गुरुवार, 27 अक्टूबर 2011

शरणागति - "माँ"

"माँ "
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जीव को मानव के स्वरूप में धरती पर प्रगट होने के नौ दस महीने पहले से ही अपनी कोख में "शरण" देकर हर संकट से उसकी रक्षा करने वाली "माँ" के शरणागत प्रत्येक जीव को होना ही पड़ता है ! इच्छा से अथवा अनिच्छा से "जीवात्माओं " को परमात्मा के अतिरिक्त सर्वप्रथम जिसके शरणागत होना पड़ता है वह है , उसकी "माँ ! अस्तु हमारी प्रथम पूज्य देवी , हमारी जन्मदात्री "माँ" हैं !

देवी स्वरूपा हमारी जननी "माँ"
जिन्होंने हमें सकारात्मक सृजनात्मक कल्याणकारी कर्म करने की प्रेरणा दी !


श्रीमती लालमुखी देवी
(१८९५ - १९६२)
लक्ष्मी पूजन के दिन , सर्व प्रथम ,
"माँ तुम्हे प्रणाम"
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तेरा दर्शन मधु सा मीठा ,वाणी ज्यों कोयल की कूक
सुरति तुम्हारी जब है आती उठती है इस मन में हूक !

तूने मुझे दियाहै जितना मेरी झोली में न समाया,
फिर भी रहा अधिक पाने को मैं आजीवन ही ललचाया !

अब भी तेरी कृपा बरसती है मुझ पर बन अमृत धारा
एक बूंद पीने से जिसके होता जन जन का निस्तारा !

जनम जनम तक तेरे ऋण से उरिण नही हो सकता माता
हर जीवन में ,मा तेरा ऋण उतर उतर दुगुना बढ़ जाता !

माँ तुम्हे प्रणाम
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"माँ " के करोड़ों रूप हैं ! जितने रूप हैं उतने ही नाम !
सृष्टि के हर खंड में, हर युग में , हर संस्कृति में , हर सम्प्रदाय में , हर मत में,
एक "माता श्री" के अलग अलग अनेको नांम हैं !

माँ के करोड़ों नामों में से चुने हुए उनके कुछ सबसे प्रसिद्ध नाम

१. विष्णु मायेति २. चेतना ३. बुद्धि ४. निंद्रा ५. क्षुधा ६. छाया ७. शक्ति ८. तृष्णा ९ . क्षमा १०.लज्जा ११.शांति १२ .श्रद्धा १३. कांति १४. लक्ष्मी १५. वृत्ति १६. स्मृति १७. दया १८. तुष्टि १९. मातृ ,तथा २०. भ्रान्ति आदि

देवी माँ इन्हीं नामों के रूप में हम् भूत प्राणियों में व्याप्त हैं और हर पल हमारी रक्षा करतीं हैं हमार मार्ग दर्शन करतीं हैं हमें दिव्य चिन्मय जीवन जीने की प्रेरणा देतीं हैं !

हमारी पौराणिक कथाओं के बड़े बडे नायक - 'देवतागण',खलनायक-'दानवगण' और छोटे छोटे किरदार निभाने वाले , मेरे जैसे साधारण, ''एक्स्ट्रा एक्टरों' ने भी "मातृभक्ति" से प्रेरित होकर अनेकों बार "मातृत्व" की न केवल भूरि भूरी प्रशंशा की है वरन उन्होंने "मातृशक्ति" का अति श्रद्धासहित नमन और अभिनन्दन भी किया है

माँ की उपासना में सर्वाधिक लोकप्रिय वन्दना

या देवी सर्व भूतेषु "===" रूपेण सन्सथिता
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः

उपरोक्त श्लोक में "माँ " के उपरोक्त बीस नामों में से एक एक नाम ,इस स्थान "===" पर बोल कर आज भी साधकगण "माँ " की वन्दना करते हैं और उनके श्री चरणों में निज श्रद्धा- सुमन समर्पित करते हैं ;उनके नाम में ही उनकी उपस्थिति महसूस कर के आनंदित होते हैं

