्जा जाग्रत रहती है ! 

श्रवण, कीर्तन, स्मरण के सरल साधनों  द्वारा हम आप जैसे साधारण साधकों के हृदय में भी अति सुगमता से उस प्रेम लक्षणा भक्ति का अवतरण होता है जो न केवल हम साधकों को बल्कि हमारे इष्ट मित्रों को भी आत्मिक आनंद में डुबो देता है !  

राग  रागिनी गाय कर जो  भजते  भगवान 
सफल जन्म उनका गिनो सफल कर्म शुभ ज्ञान 

जिनके मन में राम का  बसे सुरीला राग 
बजे बाँसुरी प्रेम की , हैं वे ही बड भाग

[सद्गुरु श्री स्वामी सत्यानन्द जी] 


मेरा निज अनुभव इस तथ्य की पुष्टि करता  है ! स्मरण-श्रवण-कीर्तन इन तीनों युक्तियों को एक ठांव संजोये, महात्माओं के संगीतमय प्रवचन सुन कर , गदगद होकर मैं कितना रोमांचित होता हूँ ? आनंदित होकर कितने अश्रु ढलकाता हूँ ? मैं स्वयम नही जानता ! शब्दों में अपने मन की उस स्थिति को बयान करने का साहस मैं नहीं करूँगा !

प्रियजनों, सदियों पूर्व बाबा हरिदास तथा सूफियों का भक्ति पूर्ण गायन सुनने का सौभाग्य तो मुझे मिला नहीं परन्तु आजकल के अनेक संगीत-निपुण महात्माओं के प्रवचन सुनने का सुअवसर मुझे अक्सर मिला है!श्रीश्री माँ आनंदमयी  तथा लक्षमन टीला अयोध्या के संत शिरोमणि श्री सीता राम सरन जी के संगीतमय प्रवचन सुन कर मुझे दिव्य आनन्द मिलता था और मेरी आँखे  छल छलाती रहतीं थीं ! 


मम गुण गावत पुलक सरीरा ! गदगद् गिरा नयन भरि  नीरा !!
(संत तुलसीदास) 

मुझे आनंदाश्रु ढल्काते देख "श्रीश्री माँ" ने एक सभा में अपने प्रवचन के अधिकांश अंश मे, मेरे कहे बिना ही ,केवल मेरी शंकाओं का ही समाधान किया ! ऎसी ही स्थिति में एक बार संत सीतारामसरनजी ने व्यास आसन से दूर श्रोताओं की पिछली पंक्ति में बैठे इस दासानुदास पर , आंसू पोछने के लिए केसरिया रंग का एक सुगन्धित रूमाल फ़ेंक कर इस दास को चौंका दिया ! रूमाल पाकर अश्रु झडी थमी नहीं और  बढ़ गयी !

ऐसे अनेकानेक अनुभव मुझे अभी तक होते रहते हैं ! यहाँ यू एस ए में पंडित जसराज के एक बार के प्रणवाक्षर "ओम" के उच्चारण ने केवल मुझे ही नहीं हजारों श्रोताओं को रोमांचित कर दिया था और "हॉल" में उपस्थित लगभग सभी व्यक्तियों की आँखें डबडबा गयीं !

जब जीभ से प्रभु का भजन-कीर्तन हो , कान से उसका श्रवण  हो ,  मन से उनका स्मरण कर उनके लीला , रूप ,गुण ,धाम का मनन हो   तब  साधक संसार  को भूल जाता है और उसका मन प्रभु से जुड़ जाता है !


श्री मद् भागवद  पुराण  में योगेश्वर श्री कृष्ण का कथन है -----

जैसे भोजन करने वाले को प्रत्येक ग्रास के साथ  ही तुष्टि {तृप्ति अथवा सुख } पुष्टि {जीवन शक्ति का संचार } और क्षुधा निवृत्ति --ये तीनों एक साथ मिल  जाते हैं वैसे ही  जो मनुष्य भजन करने लगता है , उसे भजन के प्रत्येक पल में भगवान के प्रति प्रेम, अपने आराध्य के स्वरूप का अनुभव और अन्य पदार्थों से वैराग्य -- इन तीनों की प्राप्ति हो जाती है !

प्रियजन 
 यदि आपके पास सुविधा है और सुनने के लिए ७-८ मिनट का अवकाश है ,  
तो कृपया मेरा यह भजन सुन लीजिए !
पहली जनवरी '१४ के प्रात दैविक प्रेरणा से यह पुराना भजन 
नूतन कलेवर में मेरे कंठ से प्रस्फुटित हुआ ,

प्रस्तुत है सूरदास जी का "स्मरणं" सम्बन्धी यह पद 

हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो  
हरि चरणारविन्द उर धरो 

हरि की कथा होय जब जहां , गंगा हू चलि आवे तहां 

हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो


हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो 

जमुना सिंधु सरस्वती आये , गोदावरी विलम्ब न लाये 
सर्व तीर्थ को बासा तहां , सूर हरि कथा होवे जहां 
हरि की कथा होय जब जहां , गंगा हू चलि आवे तहां 

हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो
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("संत सूरदास" का पद , गायक - "भोला" )
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निवेदक : व्ही . एन .श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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यह भजन निम्नांकित लिंक पर उपलब्ध है   .

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