सिया राम के अतिशय प्यारे,
अंजनिसुत मारुति दुलारे,
श्री हनुमान जी महाराज
के दासानुदास
श्री राम परिवार द्वारा
पिछले अर्ध शतक से अनवरत प्रस्तुत यह

हनुमान चालीसा

बार बार सुनिए, साथ में गाइए ,
हनुमत कृपा पाइए .

आत्म-कहानी की अनुक्रमणिका

आत्म कहानी - प्रकरण संकेत

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

माँ का आशीर्वाद

अन्तिम भजन 

[ दिसम्बर २०११ के संदेश के आगे]
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दिसम्बर १९६२ की तीसरी या चौथी तारीख की बात है ! हम भलीभांति जानते थे कि अम्मा के जीवन के केवल कुछ एक दिन ही शेष हैं !

हमे याद है कि कैसे उस सुबह , फेक्ट्री जाते समय अम्मा ने मुझे रोका और बड़े प्यार से अपनी आरामकुर्सी के हत्थे पर बैठा कर काफी देर तक मुझे खूब प्यार से निहारा !  उस घड़ी ,ममता की साकार प्रतिमा हमारी अम्मा का संवेदनशील हृदय मानों आँखों ही आँखों  मुझ पर अपना अमित स्नेह सलिल बरसा देना चाहता था !








उस समय जैसे ,उनकी अधखुली आँखों के झरोखे से झाँकतीं आंसुओं की बूँदें मेरे जीवन की सभी उलझनों को डुबो देने को मचल रहीं थीं ! अम्मा के उन आंसुओं में मेरे जनम जन्मान्तर के सभी पापों को धो देने की पूरी क्षमता थी ! उन अश्रुकणों में निहित प्यार को किसी भी सांसारिक पैमाने से नाप पाना असंभव था !

मैं उनकी प्यार भरी नजरों की भाषा बिलकुल समझ रहा था ! मैं जानता था वह क्या सोच रहीं थीं उस समय ! उन्हें अपने लाडले छोटे बेटे "भोलंग" के चेहरे पर उदासी की छोटी सी छाया भी नहीं देखी जाती थी ! "पर दुःख दुखी , सुखी पर सुख से" वाले स्वभाव की मेरीप्यारी अम्मा किसीभी , जी हाँ, किसी भी प्राणी को दुखी नहीं देख सकतीं थीं ! मैं तो सौभाग्य से उनका अतिशय प्रिय , दुलारा , छोटा वाला बेटा था !

मैंने बचपन में स्वयम देखा था और शायद पहले आपको एक बार बताया भी है कि कैसे अम्मा अपने बंगले की जमादारिन  की नवजात बिटिया 'मखनिया' तक की देखरेख और सेवा सुश्रूषा ,अपना नित्य कर्म - पूजा पाठ आदि छोड़ कर भी , उस समय करतीं थीं जब जमादारिन आस पास के दूसरी कोठियों में अपना काम किया करती थी !

कैसे वह द्वितीय विश्व युद्ध के जमाने की महंगाई और तंगी के दौरान भी ,[ जब बाबूजी की आर्थिक स्थिति बुरी तरह डांवाडोल हो गयी थी ] , बाबूजी के चोरी छुप्पे नित्य प्रतिगंगा घाट के भिक्षुकों को अन्न दान करतीं थीं !  यही नहीं , तीज त्योहारों पर , घाट पर स्थित वैदिक गुरुकुल के निर्धन विद्यार्थियों के छात्रावास में मिठाइयां पहुंचा कर उन अनाथ बच्चों के दिवस मिठास से भर देतीं थीं !

हाँ , अगले महीने के पहले सप्ताह में जब घाट का हलवाई मिठाइयों का बिल बना कर लाता था , और बाबूजी पूछते थे तो अम्मा अपनी सहज भोजपुरी भाषा में कहतीं थीं , " का खाली भोला गजाधर हमार लडिका बाडन , खाली ऊहे मिठाई खैहंन और कुल लडिका सब ना खैयें का ?" [ क्या केवल भोला-गजाधर ही हमारे बेटे हैं ? केवल वह ही मिठाई खाने के अधिकारी हैं? क्या और बच्चे मिठाई नहीं खा सकते ? ]

हमारी अम्मा, मंदिर-शिवालय भी जातीं थीं ! व्रत उपवास भी करतीं थीं ! कभी कभी घर पर भगवान श्री सत्यनारायण की कथा भी करवातीं थीं ! गाहेबगाहे संतों के प्रवचन सुनने के लिए घर से दूर सत्संगों में भी जातीं थीं !