अष्ट लक्ष्मी

उपरोक्त २० नामों के अतिरिक्त देश के विभिन्न प्रदेशों में माँ को अनेकों अन्य नामों से भी पूजा जाता है ! दक्षिण भारत में माँ के निम्नांकित आठ नाम अधिक प्रचिलित हैं :

१. आदि लक्ष्मी २. धान्य लक्ष्मी ३ .धैर्य लक्ष्मी ४. गज लक्ष्मी
५. सन्तान लक्ष्मी ६. विजय लक्ष्मी ७. विद्या लक्ष्मी ८. धन लक्ष्मी

माँ के नामों के उच्चारण में ही माँ के भिन्न गुण निहित हैं ! नाम ही उनके मंत्र हैं ! नाम के शब्दार्थ जानने वाले साधक माँ के नामों के ध्यान मात्र से उन गुणों के अधिकारी बन जायेंगे जिनकी उनकी वह नामधारी माँ अधिष्टात्री है !

माँ लक्ष्मी के ८ नामों में से "धन लक्ष्मी" को ही लीजिए : माँ "धन लक्ष्मी" की आराधना से , स्वधर्म समझ कर कर्म करने वाला साधक , निश्चित ही धनोपार्जन करेगा ! इसी प्रकार माँ के अन्य सभी नामों की उपासना करने वाले भी अपने अपने मन वांछित फल पा लेंगे !

क्रमशः
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती. कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

ब्लॉग फीड की समस्या अब ठीक हो गयी है

ब्लॉग फीड में समस्या के कारण शायद कई पाठकों को करीब एक महीने से पोस्ट ईमेल में नहीं जा रहे थे . यह अब ठीक हो गयी है . पिछले माह की पोस्ट पढने के लिए आप वेब साईट देख लीजिए या फीड में पढ़ लीजिए .


मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

शरणागति

शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते

नवरात्रि - नौ देवियों की आराधना

नारायणी -"लक्ष्मी माता" के "शरण" की अपेक्षा
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कल "धनतेरस' की रात जब सोने चला उस समय भारत से प्रसारित सभी टेलीविजंन चेनलों पर दीप लड़ियों से जगमगाती भारतीय बाजारों की चमक दमक विशेषकर सोने चांदी के सिक्कों और आभूषणों के खरीदारों से खचाखच भरे बाज़ारों में चमचमाते जौहरियों के शो रूम देख कर आँखें चकाचौधिया गयीं !

इस विचार से कि आज धनतेरस के दिन , न तो हम् दोंनों ने , न हमारी जानकारी में हमारी यहाँ ,'यू . एस' वाली बहुओ ने ही लक्ष्मी माता को प्रसन्न करने के लिए कोई ऐसी खरीदारी करी ,मैं इस सोच में पड़ गया कि " क्या हम सब इस प्रकार "लक्ष्मीमैया" को रुष्ट करके 'पाप' के भागी नहीं बन रहे हैं ? क्या आज यह भयंकर भूल करके हम दोनों ने अपने तथा अपने बच्चों के भौतिक - दुनियावी तरक्की के दरवाजे ,अगले पूरे वर्ष के लिए बंद तो नहीं कर दिए ?


!! श्री महाललक्षम्याष्टकम् !!

नमोस्तेsस्तु महामाये श्रीपीठे सुर पूजिते !
शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोस्तुते!!
नमस्ते गरुड़ारूढे कोलासुर भयंकरि !
सर्व पाप हरे देवि महा लक्ष्मी नमोस्तु ते !!

+ + + + + +
( बीच के श्लोक फिर कभी )

महालक्ष्यअष्टकम स्त्रोतं य: पठेदुभक्तिमान्नर !
सर्वसिद्धमवाप्नोति राज्यम प्राप्नोति सर्वदा !!

भावार्थ

महालक्ष्मी जी की आठ पदों वाली यह स्तुति जो कोई साधक भक्ति सहित पढे अथवा लिखे ( जिसका सौभाग्य मुझे आज मैया की ही कृपा से मिला ) वह आठों सिद्धियों की प्राप्ति का अधिकारी बन जायेगा और उसे सब सांसारिक सम्पदा सहज में ही मिल जायेगी )

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उपरोक्त संस्कृत के श्लोकों में रचित लक्ष्मी माता की वन्दना के अतिरिक्त भारत की अन्य जन भाषाओँ में भी , "लक्ष्मी माता" की अनेकों पारंपरिक 'आरतियाँ' विश्व भर में प्रचलित हैं, परन्तु उन सब रचनाओं का भी भावार्थ उपरोक्त वन्दना के समान ही है ! यहाँ केवल एक आरती के ही कुछ अंश दे रहा हूँ :

लक्ष्मी जी की आरती
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ओम जय लक्ष्मी माता ,ओम जय लक्ष्मी माता
तुमको निसिदिन सेवत हर विष्णू धाता !!

