संत स्वभाव अधिग्रहण
कैसे ?
हम स्वाध्याय करते हैं ,अपने अपने सम्प्रदायों के धर्मग्रंथों का अध्ययन करते हैं और मत के प्रचारकों के आध्यात्मिक अनुभव जनित संस्कारों का अनुसरण-अनुकरण करते है ; हम विद्वान और सिद्ध महापुरुषों के मर्मस्पर्शी ओजपूर्ण प्रवचन सुनते हैं ; हम उनके वन्शी-वायलिन , ढोलक-तबला ,बेंजो-सितार ,झांझ मजीरा और हारमोनियम आदि वाद्यों से सजे भक्ति भाव से भरे पद सुनते हैं और मंत्रमुग्ध हो कर झूम झूम कर नाचते हैं ! लेकिन ====
स्वाध्याय से उठते ही और प्रवचन पंडाल से घर वापस आते आते , मार्ग में ही हम भूल जाते हैं कि हमने क्या पढ़ा था और प्रवचन में क्या सुना था ! लेकिन , प्रियजन , हम अपनी मा के गर्भ में और उनकी गोद में उनके आंचल तले उनका सुमधुर पय पान करते समय जो वार्ता और जो गीत सुनते हैं वह हमे आजीवन विस्मृत नहीं होते !
गृहस्थ संत माननीय श्री शिवदयालजी -
"बाबू" का जीवन बालपने से ही मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्री राम के अलौकिक चरित्र से प्रभावित रहा ! शैशव में अपनी अम्मा की गोदी में , तुलसी कृत "राम चरित मानस" के प्रेरणात्मक भक्ति उत्पादक प्रसंगों तथा हनुमान चालीसा को सुनना और सात वर्ष की अवस्था में ही "गुरु दीक्षा" पा लेना ; तदोपरांत सिद्ध साधू संतों के सत्संग का और उनके सान्निध्य का लाभ पाना , फल स्वरूप उनके चरित्र में अति सहजता से "संतत्व" के लक्षण" अवतरित होना दैविक कृपा का प्रत्यक्ष दर्शन ही तो है !
स्वाध्याय और सत्संगति से उपलब्ध संतत्व के लक्षणों को शिवदयाल जी आजीवन बहुमूल्य आभूषणों के समान अपने आचार -विचार और व्यवहार में संजोये रहे ! पिताश्री के निधन के बाद भी वह अनेकों सामाजिक और आध्यात्मिक संस्थानों से जुड़े रहे , यथा संभव उनकी सेवा करते रहे ; घर पर साधु संतों का स्वागत करते रहे ,आजीवन महान संतों के दर्शन किये ,उनके सानिद्ध्य में रहें ,उनसे आत्मीयता बनाये रहेऔर उनसे मार्ग -दर्शन पाते रहे !
चलिए अब कुछ हल्की फुल्की बात भी हो जाए ,अपनी आत्मकथा से ही कुछ सुनाता हूँ :
नवम्बर २९ ,१९५६, दूल्हे - "भोला बाबू" [अर्थात मेरी ] बारात , "नख से शिख" तक पूर्ण रूप में ढकीं दुल्हिन "कृष्णा जी" के साथ विदा हो रही थी ! वायुमंडल में नर-नारियों की "सिसकियों" का तरल-सरल-संगीत हौले हौले प्रवाहित हो रहा था ! ऐसे में "कोमल चित अति दीन दयाल - "भोला बाबू" भी अपने आँसुओं का प्रवाह नियंत्रित न रख सके और 'स्थानीय सामूहिक सिसकी सम्मेलन' में सम्मिलित हो गये ! उस समय वहाँ उपस्थित , वधु के परिवार के मुखिया - पिता सदृश्य बड़े भाई शिवदयाल जी ने तुरंत ही अपनी जेब से एक सफेद रूमाल निकाला और नये नये बहनोई बने -"भोलाबाबू" की सेवा में पेश कर दिया ! वधुपक्ष की सिसकियाँ तत्काल खिलखिलाहट में तब्दील हो गयीं ! भोले भाले वर महोदय थोडा लजाये लेकिन कुछ समय में ही उन्होंने , अपने को सम्हाल लिया !
