शनिवार, 31 मार्च 2012

बाबा विश्वनाथ औघडदानी


                                जय शिव शंकर औघडदानी 

शिवरात्रि तो लगभग दो महीने पहले फरवरी में ही गुजर गयी ! उस दिन प्रातः से मध्य रात्रि तक कृष्णा जी [ धर्म पत्नी ] ने उपवास रखा था ! एक बात बताऊँ वह अपने सभी व्रत और उपवास बड़ी श्रद्धा और विश्वास के साथ सभी औपचारिकताओं का पालन करते हुए निभाती हैं !

उपवास के दिन वह पूरे दिन भोजन नहीं करतीं और दिन भर आध्यात्मिक ग्रंथों का पाठ करतीं हैं ! बहुत आग्रह करने पर वह बीच बीच में मुझे भी अपने आध्यात्मिक अध्ययन में शामिल कर लेतीं हैं और इस प्रकार मुझे भी उनकी व्यास पीठ से कुछ ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है ! बहती भागीरथी में मैं भी अपने हाथ धो लेता हूँ !

अन्य सब देवताओं को छोड़ कर हमारी कृष्णा जी ने शंकर जी की ही उपासना आराधना क्यूँ की उसका कारण जान कर उनके [ कृष्णा जी ] के प्रति मेरी श्रृद्धा भक्ति की भावना आकाश छू गयी ! उनकी सहेलियों ने मुझे बताया कि दक्ष कन्या सती के समान कृष्णा जी को भी बालपन से ही शंकर जी जैसे उदार,सुंदर , सुडौल ,समर्पित सुयोग्य, बम् भोला पति प्राप्ति की मनोकामना जाग्रत हो गयी थी !
  
आप तो जानते ही हैं कि भारत में बहुधा कुंवारी लड़कियों की माताएं उन्हें अच्छे वर की प्राप्ति के लिए ,शंकर भक्ति की ओर प्रेरित करती हैं और उन्हें जबरदस्ती  सोमवार का उपवास रखने को मजबूर करती हैं ! कृष्णाजी ने संभवतः इसी भावना से प्रेरित होकर बचपन से ,स्वेच्छा से ही , स्वान्तः सुखाय , निज स्वार्थसिद्धि के लिए ( सुयोग्य पति प्राप्ति की अभिलाषा से ) ,सोमवार तथा शिवरात्रि का यह व्रत रखना प्रारंभ किया था और वह अपना शिवरात्रि वाला व्रत आज तक निभा रही हैं !

सोमवार वाला व्रत उन्होंने मुझ भोले भाले पति की प्राप्ति के बाद छोड़ दिया ! सच पूछिए तो इस आशंका से भयभीत होकर ,कि कहीं औघढ़दानी शंकर जी , अधिक प्रसन्न हो कर कृष्णाजी को मुझसे भी अच्छा ,"इम्प्रूव्ड मॉडल"  का दूसरा पति न प्रदान करदें और मुझे  'अन्सर्विसेबिल'  कह कर 'डिस्कार्ड' कर दिया जाये मैंने ही कृष्णाजी से बहुत इसरार और चिरौरी करके उनसे सोमवार का व्रत बंद करवा दिया !  ठीक किया न भैया ? आप ही कहो उस औघडदानी का क्या भरोसा ? 

पत्नी पुराण बंद करता  हूँ ! अब आत्म कथा सुनाता हूँ :

बचपन में ,बहुधा  गर्मियों की छुट्टी में हम "बाबा विश्वनाथ" की नगरी बनारस जाते थे !  कानपूर से बलिया आते जाते समय बनारस बीच में पड़ता है ! इत्तेफाक से १९४० -४५ में  जगन्नाथ भैया की पोस्टिंग वहाँ हुई ! तब  वह 'अ' विवाहित अथवा 'नव' विवाहित थे इसलिए आजी/ दादी / इया उनके साथ रहती थीं ! आजी के साथ अक्सर मैं भी ,चीटगंज से दसाश्वमेंध घाट गंगा स्नान करने और काशी विश्वनाथ मंदिर में शंकर जी का दर्शन करने जाया करता था ! (वास्तव में , मेरे मन में, गंगास्नान तथा "शिवदर्शन" की लालसा से कहीं अधिक ,बाल सुलभ लालच ,विश्वनाथ गली के रामदेव हलवाई की दुकान से एक दोना गर्मागरम जलेबी प्राप्ति की रहती थी ) ! मेरा नन्हा मन उनदिनों केवल जलेबी खाने की लालच से " बाबा विश्वनाथ " के दर्शन करने को व्याकुल रहता था ! 