ब्रह्माणी , रुद्राणी ,कमला तुम ही जग माता !
सूर्य - चन्द्रमा ध्यावत ,नारद ऋषि गाता !!

(बीच की अनेक चौपाइयां फिर कभी)

शुभ गुण मंदिर सुंदर क्षीरोदधि पाता !
रत्न चतुर्दिश तुम बिन कोई नहीं पाता !!

महालक्ष्मी जी की आरती , जो कोई नर गाता !
उर आनद समाता , पाप उतर जाता !!
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आज सबेरे सबेरे क्यों आई याद लक्ष्मी जी की ? कहीं रात के सपने में भी तो मुझे वे चमकते हुए स्वर्ण के आभूषण नहीं दिखे ? कहीं मैं रातोरात भारत पहुच कर टहलते टहलते "गौतम या "नानावती ,"भगतराम" अथवा "गुप्ता" अथवा केवल "राम" ज्वेलर्स के शो रूम में तो नहीं भटक गया ? या यहीं अमेरिका में "शेनेल" या "क्रिश्चन डॉयर" के परफ्यूम से गमकते किसी "माल" के ज्वेलरी आउटलेट में अकारण ही दाखिल हो गया ?
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था !

हुआ ऐसा कि यहाँ की ठंढक में आलस और शारीरिक कमजोरियों के कारण मुझे देर तक सोने की इजाजत है , सो मैं सबेरे आठ बजे से पहले उठ ही नहीं पाता हूँ ! इस बीच धर्मपत्नी एवं सहधर्मिणी कृष्णा जी नहा धो कर , हम् दोनों की तरफ से ,सम्पूर्ण परिवार के कल्याणार्थ देवी देवताओं को मनाने का अपना दैनिक नियम निभा लेती हैं !

सो आज जब मैं उठा उस समय मेरे कानों में कृष्णा जी के स्वर में "लक्ष्मीमैया" की उपरोक्त वन्दना और आरती पड़ी और ऐसा लगा जैसे पर्दे के पीछे से उस ऊपर वाले ने मेरे कानों में मेरे आज के ब्लॉग के लिए "शरणागति" का यह विशेष विषय "प्रोम्प्ट" कर दिया !

(शेष कल)
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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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रविवार, 23 अक्टूबर 2011

शरणागति

शरणागत वत्सल परमेश्वर

विभीषण की शरणागति
(गतांक से आगे)
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लंकेश रावण के राक्षसी साम्राज्य में उसका ही छोटा भाई विभीषण "स्वधर्म" का पालन भली भांति करता था ! असंगत लगती है यह बात ! चलिए थोड़ी यह चर्चा भी हो जाये कि आखिर
वह कौन सा 'धर्म" था जिसका पालन विभीषण करता था ?

वास्तविक "धर्म" क्या है ?

"धर्म जीवन -तत्व -विज्ञान है ! " Religion , मजहब ,पन्थ तथा मत आदि "शब्द" हैं ! मत या पन्थ का शब्दार्थ ही है "राय" ! ये सब ही , समय तथा आचार्यों के अनुसार बदलते रहते हैं ! समस्त मानवता के लिए केवल एक ही यथार्थ "धर्म" है जो किसी काल में , किसी भी आचार्य द्वारा बदला नहीं जा सकता है ,यह नित्य सनातन धर्म है ;सार्वभौमिक और सर्वकालिक धर्म है ! यह 'धर्म' मानव जीवन से सीधे सीधे सम्बन्धित है और प्रत्येक मानव को आजीवन इस "धर्म" का ही पालन करते रहना चाहिए ! सद्ग्रन्थों में , इस"मानव धर्म" के दस (१०) लक्षण बताये गए हैं !" (स्वामी सत्यानन्द जी महराज - दिसम्बर १९४७ के साधना सत्संग के एक प्रवचन से )