लेकिन सड़क के किनारे भीख मांगते अनाथ बालकों के धूलधूसरित चेहरों पर खिची आंसुओं की रेखाओं को अपने आंचल से पोंछ कर, उन्हें कुछ खिला पिला कर, उनके उदास मुखमंडल पर प्रसन्नता की एक किरण बिखेरना , वह अपना सर्वोच्च धर्म मानती थीं !

सो ऎसी माँ अपने लाडले बेटे के मुख को कैसे उदास देख सकती है ? इशारे से ही उन्होंने पूछा "काहे उदास हो बेटा ? उदास नहीं ,उदासीन बनो !" अपनी कैंसर की भयंकर पीड़ा के प्रति पूर्णतः उदासीन बनीं वह ,मुझे भी अपने निश्चित पलायन के प्रति उदासीन बने रहने का संदेश दे रहीं थीं !

एक भेद की बात कहूँ, हमारी प्यारी अम्मा , हम चारों भाई बहनों से [ जो कोई भी सबेरे सबेरे उनकी पकड़ में आया उससे ] , प्रातः उठते ही ,प्रेम-भक्ति, शरणागति एवं वात्सल्य रस से भरे ,मीराबाई , तुलसीदास, सूरदास ,नन्ददास एवं  संत कबीर की भक्तिमयी रचनाएँ अवश्य सुनतीं थीं  ! बिना भजन सुनाये "पन पियाव" [ब्रेकफास्ट] नहीं मिलता था !  और हम उन्हें सहर्ष सुनाते भी थे - क्यूँकि  इस बहाने मैं अपनी छोटी बहन माधुरी  के रेडियो प्रोग्राम के भजन की धुन पक्की कर लेता और मधू का रियाज़ भी हो जाता था !

(१)
जागो बंसी वारे ललना जागो मेरे प्यारे ,

रजनी बीती भोर भयो है , घर घर खुले किवारे 
गोपी दही मथत सुनियत है ,कंगना के झंकारे  ,
जागो बंसी वारे ललना जागो मेरे प्यारे , 

मीरा के प्रभु गिरिधर नागर सरन आय को तारे  
जागो बंसी वारे ललना जागो मेरे प्यारे 

(२)
जागिये रघुनाथ कुंवर पंछी बन बोले 
जागिये रघुनाथ कुंवर पंछी बन बोले 

चंद किरण शीतल भयी, चकयी पिय मिलन गयी 
त्रिविधि मंद चलत पवन ,पल्लव द्रुम डोले 
जागिये रघुनाथ कुंवर पंछी बन बोले 

तुलसिदास अति अनंद निरखि के मुखारविंद 
दीनन को देत दान ,  भूषण बहुमोले 
जागिये रघुनाथ कुंवर पंछी बन बोले 

अथवा 
(३)
राम कृष्ण कहिये उठ भोर 
अवध ईश वे धनुष धरे हैं , यह बृज माखन चोर , 
राम कृष्ण कहिये उठ भोर 
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उन सागर में शिला तराई , इन राख्यो गिरि नख की कोर् ,
'नंददास' प्रभु सब तजि भजिये ,जैसे निरखत चंद चकोर 
राम कृष्ण कहिये उठ भोर  
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[ हमने इन भजनों को उस जमाने में इतना गाया, इतना गाया  कि उनके एक एक शब्द हमे अब तक याद है ! जी हाँ आज - अब भी , जब मैं दवाइयों के नशे में कभी कभी स्वयं अपना तथा अपने बालबच्चों  के नाम तक भूल जाता हूँ ]  

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परन्तु उन दिनों [नवम्बर -दिसम्बर १९६२ में] अम्मा हमसे कुछ और ही सुनना चाहतीं थीं  

आई गवनवा की सारी ,उमिर अबही मोरी बारी
साज सिंगार पिया ले आये और कहरवा चारी 
बम्ह्ना बिदर्दी अंचरा पकड़ के जोडत गाँठ हमारी 
भई हम सबका भारी 
  आई गवनवा की सारी ,उमिर अबही मोरी बारी
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कहत कबीर सुनो भाई साधो ,यह सब लेहू विचारी
अबके जाना बहुरि नहीं आना, करिलहू भेंट करारी
करम गति जाइ टारी

आयी गवनवा की सारी ,उमिर अबही मोरी बारी
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आप ही कहो मित्रों , कैसे सुनाते हम ,उस दशा में ,उनको ,
वास्तविकता दर्शाता यह करुण भजन ?
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अब तो इसके आगे कुछ लिखना भी मुश्किल लग रहा है ,
आश्वस्त हो कर फिर कभी लिखूँगा !
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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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