शरणागतवत्सल परमेश्वर
"अर्जुन की शरणागति"
(गतांक से आगे)
इस संसार का यह विस्तृत फैलाव महाभारत काल के कुरुक्षेत्र के समान ही है ! हमारी इस भूमि पर भी प्रत्येक जीव प्रतिपल किसी न किसी से ,कोई न कोई लडाई लड़ रहा है ! यहाँ का सैनिक ,एक एक मानव ,अपने मन में उठे नाना प्रकार के गुण-दोषमय विचारों के आवेग से निरंतर जूझ रहा है ! सतत चल रहे इस युद्ध के दांव पेंच में मन के सद्गुण "दया ,धर्म और साहस" के लोप हो जाने से मानव "मोह,"भ्रम और क्लीवता" का शिकार हो जाता है तथा आत्मबल के अभाव से विषमताओं से युद्ध करने की क्षमता ही खो देता है !
महाभारत युद्ध के प्रथम दिवस ही शत्रुपक्ष में अपने बड़े बूढे स्वजनों , आचार्यों , बन्धु बांधवों को एकत्रित देख कर अर्जुन के अंग शिथिल हो गए, मुख सूख गया ,तन काँप उठा और उसे एक इस विचार से कि उसके हाथों इन सभी स्नेही बाहुबली स्वजनों का हनन होने वाला है सर्वत्र अकल्याणकारी ,विनाशकारी तथा विपरीत लक्षण दिखने लगे ! उसने तभी बेझिझक हो कर श्री कृष्ण से अपनी मनोदशा व्यक्त करते हुए कहा :
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव !
न च श्रेयो नुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे !!
(श्रीमदभगवद्गीता - अध्. १ ,श्लोक ३१)
भावार्थ
केशव ! सभी विपरीत लक्षण दिख रहे मन म्लान है !
रण में स्वजन सब मार कर , दिखता नहीं कल्याण है !!
(श्री हरि गीता)
स्वजनों का मोह अर्जुन पर इतना हावी हो गया कि वह निःसंकोच श्रीकृष्ण से कह बैठा कि, " इस युद्ध में "मैं" अपने सब परिजनों को मिटा कर जो अनर्थ करूंगा उसके लिए केवल "मैं" ही उस पाप का भागी बनूंगा, और फलस्वरूप "मैं" नरक में जाउंगा "आदि आदि !"अर्जुन की वार्ता से श्रीकृष्ण जान गए कि अर्जुन की समर्पण और शरणागति की भावना अब मोह और अहंकार की प्रलयंकारी बाढ में बह कर कहीं दूर निकल गयी है और कदाचित उसे भगवान की कृपा पर उतना भरोसा नहीं रहा है !
अर्जुन श्री कृष्ण का प्रिय सखा था, उनके साथ उठता बैठता खेलता कूदता खाता पीता था ! इतना घनिष्ट सम्बन्ध होते हुए भी श्रीकृष्ण ने (अर्जुन के डावाडोल भरोसे को देख कर) उसे तत्काल ही गीतामृत नहीं पिलाया ! जब आर्त भाव से वह श्रीकृष्ण की शरण गया और उनसे निश्चित कल्याणकारी कर्तव्य का निर्देश पाने की इच्छा व्यक्त की ,तब श्रीकृष्ण ने उसे अपना शरणागत स्वीकार किया और उसको "गीता" का सन्देश दिया ! उसे धर्म और सत्य की राह पर चलने की प्रेरणा दी ! अर्जुन को अपना विराट रूप दिखला कर श्रीकृष्ण ने उसका "भरोसा" पुष्ट किया और उसे अभय दान दिया !
इस दृष्टांत को हमने इसलिए याद किया क्यूंकि इसके द्वारा हमे "शरणागति" की भावना में "भरोसे" की अनिवार्यता समझ में आई ! हमे ज्ञात हुआ कि जब तक मानव मन में उसके निजी सामर्थ्य ,क्षमता ,बुद्धि तथा ज्ञान का अभिमान रहता है उसे अपने इष्ट की कृपा पर "भरोसा" नहीं हो सकता और जब तक साधक के मन में "इष्ट" के प्रति पूरा भरोसा नहीं होता उसका "इष्ट" भी उसे अपना "शरणागत" स्वीकार नहीं करता !
गुरुजनों ने बताया है कि :
भरोसा करो "अपने इष्ट" का और दृढ़ विश्वास रखो कि
"हमारा "इष्ट", सर्वशक्तिमान है ,सर्वग्य है ,सर्वत्र है और सर्वदयालु है !
" हमारा इष्ट",हर समय, हर स्थान पर हमारे अंग संग है !
"हमारा इष्ट" अभेद कवच के समान हर घडी संकटों से हमारी रक्षा कर रहा है !
कठिन परिस्थितियों में "हमारा इष्ट" हमारा मार्ग दर्शन कर रहा हैं !"
प्रियजन, पल भर को भी आप यह न भूलें कि :
"वह इष्ट" आपका है और आप "उसके' हैं -
"उस इष्ट के" अतिरिक्त आपका कोई अन्य अवलम्ब नहीं -
आपका तन ,आपका मन ,आपका प्राण , आपका समग्र जीवन सब "उस इष्ट का" ही है -
केवल आप ही नहीं बल्कि
सभी संसारी उस "एक" परमेश्वर के हैं , सृष्टि का सर्वस्व परमेश्वर का है
आप केवल "अपने इष्ट" के हैं और "आपका इष्ट" भी केवल आपका ही है-
आपको अहंकार और अभिमान यदि हो भी तो अपनी किसी उपलब्धि पर न हो;
आपको केवल इस बात का अभिमान होना चाहिए कि आपका इष्ट आप पर कृपालु है
आपको तुलसी का यह कथन हर पल याद रहे कि:
अस अभिमान जाहि जनि भोरे ! मैं सेवक रघुपति पति मोरे!!
अब कछु नाथ न चाहिय मोरे ! दीन दयाल अनुग्रह तोरे !!
इसके अतिरिक्त सदा याद रखिये कि आपके जीवन में जो कुछ शुभ और सुखकर
हो रहा है वह सब केवल आपके इष्ट की दया और कृपा से हो रहा हैं,
और उसी में आपका कल्याण निहित है !
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क्रमशः
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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