आप इसे मेरी ओर से इस वर्ष की 'होली' का बचा खुचा [बासी ही सही] परिहास प्रसाद समझ कर स्वीकारें , अनुग्रहित होउंगा !
स्वजन मुझे यहाँ ,अपनेआप पर , आप सबको , हंसाने की एक और बात याद आ रही है ,सुनादूं :रूमाल देने के बाद श्री शिवदयाल जी ने एक पोटली मेरी ओर बढाई ! दान दहेज के अभिशाप से रंजित समाज का सपूत - 'मैं' तत्कालिक सोच के अनुरूप , मन ही मन प्रफुल्लित हुआ कि शायद साले साहब कुछ धन राशि देकर अपनी प्रिय बहन की उचित रख रखाव का आश्वासन मुझसे लेना चाहते हैं ! हाथ बढाते हुए ,मैंने लखनउवा तकल्लुफी अंदाज़ में कहा, --"अरे , भाई साहब इसकी क्या ज़रूरत है ? [ लेकिन मेरा हाथ आगे बढा ही रहा, इस डर से कि कहीं वो पोटली वापस न रख लें ] ! वह निराश न होंजाएँ, इस सद्भावना से मैंने समुचित मनावन के बाद वह पोटली स्वीकार कर ली !
सबके समक्ष मैं वह पोटली खोलना नहीं चाहता था [कारण आप समझ गये होंगे] अस्तु उसे किसी अन्य को सौंप कर पाक साफ़ दिखने का प्रयास कर रहा था कि तभी एक होनहार वकील सदृश्य उन्होंने समझाया " आप सरकारी अफसर हैं ,आपको इस प्रकार बिना देखे किसी से कोई पोटली स्वीकार नहीं करनी चाहिए " ! एक बार फिर सिसकियों पर खिलखिलाहट हाबी हो गई !
अब आगे की सुनिए , पोटली खोल कर मैं अवाक रह गया ! उसमें नोटों का बंडल नहीं था ! इस पोटली में थी एक लघु पुस्तिका "उत्थान पथ"! यह पुस्तिका शिवदयाल जी ने मेरे विवाह के अवसर पर सभी अतिथियों तथा स्वजनों में वितरित करने के लिए छपवाई थी !
उस पुस्तिका में श्रीमद्भगवद्गीता और रामचरितमानस से उद्धृत वो अमूल्य श्लोक , दोहे तथा चौपाइयां हैं जिनके पठन -पाठन ,मनन- चिंतन एवं आचरण में उतार लेने से अति सहजता से मानव जीवन का समग्र विकास होता है और उसके भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही उत्थान सुनिश्चित हो जाते हैं ! श्री राम परिवार की दैनिक प्रार्थनाओं में उस पुस्तिका का पाठ अनिवार्य रूप से प्रतिदिन होता है !
बुधवार के रामायण पाठ में संतत्व के लक्षण युक्त वो अंश हैं जिनके व्यवहार में लाने से हम अपने जीवन में अति सहजता से ,सरलता ;विनम्रता ,मधुरता आदि सद्गुनों का समावेश कर सकते हैं , जिससे अन्ततोगत्वा हमारा भौतिक एवं आध्यात्मिक समग्र उत्थान सुनिश्चित हो जाता है !
आइये आपको तुलसी रामायण से , संतो के लक्षण गा कर बताऊँ :
श्री शिव दयालजी के चिंतन -मनन ,आचार-विचार-स्वभाव तथा उनके दैनिक व्यवहार एवं कार्य कलाप पर तुलसीकृत मानस एवं श्रीमद-भगवद्गीता की अमिट छाप अंकित हुई ;जिसके कारण वह सतत प्रबुद्ध और जागृत रहे और अपने आप को संयमित और नियंत्रित रख सके !