औघडदानी हैं न . इसलिए जलेबी प्रेमी भक्त पर भी उतनी ही कृपा की जितनी सोमवार का व्रत रखने वाली कृष्णाजी पर ! 'बाबा विश्वनाथ' की कृपा से मेरी और कृष्णा जी की जीवन की सभी मनोकामनाएं एक एक कर पूरी होती गयीं ! मुझे मेरी जलेबी मिली (भाई   जलेबीबाई नहीं कहूँगा ,कृष्णाजी रूठ जाएंगी )  और कृष्णा जी को उनका  "मन जाहि राचा " सोइ, " सहज सुंदर संवारा बर" प्राप्त हुआ !  देखा औघढ़दानी कितने कृपालु हैं ? 

और फिर कभी कभी बाबा विश्वनाथ मुझसे अपनी महिमा लिखवाने और गवाने भी लगे !
अक्टूबर २००८ में "उनकी" प्रेरणा से निम्नांकित पद गाया  ! इस भजन में एक अंतरे मे मैंने कहा है :


औरन को निज धाम देत हो , हमसे करते आनाकानी 
जय शिव शंकर औघडदानी ,विश्वनाथ विश्वम्भर स्वामी 

प्रियजन ,
होस्पिटल के क्रिटिकल वार्ड से , मैं उनके निजधाम तक पहुंच गया था
पर उन्होंने मुझे लौटा कर द्वार बंद कर लिये !
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भजन सुन लीजिए :

ओम नमः शिवाय 

ओम नमः तुभ्यम महेशान , नमः तुभ्यम तपोमय ,
प्रसीद शम्भो देवेश, भूयो भूयो नमोस्तुते !
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जय शिव शंकर औघडदानी 


जय शिव शंकर औघड़दानी ,विश्वनाथ विश्वम्भर स्वामी 


सकल बिस्व के सिरजन हारे , पालक रक्षक 'अघ संघारी' 
जय शिव शंकर औघड़दानी ,विश्वनाथ विश्वम्भर स्वामी  

हिम आसन त्रिपुरारि बिराजें , बाम अंग गिरिजा महरानी
जय शिव शंकर औघड़दानी ,विश्वनाथ विश्वम्भर स्वामी 

औरन को निज धाम देत हो , हमसे करते आनाकानी 
जय शिव शंकर औघड़दानी ,विश्वनाथ विश्वम्भर स्वामी

सब दुखियन पर कृपा करत हो हमरी सुधि काहे बिसरानी 
जय शिव शंकर औघड़दानी ,विश्वनाथ विश्वम्भर स्वामी

"भोला"
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निवेदक : व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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शनिवार, 24 मार्च 2012

मनुष्य है क्या ?

मैं हूँ क्या ?
(गतांक से आगे) 

मैं बानर, "श्रीराम" मदारी ! कठपुतला 'मैं',"ईश" खिलारी !!

  जैसे 'वह'राखे , रह जावें  ,पहिरें जो भी 'वह'पहिरावे 
  बैठें जहवाँ 'ऊ' बैठावे  , जीमें  जो जो 'राम' जिमावे  
  
लिखें वही जो "वह" लिखवावे गावें जो "वह" सुनना चाहे  
    मोल लिया यह दास "राम" का अन्य हाथ कैसे बिक पावे   


प्रियवर , सच पूछो तो,
 -
मधुबन में बंसरी बजाकर नचा रहा सबको बनवारी   
मैं बानर, "श्रीराम" मदारी ! कठपुतला मैं ,"ईश"खिलारी !!
[ भोला ]
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प्रियजन , जीवन के विगत ८२ वर्षों में भी मैं यह समझ न पाया कि वास्तव में मैं हूँ क्या ? कठपुतला हूँ या  बानर हूँ ?  एक तुकबन्दक कवि हूँ या सुनी सुनाई सुनाने वाला, अनाड़ी कोई कथा-वाचक ! आपजी के जी में जो आये ,आप दे दीजिए वही उपाधि मुझे ! बुरा नहीं मानूंगा ! मैं जो हूँ , जैसा हूँ वैसा ही रहूँगा !

