बुधवार, 12 अक्टूबर 2011

नाम महिमा


आखिर ये तन ख़ाक मिलेगा कहाँ फिरत मगरूरी में

मेरे प्रियजनों !

पिछले आलेखों में मैंने राम परिवार की प्रार्थना पुस्तिका "उत्थान पथ" से श्रीमदभगवदगीता और श्री रामचरितमानस में से चुने हुए कुछ ऐसे अंश प्रस्तुत किये, जिनमें जीवन जीने की कला के सूत्रों का निरूपण हुआ है ! इन सूत्रों में उच्चतम धर्म के व्यावहारिक दर्शन का सार है जिसके पठन ,मनन और अपने दैनिक जीवन में उतारने से मानवता का सर्वांगी विकास (आध्यात्मिक तथा लौकिक उत्थान) तो होगा ही ,साथ साथ व्यक्ति को "आत्म ज्ञान" होगा और उसे श्री ,विजय ,विभूति, समृद्धि तथा सम्पन्नता की प्राप्ति भी होगी !

पिछले ५० वर्षों से "उत्थान पथ" में प्रतिपादित इन सिद्धांतों के अनुसरण से मैं आज अपने निजी अनुभव के आधार पर पूरे विश्वास से कह सकता हूँ कि रामायण और गीता हमारे जीवन की हर परिस्थिति में, सुख में दुःख में ,मान-अपमान में ;खुशी और गम में हमे सत्य और प्रेम से जीने की राह दिखाते हैं , हमे भले और बुरे का ज्ञान कराते हैं तथा तुष्टि व पुष्टि से भरा आनंदपूर्ण जीवन जीने की सहज विधि बताते हैं ! तुलसी ने रामचरित मानस में हमे बार बार यह् सूत्र याद दिलाया है कि जो व्यक्ति अपना अहंकार मिटा कर सच्ची श्रद्धा भक्ति, तत्परता और समन्वय के साथ जीवन जीता है, परमात्मा ऐसे व्यक्ति का साथ कभी नहीं छोड़ते ,उसकी वैसी ही "सहज सम्भार" करते हैं जैसे एक माँ अपने अबोध बालक की करती है ! कुरुक्षेत्र की भूमि पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय सखा अर्जुन की , न केवल, वैसी ही "सहज सम्भार" की अपितु उन्होंने अर्जुन को वह "गीतामृत"का पान कराया जिसकी संजीवनी शक्ति ने उस ज्ञान को आज तक विश्व के कोने कोने में जीवित रखा है !

सतयुग और द्वापर की बात छोड़ कर यदि हम आज अपने कलियुग पर ही दृष्टि डालें तो पायेंगे कि पिछले ढाई तीन हजार वर्षों में ही विश्व में अनेकों ऐसे संत महात्मा प्रगट हुए जिन्होंने अपने सात्विक आचरण से उस "परम" को प्रसन्न किया और प्रसाद स्वरूप उनको "ब्रहमानंद' की प्राप्ति हुई ! भगवान बुद्ध , महाबीर स्वामी से ले कर पिछली शताब्दियों में भारत भूमि पर जन्मे संत महात्माओं में गुरु नानक देव ,संत रैदास , श्रीकृष्ण प्रेम दिवानी "मीराबाई " , संत कबीर दास आदि ने निष्काम प्रेमभक्ति की वह सरिता प्रवाहित की जिसमे मज्जन करने वाले सोते जागते ,उठते बैठते ,चलते फिरते , यूं कहिये अपने सभी सांसारिक कार्य करते समय प्रति पल अपने "इष्ट" को अपने अंग संग अनुभव करते हैं !

संत कबीरदास ने अपने आचार व्यवहार से प्रमाणित किया कि छल कपट तज कर किया हुआ कर्म ही यज्ञ कर्म है ! साधक का सरल जीवन ही "प्रभु"को प्रिय लगता है ! चमड़े की जूतियाँ गाँठते समय "कैसे छूटे राम रट लागी " गाकर संत रैदास ने अपने "राम" को रिझा लिया ! उसी प्रकार "कबीर" ने अपने करघे पर बुनी " झीनी चदरिया" को , मन ही मन केवल नाम जाप करके ,कभी न छूटने वाले "राम रंग" में रंगवा लिया ! इस प्रकार कपड़ा बुनते बुनते संत कबीर ने "राम " को ऐसा रिझाया कि अंत समय में कबीर की पवित्र आत्मा के साथ साथ उनके पार्थिव शरीर को भी प्रियतम "प्रभु" ने अपने उत्संग में ले लिया !
प्रभु को प्रिय लगता है वह व्यक्ति, जो सरल स्वभाव का हो जिसके मन में कोई कुटिलता न हो , जो संतोषी हो और जो सबके प्रति सद्भावना रखे ,सबसे प्रेम करे ,विनम्र हो ,पवित्र आचार विचारवाला हो, जिसमे अपमान सहने की शक्ति हो ! ऐसे सात्विक वृत्तियों वाले व्यक्ति को जप तप, योग ,यज्ञादि साधनों को अपनाये बिना ही केवल "नाम सिमरन" एवं "राम भजन" द्वारा ही सब सिद्धियों का सुख मिल जाता है ! तभी तो कबीर ने यह पद गाया : -- "जो सुख पाऊँ राम भजन में सो सुख नाहिं अमीरी में "

१९८७ में मुझे संत कबीर दास जी की "मगहर" (उत्तर प्रदेश- भारत) स्थित समाधि के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ ! समाधि स्थल के निकट पहुंचते ही वहाँ के शांत वातावरण में तरंगित "नाम- प्रेम-भक्ति" की सुधामयी धारा ने हमारे मन में एक अलौकिक भाव जगा दिया और मैं अस्पष्ट शब्द और स्वरों में कबीर साहिब की एक रचना गुनगुनाने लगा :
मन लागो मेरो यार फकीरी में!!
जो सुख पाऊँ राम भजन में ,सो सुख नाहि अमीरी में ,
मन लागो मेरो यार फकीरी में !!
भला बुरा सब का सुन लीजे ,कर गुजरान गरीबी में ,
मन लागो मेरो यार फकीरी में !!
आखिर यह तन खाक मिलेगा,कहां फिरत मगरूरी में,
मन लागो मेरो यार फकीरी में !!
हाथ में कुण्डी बगल में सोंटा ,चारो दिश जागीरी में,
मन लागो मेरो यार फकीरी में !!
कहत कबीर सुनो भाई साधो ,साहिब मिलें सबूरी में,
मन लागो मेरो यार फकीरी में !!

(महात्मा कबीर दास)


निवेदक :- व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
आलेख में सहयोग :- श्रीमती डॉक्टर कृष्णा भोला ,
चित्रांकन :- श्रीमती श्रीदेवी तथा श्री व्ही .व्ही.कुमार
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