श्रीमद्भागवत महापुराण में एक कथा आती है ! 'यक्ष" के प्रश्नों का सही सही उत्तर देकर अपने भाइयों को जीवन दान दिला लेने के बाद युधिष्टिर ने यक्ष से उसका परिचय पूछा ! उत्तर में यक्ष ने उन्हें बताया कि वह "धर्म" हैं ,बगुले के स्वरूप में वह साक्षात् "ब्रह्म अवतार' हैं और पांडवों की धर्म निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए यह लीला कर रहे हैं ! यक्ष ने युधिष्ठिर को मानव "धर्म" के " दस लक्षण" इस प्रकार बताये :

धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः!
धीर्विद्या सत्यम अक्रोधो दसकं धर्म लक्षणम् !!

(धर्म के इन दस लक्षणों की सविस्तार विवेचना मैंने समय समय पर अन्यत्र की है
और भविष्य में भी अपने अनुभव और योग्यता के अनुसार करता रहूँगा )

हाँ तो लंकेश राक्षसराज रावण के छोटे भाई विभीषण के 'शरणागति' की चर्चा चल रही थी ! विभीषण ने अति "धीरज" के साथ , बड़े भाई रावण के अपराधो को "क्षमा" किया , क्रोधादि आवेश का "दमन" किया ,पूर्ण "शुचिता" के साथ सतत हरि सुमिरन से अपना सर्वस्व "शुद्ध" किया तथा अपनी इंद्रियों को पूर्णतः "निग्रहित" कर लिया था !

धर्म के उपरोक्त दसों गुणों को भली भांति अपने जीवन में उतार कर , सत्य धर्म निभाते हुए विधिवत अपने सभी सांसारिक कर्म करते हुए , उस कर्तव्य परायण छोटे भाई विभीषण ने अपने दुराचारी बड़े भाई रावण को बहुत समझाया कि वह सीताजी को स्वतंत्र करदे और उन्हें श्रीराम को लौटा दे ! लेकिन आततायी रावण न माना ,और अन्ततोगत्वा उसने विभीषण पर चरन प्रहार किया और अपमानित करके उसे लंका से निष्कासित कर दिया !

दुखित और तिरुस्कृत विभीषण राम दूत हनुमानजी के सहयोग से श्रीराम की शरण में गया! परमकृपालु दीनदयाल प्रभु नें उसे निःसंकोच अपने गले लगा लिया , उसका कुशल-मंगल जाना , उसे "लंकेश" कह कर सम्बोधित किया और तत्काल उसे लंका प्रदेश का महराजा घोषित कर दिया !

विभीषण को अपनाकर श्रीराम ने हम् जैसे सभी साधकों को यह सूत्र दिया है कि "वह अपने शरणागत को प्राण के समान प्यार करते हैं , पग पग पर हर संकट से उसको उबारते हैं और आजीवन उसका पथ प्रदर्शन करते हैं "

तुलसीदास ने रामचरितमानस में श्रीराम की शरणागत भक्तवत्सलता के स्वभाव का जगह जगह पर गुणगान किया है ! तुलसी की भाषा में , विभीषण की शरणागति के प्रति अपने उद्गार श्रीराम ने निम्नांकित शब्दों में व्यक्त किये हैं :

जो नर होई चराचर द्रोही ,आवे सभय सरन तकि मोही
(सुंदर का./दो .४७ / चौ.१)
जो सभीत आवा सरनाई , रखिहहूँ ताहि प्राण की नाई
(सुंदर का. /दो. ४३ / चौ. ४)
सखा नीति तुम नीकि बिचारी ,मम पन सरनागत भय हारी
(सुंदर का./दो.४२ / चौ. ४).
निज जन जानि ताहि अपनावा ,प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा
(सुंदर का./ दो.४९ / चौ. १)