कहते हैं कि वास्तविक भक्तों का स्वरूप अक्सर उनके इष्ट देव सा हो जाता है ! एक संत से सुना कि ,"भगवान राम" के भक्तों का रूप और चिंतन "रामजी" जैसा , कृष्णजी के भक्तों का '"श्री कृष्णजी" जैसा और हनुमानजी के भक्तों का स्वरूप भी बहुधा "पवनसुत हनुमान" जी के जैसा हो जाता है !

बचपन में और विद्याध्ययन के शुरूआती वर्षों तक ,पारिवारिक संस्कारों के प्रभाव में सबके साथ नगर के हर  हिंदू मदिर में जाना , उसमे स्थापित देवता की मूर्ति के सन्मुख प्रणाम करना ,आरती में सब के साथ तालियाँ बजाना ,आरती कर शब्द याद न हो तों भी होठ हिलाकर यह जतलाना कि आरती गा रहा हूँ वाला नाटक बखूबी करता रहता था  ! लेकिन  उन मदिरों के गर्भ ग्रह में अधिष्ठित श्रीराम ,श्रीकृष्ण भगवन की सुंदर प्रतिमाओं के प्रति मेरे मन में कोई वास्तविक श्रद्धा-भक्ति नहीं थी !  मैं "वास्तविक भक्त" न था , जो था वह केवल दिखावटी था ! अस्तु इस प्रकार मेरा स्वरूप और चिंतन - न राम जैसा न श्याम जैसा और न किसी अन्य देवता के समान बन पाया !

तों फिर मैं बना क्या ? 
[ अगले अंक में ]
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव " भोला"
सहयोग : श्रीमती. कृष्णा भोला श्रीवास्तव 



शनिवार, 17 मार्च 2012

प्रभु यंत्री ,मानव है यन्त्र

मानव   है क्या ? 
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मूक  होइ   वाचाल   पंगु  चढहिं  गिरिवर  गहन 
जासु कृपा सुदयाल द्रवइ सकल कलिमल दहन 

(रामचरित मानस -बाल कान्ड -सोरठा २) 

जैसे  जैसे दिन बीत रहे हैं , मेरा यह विश्वास दृढतम होता जा रहा है कि मनुष्य का शरीर, किसी भी कारखाने के टूलरूम की अलमारी में अचल पड़े उस औज़ार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं , जो स्वेच्छा से ,निज बल से , कोई भी कार्य कर पाने में असमर्थ है !  

इस अकाट्य तथ्य का व्यक्तिगत  प्रत्यक्ष अनुभव मुझे पिछले १५ - २० दिनो में एक बार फिर हुआ जब कि , बिना नागा, नित्य प्रति एक  सन्देश भेजने वाला अपने "'टूल बौक्स" के गहन अंधकार में मुँह छुपाये , गुमसुम पड़ा  रहा !   ऐसा क्यूँ और कैसे हुआ ?

प्रियजन उपरोक्त प्रश्न के उत्तर से ही मैंने अपने इस सन्देश का श्रीगणेश किया है !

पिछले पखवारे मैं न कुछ लिख-पढ़ सका , न कुछ गा-बजा ही सका ! इसका एक मात्र कारण यह था कि मुझ- "अचल यंत्र" को संचालित कर सकने वाला "यंत्री" कदाचित मुझे भूल गया ! संभवतः , मेरे दुर्भाग्य से "प्रेरणास्रोत्र" से मेरा  सम्बन्ध विच्छेद हो गया और  "पॉवर हाउस" से मेरा तार विलग हो गया !

परन्तु कल रात पुनः प्रेरणा स्फुरित हुई ! मुझे मेरी इस चुप्पी के सन्दर्भ में महापुरुषों के कुछ ऐसे वचनों का स्मरण कराया गया जिनमें मेरे इस आकस्मिक मौन का मूल कारण निहित थे ! आदेश हुआ कि मैं उन्हें उजागर भी करूं ! जो जो भाव जगे उन्हें निज क्षमता के अनुरूप शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ --

सर्व प्रथम जो सूत्र याद आया वह है :

इस धरती पर मनुष्यों से उनकी इस  काया के द्वारा भूत काल में जो कार्य हुए हैं और जो कर्म वर्तमान काल में वे कर रहे हैं तथा जो कर्म उनसे भविष्य में होंने वाले हैं ,वे सब के सब ही इन जीवधारियों के "इष्टदेवों" की कृपा से ,"उनकी" आज्ञा से और "उनकी शक्ति" के द्वारा ही संचालित हो रहे हैं ! 