चलिए अब कुछ हल्की फुल्की बात भी हो जाए ,अपनी आत्मकथा से ही कुछ सुनाता हूँ :
नवम्बर २९ ,१९५६, दूल्हे - "भोला बाबू" [अर्थात मेरी ] बारात , "नख से शिख" तक पूर्ण रूप में ढकीं दुल्हिन "कृष्णा जी" के साथ विदा हो रही थी ! वायुमंडल में नर-नारियों की "सिसकियों" का तरल-सरल-संगीत हौले हौले प्रवाहित हो रहा था ! ऐसे में "कोमल चित अति दीन दयाल - "भोला बाबू" भी अपने आँसुओं का प्रवाह नियंत्रित न रख सके और 'स्थानीय सामूहिक सिसकी सम्मेलन' में सम्मिलित हो गये ! उस समय वहाँ उपस्थित , वधु के परिवार के मुखिया - पिता सदृश्य बड़े भाई शिवदयाल जी ने तुरंत ही अपनी जेब से एक सफेद रूमाल निकाला और नये नये बहनोई बने -"भोलाबाबू" की सेवा में पेश कर दिया ! वधुपक्ष की सिसकियाँ तत्काल खिलखिलाहट में तब्दील हो गयीं ! भोले भाले वर महोदय थोडा लजाये लेकिन कुछ समय में ही उन्होंने , अपने को सम्हाल लिया !
आप इसे मेरी ओर से इस वर्ष की 'होली' का बचा खुचा [बासी ही सही] परिहास प्रसाद समझ कर स्वीकारें , अनुग्रहित होउंगा !
स्वजन मुझे यहाँ ,अपनेआप पर , आप सबको , हंसाने की एक और बात याद आ रही है ,सुनादूं :रूमाल देने के बाद श्री शिवदयाल जी ने एक पोटली मेरी ओर बढाई ! दान दहेज के अभिशाप से रंजित समाज का सपूत - 'मैं' तत्कालिक सोच के अनुरूप , मन ही मन प्रफुल्लित हुआ कि शायद साले साहब कुछ धन राशि देकर अपनी प्रिय बहन की उचित रख रखाव का आश्वासन मुझसे लेना चाहते हैं ! हाथ बढाते हुए ,मैंने लखनउवा तकल्लुफी अंदाज़ में कहा, --"अरे , भाई साहब इसकी क्या ज़रूरत है ? [ लेकिन मेरा हाथ आगे बढा ही रहा, इस डर से कि कहीं वो पोटली वापस न रख लें ] ! वह निराश न होंजाएँ, इस सद्भावना से मैंने समुचित मनावन के बाद वह पोटली स्वीकार कर ली !
सबके समक्ष मैं वह पोटली खोलना नहीं चाहता था [कारण आप समझ गये होंगे] अस्तु उसे किसी अन्य को सौंप कर पाक साफ़ दिखने का प्रयास कर रहा था कि तभी एक होनहार वकील सदृश्य उन्होंने समझाया " आप सरकारी अफसर हैं ,आपको इस प्रकार बिना देखे किसी से कोई पोटली स्वीकार नहीं करनी चाहिए " ! एक बार फिर सिसकियों पर खिलखिलाहट हाबी हो गई !
अब आगे की सुनिए , पोटली खोल कर मैं अवाक रह गया ! उसमें नोटों का बंडल नहीं था ! इस पोटली में थी एक लघु पुस्तिका "उत्थान पथ"! यह पुस्तिका शिवदयाल जी ने मेरे विवाह के अवसर पर सभी अतिथियों तथा स्वजनों में वितरित करने के लिए छपवाई थी !