श्री राम ने कहा " इस चराचर जगत का कोई जीवधारी चाहे वह मेरा द्रोही ही क्यों न हो ,यदि भयभीत तथा हताश होकर ,अति निर्मल मन से मेरी शरण में आता है , तो मैं उसे ठुकराता नहीं हूँ ! वह मेरा प्रिय पात्र बन जाता है क्योकिं शरणागत को अभय दान देना मेरा प्रण है ! याद रखना ,"मम पन सरनागत भयहारी "

विभीषण की 'शरणागति' प्रभु श्रीराम की 'शरणागतवत्सलता' पर हमारी निष्ठां को अविचल करती है ! हमें बताती है कि प्यारे प्रभु के प्रेम पात्र बननेके लिए हमे उनके साथ कितनी और कैसी "प्रीति" करनी होगी ! आधुनिक दिखावे वाली प्रीति से काम नहीं चलेगा ! केवल मंगल शनि को हनुमानजी के मंदिर में सवा रूपये के अथवा सवा किलो लड्डू का भोग लगा कर "डिनर" के बाद परिवार को "डेज़र्ट" स्वरूप परोस देने से "प्रभु"आपको अपना शरणागत स्वीकार नहीं कर लेंगे ! रामचरितमानस के अंतिम दो दोहो में तुलसी अपने जीवन भर की भक्ति के अनुभव के आधार पर बताते हैं कि प्रभु की प्रीति, प्रभु की अहेतुकी कृपा तथा उनकी शरणागति पाने के लिए जीवधारियों को उनसे कैसी प्रीति करनी चाहिए :
कामिहि नारि पियरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम !
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम !!
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क्रमशः
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बहुत कुछ कहना है पर एक साथ अधिक कह नहीं पाता ,
प्रात जो ज्ञान की भीख "वह" देते हैं ,वही पकाता हूँ और परोस देता हूँ !!
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निवेदक: व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

शरणागति

शरणागतवत्सल परमेश्वर
(गतांक से आगे)

विभीषण की शरणागति
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ईश्वर सर्वशक्तिमान,सर्वसमर्थ,सर्वग्य है ! "वह" परमकृपालु , शरणागतवत्सल और क्षमा निधान है ! भयभीत और पश्चातापी ,बडा से बड़ा अपराधी भी ,यदि अति आर्त भाव से उनकी शरण में आकर क्षमा याचना करता है ,तो करुणानिधान "प्रभु" उसको तत्काल ही क्षमा कर देते हैं ! परमेश्वर की अहेतुकी क्षमा दान के अनेकानेक उदाहरण धर्मशास्त्रों में भरे पड़े हैं !

इस युग में भी मुगलकालीन कृष्ण भक्त संत सूरदास ने बार बार अपने इष्ट से उलाहने दिए और उनसे अर्ज किया ,"हे गोविंद आपने उन सभी अपराधियों को क्षमा कर दिया जिन्होंने आपकी 'टेक' ली ,जो आपके "शरणागत" हुए ! माफ कर के आपने उन्हें अति दुर्लभ मुक्ति भी प्रदान की ! हे गोपाल आप इस "आन्धरो भिखारी" सूरदास से आंखमिचौली क्यों खेल रहे हो ? उसके भी सभी अपराध क्षमा करो हे नाथ और अपनी शरण में ले लो"!

अबकी टेक हमारी लाज राखो गिरिधारी
अजामील गीध व्याध , इनके कहू कौन साध
पंछीहू पद पढ़ात गनिका सी तारी
सूरदास द्वारे ठाढो आंधरो भिखारी
अबकी टेक हमारी लाज राखो गिरिधारी
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विभीषण की शरणागति

लंका में सीताजी की खोज करते हुए हनुमान जी ने "रामायुध अंकित" एक प्रासाद में प्रवेश किया ! उन्हें आश्चर्य्य हुआ "लंका निश्चर निकर निवासा , इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा"!वह महल था लंकापति रावण के छोटे भाई विभीषण का ! गृहपति को प्रातःकाल "राम राम " उच्चारण करते सुन कर हनुमानजी ने "तुरतहि सज्जन चीन्हा " और उन्हें यह विश्वास हो गया कि यह व्यक्ति अवश्य ही "श्रीराम" का परम भक्त है ! विभीषण ने भी रामदूत हनुमान को पहचान लिया और उनकी रामभक्ति की थाह पा ली और उनसे बेझिझक प्रश्न कर दिया कि "क्या रघुकुल भूषण श्रीराम मुझे अनाथ जान कर कभी मुझ पर भी कृपा करेंगे ?"
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी जिमि दसनन्ही महुं जीभ बिचारी
तात कबहूँ मोहि जान अनाथा ! करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ?
(मानस सुंदर कांड ,दोहा-६,चौ.-१)