कृष्णभक्त "सूरदास" ने बंद आँखों से अपने कृष्ण की मनहर लीला निरखी , कैसे  ? दीन हींन जन पर अहेतुकी कृपा करने वाले प्यारे प्रभु ने "सूर" को दिव्य दृष्टि दी ! और तब  सूर ने गदगद कंठ से अति भावपूर्ण वाणी में अपने श्रीहरि की ऐसी चरन वन्दना की :

चरन कमल बन्दों हरि राई  
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे  अंधे को सब कुछ दरसाई 
बहिरो सुने ,मूक पुनि बोले , रंक चले सिर छत्र धराई
सूरदास स्वामी करुनामय बार बार बन्दों तेहि पाई  
चरन कमल बन्दों हरि राई 

परम श्रद्धेय गृहस्थ संत श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार "भाई जी " का निम्नांकित कथन  हमने सर्व प्रथम ,अपने "राम परिवार" के मुखिया  पथ प्रदर्शक दिवंगत माननीय चीफ जस्टिस श्री शिवदयाल जी से सुना था :

हे प्रभु !
मैं अकल खिलौना तुम खिलार !
तुम यंत्री , मैं यंत्र , काठ की पुतली मैं , तुम सूत्रधार !
तुम कहलाओ , करवाओ , मुझे नचाओ निज इच्छा नुसार !!
मैं कहूँ , करूं , नित नाचूँ , परतंत्र न कोई अहंकार !
मन मौन, नहीं , मन ही न प्रथक , मैं अकल खिलौना तुम खिलार !!
 ( भाईजी )

श्रीमद्भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भी यही उपदेश दिया है कि सर्व शक्तिमान ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में  यंत्री के रूप में विराजमान है और वह प्राणियों को यंत्र की भांति संचालित कर उनसे सब कर्म करवाता रहता है ! आपको याद होगा , उन्होंने कहा था 

ईश्वर:  सर्व भूतानां  ह्रद्देशे अर्जुन तिष्ठति !
भ्रामयन  सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया !!
(गीता अध्याय १८ , श्लोक ६१)

प्यारे प्रभु की अहेतुकी  कृपा से , पूर्वजन्म के संस्कारों एवं संचित प्रारब्ध के फलस्वरूप अर्जित अंतर्ज्ञान के कारण २५ -३० वर्ष की आयू तक उपरोक्त तथ्य मेरे जहन में अति गहराई से अंकित हो गये ! मैं आजीवन यह भुला न पाया कि " मैं शून्य हूँ "  [आपको याद होगा कि कैसे दिव्य संत महात्माओं ने बीच बीच में प्रगट होकर मेरा मार्ग दर्शन किया और मेरी उपरोक्त धारणा और अधिक दृढ कराई ! ]

फलस्वरूप मैं अपने जीविकोपर्जन के सभी साधन, "राम काज" समझ कर ,अपनी पूरी क्रिया शक्ति लगाकर  सम्पूर्ण निष्ठां एवं समर्पण के साथ निर्भयता से करता रहा ! प्यारे प्रभु की अनन्य कृपा आजीवन मुझपर बनी रही और मैंने अपने आपको अपने किसी भी कर्म का कर्ता समझा ही नहीं ! जीवन में पल भर को भी  यह भुला ना पाया  कि वह "सर्वशक्तिमान यंत्री", मुझे  संचालित कर रहे हैं !  इसी कारण  कठिन से कठिन परिस्थिति में भी मैं सफल हुआ !

अनेक संदेशों में मैंने इस तथ्य का उल्लेख किया है और पुनः एक बार दुहरा रहा हूँ कि :

अपने किसी भी "कर्म" का  "कर्ता" मैं नहीं हूँ 
वास्तविक कर्ता "परमेश्वर" है  
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यह निश्चित हुआ कि "मैं" कर्ता नहीं हूँ , तों फिर "मैं" हूँ क्या ?

मैंने इस प्रश्न का उत्तर अपने विभिन्न संदेशों में , भिन्न भिन्न शब्दों में दिया  है ! कहीं  मैंने अपने आप को "बंदर" और उस सर्वशक्तिमान को "मदारी" कह कर संबोधित किया है और कहीं स्वयं को "लिपिक" ( क्लर्क ) और उन्हें अपना "डिक्टेटर"-"मालिक" ( बौस ) कहा है और कहीं स्वयं को यंत्र और उन्हें यंत्री कहा है !

( शेष अगले संदेश में )
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निवेदक: व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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