शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

शरणागति

शरणागतवत्सल परमेश्वर
(गतांक से आगे)

विभीषण की शरणागति
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ईश्वर सर्वशक्तिमान,सर्वसमर्थ,सर्वग्य है ! "वह" परमकृपालु , शरणागतवत्सल और क्षमा निधान है ! भयभीत और पश्चातापी ,बडा से बड़ा अपराधी भी ,यदि अति आर्त भाव से उनकी शरण में आकर क्षमा याचना करता है ,तो करुणानिधान "प्रभु" उसको तत्काल ही क्षमा कर देते हैं ! परमेश्वर की अहेतुकी क्षमा दान के अनेकानेक उदाहरण धर्मशास्त्रों में भरे पड़े हैं !

इस युग में भी मुगलकालीन कृष्ण भक्त संत सूरदास ने बार बार अपने इष्ट से उलाहने दिए और उनसे अर्ज किया ,"हे गोविंद आपने उन सभी अपराधियों को क्षमा कर दिया जिन्होंने आपकी 'टेक' ली ,जो आपके "शरणागत" हुए ! माफ कर के आपने उन्हें अति दुर्लभ मुक्ति भी प्रदान की ! हे गोपाल आप इस "आन्धरो भिखारी" सूरदास से आंखमिचौली क्यों खेल रहे हो ? उसके भी सभी अपराध क्षमा करो हे नाथ और अपनी शरण में ले लो"!

अबकी टेक हमारी लाज राखो गिरिधारी
अजामील गीध व्याध , इनके कहू कौन साध
पंछीहू पद पढ़ात गनिका सी तारी
सूरदास द्वारे ठाढो आंधरो भिखारी
अबकी टेक हमारी लाज राखो गिरिधारी
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विभीषण की शरणागति

लंका में सीताजी की खोज करते हुए हनुमान जी ने "रामायुध अंकित" एक प्रासाद में प्रवेश किया ! उन्हें आश्चर्य्य हुआ "लंका निश्चर निकर निवासा , इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा"!वह महल था लंकापति रावण के छोटे भाई विभीषण का ! गृहपति को प्रातःकाल "राम राम " उच्चारण करते सुन कर हनुमानजी ने "तुरतहि सज्जन चीन्हा " और उन्हें यह विश्वास हो गया कि यह व्यक्ति अवश्य ही "श्रीराम" का परम भक्त है ! विभीषण ने भी रामदूत हनुमान को पहचान लिया और उनकी रामभक्ति की थाह पा ली और उनसे बेझिझक प्रश्न कर दिया कि "क्या रघुकुल भूषण श्रीराम मुझे अनाथ जान कर कभी मुझ पर भी कृपा करेंगे ?"
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी जिमि दसनन्ही महुं जीभ बिचारी
तात कबहूँ मोहि जान अनाथा ! करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ?
(मानस सुंदर कांड ,दोहा-६,चौ.-१)

विभीषन की रामभक्ति कितनी प्रबल थी ,इसका अनुमान आप इससे ही लगा लीजिए कि श्रीराम के शत्रु के राज्य में , उसकी राजधानी के बीचोबीच ,विभीषण ने अपने प्रासाद में ही
एक राम मंदिर बना रखा था और उठते बैठते चलते फिरते वह मुद् मंगलकारी राम नाम का सुमिरन किया करते थे ! किसी साधारण व्यक्ति से ऐसा कृत्य सम्भव नही है !ऐसा तो कोई पूर्ण निष्ठावान परमसाहसी प्रेमीभक्त ही कर सकता है ! मानस में तुलसी ने उपरोक्त कथा को इन शब्दों में व्यक्त किया है :

भवन एक पुनि दीख सुहावा, हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा
(मानस सुंदर कांड दोहा -४, चौ. ४ )

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाय!
नव तुलसिका वृन्द तहँ देखि हरष कपिराय !!
(मानस सुंदर कांड , दोहा - ५ )

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिर गुण ग्राम
(मानस सुंदर कांड , दोहा - ६)

शरणागति का अधिकारी सच्चा भक्त वह है जो अपने इष्ट का गुणगान सुनते ही पुलकित हो जाये और उसकी आँखें अश्रुपूरित हो जाये ! श्री हनुमान जी से प्रथम मिलन पर ,उनके मुख से राम कथा सुनते ही विभीषण की भी कुछ ऐसी ही दशा हुई थी ! :

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर
(मानस सुंदर कांड , दोहा - ७)
एहि विधि कहत राम गुन ग्रामा , पावा अनिर्वाच्य बिश्रामा
(मानस सुंदर कांड , दोहा -७ ,चौ - १)

अपने प्रभु के "नाम ,रूप ,लीला और गुणों" का गान करने में राम भक्त विभीषण को परम विश्राम मिलता था !वह रोमांचित हो जाता था ! उसके नेत्रों में प्रेमाश्रु छलक आते थे ,उसका कंठ अवरुद्ध हो जाता था ! ये सब की सब विशेषताएं एक वास्तविक "भगवद भक्त" की हैं !

प्यारे प्रभु को ऐसे भक्त ही प्रिय लगते हैं
जिन्हें अपने इष्ट के प्रति अपार प्रीति - (भक्ति), श्रद्धा और विश्वास होता है
प्रभु ऐसों को ही अपनी शरण में लेते हैं , अपनी शरणागति प्रदान करते हैं
अपना शरणागत बनाते हैं !

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विभीषण की शरणागति - क्रमशः
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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