विभीषन की रामभक्ति कितनी प्रबल थी ,इसका अनुमान आप इससे ही लगा लीजिए कि श्रीराम के शत्रु के राज्य में , उसकी राजधानी के बीचोबीच ,विभीषण ने अपने प्रासाद में ही
एक राम मंदिर बना रखा था और उठते बैठते चलते फिरते वह मुद् मंगलकारी राम नाम का सुमिरन किया करते थे ! किसी साधारण व्यक्ति से ऐसा कृत्य सम्भव नही है !ऐसा तो कोई पूर्ण निष्ठावान परमसाहसी प्रेमीभक्त ही कर सकता है ! मानस में तुलसी ने उपरोक्त कथा को इन शब्दों में व्यक्त किया है :

भवन एक पुनि दीख सुहावा, हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा
(मानस सुंदर कांड दोहा -४, चौ. ४ )

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाय!
नव तुलसिका वृन्द तहँ देखि हरष कपिराय !!
(मानस सुंदर कांड , दोहा - ५ )

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिर गुण ग्राम
(मानस सुंदर कांड , दोहा - ६)

शरणागति का अधिकारी सच्चा भक्त वह है जो अपने इष्ट का गुणगान सुनते ही पुलकित हो जाये और उसकी आँखें अश्रुपूरित हो जाये ! श्री हनुमान जी से प्रथम मिलन पर ,उनके मुख से राम कथा सुनते ही विभीषण की भी कुछ ऐसी ही दशा हुई थी ! :

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर
(मानस सुंदर कांड , दोहा - ७)
एहि विधि कहत राम गुन ग्रामा , पावा अनिर्वाच्य बिश्रामा
(मानस सुंदर कांड , दोहा -७ ,चौ - १)

अपने प्रभु के "नाम ,रूप ,लीला और गुणों" का गान करने में राम भक्त विभीषण को परम विश्राम मिलता था !वह रोमांचित हो जाता था ! उसके नेत्रों में प्रेमाश्रु छलक आते थे ,उसका कंठ अवरुद्ध हो जाता था ! ये सब की सब विशेषताएं एक वास्तविक "भगवद भक्त" की हैं !

प्यारे प्रभु को ऐसे भक्त ही प्रिय लगते हैं
जिन्हें अपने इष्ट के प्रति अपार प्रीति - (भक्ति), श्रद्धा और विश्वास होता है
प्रभु ऐसों को ही अपनी शरण में लेते हैं , अपनी शरणागति प्रदान करते हैं
अपना शरणागत बनाते हैं !

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विभीषण की शरणागति - क्रमशः
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011

शरणागति

शरणागवत्सल परमेश्वर

(गतांक से आगे)

"रब" की "खोज" में स्वयम अपने आप को 'खो" देना ही "शरणागति" है
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किसकी सरन में जाऊं असरन सरन तुम्ही हो ?
हमको तो हे बिहारी आसा है बस तुम्हारी
काहे सुरति बिसारी, मेरे तो इक तुम्ही हो ?
किसकी सरन में जाऊं असरन सरन तुम्ही हो ?
(एक पारंपरिक रचना)
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विभीषण और मीरा की शरणागति

निर्धन धनवान की शरण और निर्बल बलवान की शरण पाने को व्याकुल रहता है ! कूप का जल गागर से और नदी का जल सागर से मिलने को आकुल रहता है ! भिक्षुक दानी के द्वार और अज्ञानी ज्ञानी के द्वार झोली फैलाये खड़ा रहता है !