उस पुस्तिका में श्रीमद्भगवद्गीता और रामचरितमानस से उद्धृत वो अमूल्य श्लोक , दोहे तथा चौपाइयां हैं जिनके पठन -पाठन ,मनन- चिंतन एवं आचरण में उतार लेने से अति सहजता से मानव जीवन का समग्र विकास होता है और उसके भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही उत्थान सुनिश्चित हो जाते हैं ! श्री राम परिवार की दैनिक प्रार्थनाओं में उस पुस्तिका का पाठ अनिवार्य रूप से प्रतिदिन होता है !
बुधवार के रामायण पाठ में संतत्व के लक्षण युक्त वो अंश हैं जिनके व्यवहार में लाने से हम अपने जीवन में अति सहजता से ,सरलता ;विनम्रता ,मधुरता आदि सद्गुनों का समावेश कर सकते हैं , जिससे अन्ततोगत्वा हमारा भौतिक एवं आध्यात्मिक समग्र उत्थान सुनिश्चित हो जाता है !
आइये आपको तुलसी रामायण से , संतो के लक्षण गा कर बताऊँ :
संत तुलसीदास ने संत स्वभाव का निरूपण करते हुए बतलाया है कि संत सतत सावधान रहता है , दूसरों को उचित सम्मान देता है ! वह अभिमान रहित और धैर्यवान होता है और अपने आचरण में अत्यंत निपुण होता है !
संत-जन अपने कानों से अपना गुणगान सुनने में सकुचाते हैं और दूसरों के गुण सुनकर विशेष हर्षित होते हैं ! वे स्वभाव से "सम" और "शीतल" होते हैं ! वे किसी भी परिस्थिति में न्याय का परित्याग नहीं करते और अति सरलता से सभी से प्रेम करते है !
संतजन जप, तप, व्रत , दम, संयम और नियम में सतत रत रहते हैं और अपने गुरुजन , अपने इष्ट देव तथा विद्वानजन के चरणों में विशेष प्रेम रखते हैं ! संतजन श्रद्धा , क्षमा , मैत्री, द्या ,मुदिता [प्रसन्नता] से युक्त होते हैं और उनके हृदय में अपने इष्ट - "प्रभु" के चरणों के प्रति निष्कपट प्रेम होता है !
संतों को विवेक, वैराग्य ,विनय , विज्ञान [अर्थात 'परम तत्व' का ]तथा पौराणिक ग्रंथों का यथार्थ ज्ञान होता है ! वे कभी भी दम्भ ,अभिमान तथा मद नहीं करते और भूल कर भी कुमार्ग पर पैर नहीं रखते !
संतों को उनकी निंदा और स्तुति दोनों ही एक समान प्रतीत होते हैं और उन्हें प्यारे प्रभु के चरण कमलों में अथाह ममता होती है ! वे सद्गुणों के धाम और सुख की राशि होते हैं ! ऐसे सद्गुणों से सम्पन्न संतजन परमात्मा को अतिशय प्रिय होते हैं !
प्रियजन ,हम ईश्वरीय सत्ता के किसी भी स्वरूप के विश्वासी हों ,हम परब्रह्म परमात्मा को चाहे सगुण निराकार माने ,या निर्गुण निराकार माने अथवा 'सगुण साकार मांन कर उनके प्रति अपनी आस्था रखें ; चाहे हम उनके किसी भी स्वरूप के उपासक हों, हमे ये जानना चाहिए कि ये सभी ईश्वरीय सत्तायें केवल ऐसे ही जीवों से प्यार करती हैं जो उपरोक्त "संतत्व के सभी लक्षणों" से युक्त हों !
आज नव् वर्ष के प्रथम दिवस - ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिप्रदा पर हमारी हार्दिक बधाई स्वीकारें और प्यारे प्रभु से प्रार्थना करें कि सहजता से हमें संतत्व के उपरोक्त गुण प्राप्त हो जाएँ !
[क्रमशः]
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निवेदक: व्ही एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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1 टिप्पणी:
काकाजी प्रणाम | बहुत ही सुरीले ढंग से संत के गुणों की जानकारी |
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