"स्वधर्म न छोड़ें - विजयी होवें"
हमारा परम धर्म है - सब के प्रति निष्ठांपूर्वक "कर्तव्य पालन"
( यहाँ "सब" = स्वयं , परिवार , समाज, स्वदेश )
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भ्रष्टाचार से मुक्त जीवन जीने का प्रयास करें
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भ्रष्टाचार से मुक्त जीवन जीने का प्रयास करें
मैं आजीवन राजनीतिज्ञों एवं उच्च प्रशाशनिक अधिकारियों से ,उनके भ्रष्ट हथकंडों के कारण परहेज़ करता रहा लेकिन पब्लिक सेक्टर के सरकारी उद्योगों में अध्यक्ष का पद सम्हालते समय मेरे लिए उनसे बच पाना असंभव हो गया ! मैं उनसे इतना "एलर्जिक" हो गया कि लम्बा सफेद कुरता , और [उन दिनों के] चौड़े पायचे के पायजामें में , तिरछी गांधी टोपी लगाये किसी व्यक्ति को दूर से अपने निकट आते देखते ही मेरा "ब्लड प्रेसर" जबर्दस्त उछाल मार देता था ! मेरी पल्स रेट तथा सिस्टोलिक - डायस्टोलिक बी पी ,सब के सब आकाश छू लेते थे !
बात ही कुछ ऐसी थी ! उन दिनों के प्रादेशिक और स्थानीय नेताओं की एक आम हरकत आपको , निजी अनुभव के आधार पर बता रहा हूँ , सुनिए
किसी भी चुनाव का एलन होते ही , और त्योहारों के दिनों में, ईद बकरीद, होली-दसहरा-दीवाली ,संत रैदास,गुरु नानक जयन्ती आदि पर्वों पर स्थानीय राजनेता तथा उनके गुर्गे , सब कायदे कानून तोड़ते हुए बड़े से बड़े सरकारी अधिकारी के केबिन में घुस आते थे ! वे आते ही उछल कर अधिकारी की मेज़ पर बैठ जाते और अपने कमरबंद में खुंसे हुए "कट्टे" को बार बार इशारतन दिखाकर और कभी कभी तो एक बड़े "अलीगढी छुरे" को अधिकारी की मेज़ में धंसा कर ,उसे तबादले की धमकी देकर ,डरा धमकाकर , बाहुबली दबंगई के साथ जबरदस्ती , चुनाव और त्यौहार के बहाने बड़ी बड़ी रकम वसूल कर लेते थे !
ऊपरी कमाई करने वाले सरकारी अधिकारी ,ऐसे नेताओं को अपनी ही कुर्सी पर बैठा लेते, और दफ्तर की केन्टीन से गरमा गरम समोसे और जलेबी मंगवाकर उन्हें खिलवाते और फिर चायशाय पिलवा कर ,किसी ब्रांडेड पान मसाले का नया डिब्बा खोल कर ,उन्हें थमा देते और जान बूझ कर वापस लेना भूल जाते थे ! उसके बाद वे दफ्तर के खजांची से यह कह कर कि " सरकारी खर्च में कहीं एड्जुस्ट् कर लेना " कैश मंगवाते और नेताओं से निजात पाते थे ! हाँ , जब कैश का एडजस्टमेंट होता तो उससे ऐसे अधिकारी और उनके केशियर महोदय भी अपना हिस्सा लेकर लाभान्वित होते जिससे उनकी होलीदीवाली भी कुछ अधिक रंगीन हो जाती !
उस जमाने में मुझे भी अनेकों बार ऐसी समस्याओं से निपटना पड़ा था ! तब कैसे झेला था मैंने , उन नेताओं को , वह तों केवल भुक्तभोगी - मैं और मेरा परिवार ही जानता है ! आपको बताउंगा तो आप न जाने क्या सोचेंगे ! सुन कर ,शायद आप मुझ पर , "अपने मुँह मिया मिट्ठू बनने" का आरोप लगाएं अथवा उसे मेरे द्वारा ,मेरी अपनी साधुता का अहंकारमय प्रदर्शन मानें ! खैर जो भी आप सोचें -- मुझे उसकी चिंता नहीं !
इस संदर्भ में एक बात कहने की प्रेरणा अवश्य हो रही है
मेरी बीवी बच्चों को छोड़ कर मेरे घनिष्ट से घनिष्ट पारिवारिक सम्बन्धियों को यकींन नहीं होता था कि "इतनी आमदनी वाली कुर्सी " पर बैठ कर भी मैं "ऊपरी कमाई" से परहेज़ करता था ! स्वजन सहानुभूति जताते , कहते " पांच पांच बच्चों को पढाना है , दो दो लड़कियों का उद्धार करना है और भोला बाबू तुम इस कुर्सी पर बैठ कर भी दौलत कमाने की जगह , 'नाम ' की कमाई में जुटे हो"! सच पूछो तों अधिकतर लोग मुझे निरा मूर्ख ही समझते थे !
मित्र और सम्बन्धी अक्सर मुझे याद दिलाते रहते कि मेरे मातहत मकान बना रहे थे और मेरा कहीं कोई अपना मकान नहीं था ! शुभचिंतक बताते कि मातहतों की बीवियों के पास रत्नजडित आभूषण हैं लेकिन हमारी बीवी के पास १५-२० वर्ष पूर्व हमारे विवाह में मिले आभूषणों के अतिरिक्त और कोई ढंग का नया आभूषण नहीं ! प्रियजन उनके इन कटाक्षों से मैं और मेरा परिवार तनिक भी विचलित नहीं होता था !
धर्मपत्नी कृष्णा जी के सहयोग से हमारी गृहस्ती की गाड़ी खिंचती रहती ! मेरी आर्थिक मदद करने के लिए उन्होंने भारत सरकार के हिन्दी टीचिंग स्कीम में अहिन्दी भाषी केन्द्रीय गजेटेड अफसरों को हिन्दी सिखाने का काम शुरू कर दिया ! विडम्बना देखें , जहां मैं निजी कार पर सवार हो कर दफ्तर जाता था और दिन भर एयरकंडीशन्ड केबिन में बैठता था वहाँ बेचारी कृष्णा जी दिन भर मुम्बई की उमस भरी गर्मी में , कभी पैदल चल कर तथा कभी बस और लोकल ट्रेन में धक्के खाती हुई अंधेरी से चर्चगेट और कोलाबा में स्थित सरकारी दफ्तरों तक दौड लगाती रहती थीं !
पांचो छोटे छोटे बच्चे , बेस्ट की दो "बसें" बदल कर घर से पवई के 'सेंट्रल स्कूल' जाते थे ! जरा सोचिये हमारी सबसे बड़ी बच्ची श्रीदेवी जो तब लगभग ११ वर्ष की थी उनकी लीडर बन कर उनकी देखभाल करती थी ! सहपाठी उसे "दीदी की रेल गाड़ी " का इंजन कह कर चिढाते थे !
मैंने किसी दुःख , पीड़ा अथवा ह्ताशिता या निराशा से व्यथित हो कर उपरोक्त कथन नहीं किया है ! मैं यह वर्णन ,अति प्रसन्नता से और गर्व के साथ कर रहा हूँ !
मुझे गर्व है इसका कि हमारे प्यारेइष्ट ने जो ,"कारण बिनु कृपालु हैं " और जो स्वभाव वश ही ,"करहि सदा सेवक सन प्रीती",उन्होंने मेरी सेवकाई स्वीकार की और आजीवन हम पर कृपालु बने रहे ! "वह" सर्वदा मुझे सुबुद्धी और विवेक प्रदान करते रहे ,जिससे मुझे ,कठिन से कठिन परिस्थिति से जूझने की क्षमता मिली और विषम से विषम कठिनाइयों में भी मैं अपने धर्म पथ से विलग नहीं हुआ !
अन्ततोगत्वा उनकी कृपा से ही मैं सफलता के उस शिखर तक पहुंच गया ,जिसका पहले से किसी को अनुमान भी नहीं था !
"हम दो हमारे दो" अभियान के श्री गणेश के पूर्व का
"भोला कृष्णा परिवार"
"भोला कृष्णा परिवार"
१९६८ में हम दोनों के साथ हमारे बच्चे [बांये से दायें) (१) पुत्र-"राम" (अब USA में ) (२) छोटीपुत्री-"प्रार्थना" (दिल्ली) (३) छोटेपुत्र -"माधव" (नोयडा) (४) बड़ीपुत्री - "श्रीदेवी" (चेन्नई), (५) मझले पुत्र - "राघव" (अब USA में ) |
मुझे अभिमान है अपने पूरे परिवार पर !
क्यूँ ?
मेरा कहना है कि यदि मानव में सहन शक्ति हो ,दृढ़ निश्चय हो ,अविचल विशवास हो और वह स्वधर्म के अनुसाशन तथा नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतार कर अपने नियत कर्म करता हो तों ऐसे व्यक्ति को "प्यारे प्रभु की अहेतुकी कृपा" बिन मांगे ही प्राप्त हो जाती है ! प्रभु , ऐसे व्यक्ति को ,आवश्यकता पड़ने पर , उसकी कठिन समस्याओं एवं विषम परिस्थितियों से निपटने के लिए, समुचित शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक बल प्रदान करता रहता है !
जैसे माँ अपने नादान शिशु को उंगली पकड़ कर उसे इधर उधर भटकने से रोकती है ,उसे पथ भ्रष्ट नहीं होने देती ,वैसे ही हमारा "प्यारा प्रभु" ऐसे कर्तव्य परायण जीव का पग पग पर मार्गदर्शन करता रहता है ! और , जिस जन पर उसका इष्ट ऐसी कृपा दृष्टि डालता है उसका तों बस कल्याण ही कल्याण , मंगल ही मंगल होता है : प्रभु की कृपा के साथ साथ सारा ज़माना ऐसे व्यक्ति का शुभ चिंतक हो जाता है ! तुलसी ने विश्वास के साथ कहा है :
कृपा राम की जा पर होई ! ता पर कृपा करे सब कोई !!
सकल विघ्न व्यापहि नहि तेहीं ! राम सुकृपा बिलोकहिं जेहीं !!
ऐसे अनेक निष्ठावान धर्मपरायण अधिकारियों को मैं जानता हूँ जिन्होंने अंत तक कोई दूषित व भ्रष्ट पथ नहीं अपनाया ! वे सत्य और धर्म के मार्ग पर चलते रहे और उन्होंने वह कर दिखाया जो आमतौर पर कठिन होता है !
अन्त्तोगत्वा ऐसे ईमानदार भारतीयों ने भी धन ,मान-सम्मान और ख्याति अर्जित की और उनका जीवन भ्रष्ट लोगों के जीवन से किसी प्रकार भी कम् सुखी नहीं है ! एक बड़ा अंतर जो ईमानदारों और भ्रष्ट जनों में है वह यह है कि जहां ईमानदार व्यक्ति आराम से गहरी नीद लेते हुए रात काटते हैं ,वहाँ भ्रष्ट जन रात रात भर करवटें बदलते रहते हैं !
अस्तु प्रियजन ,"स्वधर्म न छोड़ें - विजयी होंवें"
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क्रमशः
निवेदन : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
3 टिप्पणियां:
बिलकुल सही कहा आपने जो बरकत ईमानदारी की कमाई में है वह भ्रस्टाचार की कमाई में कहाँ| धन्यवाद|
काका जी और काकी जी को प्रणाम ! आज का अंक बेहद सुरुचि पूर्ण है !इस लेख का आखरी वाक्य , बेहद विराट है ! आप के कदमो पर अग्रसर हूँ !बाकी इश्वर भरोसे !
बहुत ही प्रेरे़क और अनुकरणीय प्रसंग था ...हम जैसे युवा वर्ग को आप जैसे बुजुर्गों के मार्गदर्शन की ही आवश्यकता है ,धन्यवाद .
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