भक्त आजीवन अपने इष्ट भगवान की शरण में जाने को पल पल छटपटाता रहता है! अपने प्यारे कृष्ण की शरण में जाने के लिए विरह से व्याकुल होकर कुछ ऐसी ही वेदना झेलते हुए राजरानी मीराबाई ने कभी गाया था :

प्यारे दर्शन दीजो आय
तुम बिन रह्यो न जाय
आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन बिरह करेजो खाय
प्यारे दर्शन दीजो आय
तुम बिन रह्यो न जाय
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(यदि आपके पास समय हो ,और जी करे तो ,३० वर्ष पूर्व बच्चों के
साथ मेरी आवाज़ में गाया यह भजन सुनने के लिए नीचे के लिंक पर क्लिक करें)

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साधारणतः , अन्याय के शिकार तथा असहनीय कष्ट और पीडायें झेल रहे असहाय और निर्बल व्यक्ति ही सहायता के लिए शक्तिशाली बाहुबली व्यक्तियों की "शरण" में जाते हैं! पांडुपुत्र अर्जुन जो श्रीकृष्ण का परम स्नेही सखा था वह भी कुछ ऐसी ही विषम परिस्थितियों से घिर कर भगवान श्रीकृष्ण की "शरण" में गया था !

मीरा और विभीषण की परिस्थिति अर्जुन से भिन्न थी ! मीरा और विभीषण दोनों ही भौतिक दृष्टि में अपने अपने साम्राज्य में वैभव और ऐश्वर्य से सम्पन्न थे ,उन्हें कोई अभाव न था उन्हें कुछ अप्राप्य भी न था ,उन्हें सभी सांसारिक सुख सुविधाएँ उपलब्ध थीं ! ये दोनों ही अपने अपने "इष्टदेव" से निष्काम निःस्वार्थ प्रेम करते थे ! महापुरुष कहते हैं कि , साधकों की ,"प्रभु" के प्रति ऐसी सघन प्रीति ही "भक्ति" है !

अर्जुन के समर्पण तथा मीरा-विभीषण की शरणागति में प्रमुख भेद यह था कि अर्जुन अपने खोये हुए गौरव की "खोज" में श्रीकृष्ण की सहायता लेने उनकी "शरण" में गए थे ! वह वर्षों
श्रीकृष्ण के साथ जी कर भी सखा श्रीकृष्ण मे अपने "इष्ट" को नहीं "खोज" पाये ! अर्जुन को अपना ईश्वरत्व समझाने के लिए श्रीकृष्ण को उन्हें अपना "विराट रूप " दिखलाना पड़ा था !
इसके विपरीत मीरा और विभीषण ,दोनों ने ,भौतिक सुख -सम्पदायें त्याग कर अपने अखंड समर्पण के बल से निज इष्ट को न केवल "खोज" लिया था ,बल्कि उन्होंने तो उनकी पूर्ण शरणागति भी प्राप्त करली थी और उनकी शरन में जा कर स्वयम अपने आपको उनकी मधुर सुरति में सदा सदा के लिए पूरी तरह "खो" दिया था !

प्रियजन
अपना असितत्व खोकर अपने "इष्ट" को खोज लेना ,
किसी भक्त के लिए इससे बढ़ कर और कौन सी उपलब्धि हो सकती है ?
यही वास्तविक "शरणागति" है !
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क्रमशः
निवेदक: व्ही, एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

शरणागति

शरणागतवत्सल परमेश्वर

"अर्जुन की शरणागति"


(गतांक से आगे)


इस संसार का यह विस्तृत फैलाव महाभारत काल के कुरुक्षेत्र के समान ही है ! हमारी इस भूमि पर भी प्रत्येक जीव प्रतिपल किसी न किसी से ,कोई न कोई लडाई लड़ रहा है ! यहाँ का सैनिक ,एक एक मानव ,अपने मन में उठे नाना प्रकार के गुण-दोषमय विचारों के आवेग से निरंतर जूझ रहा है ! सतत चल रहे इस युद्ध के दांव पेंच में मन के सद्गुण "दया ,धर्म और साहस" के लोप हो जाने से मानव "मोह,"भ्रम और क्लीवता" का शिकार हो जाता है तथा आत्मबल के अभाव से विषमताओं से युद्ध करने की क्षमता ही खो देता है !


महाभारत युद्ध के प्रथम दिवस ही शत्रुपक्ष में अपने बड़े बूढे स्वजनों , आचार्यों , बन्धु बांधवों को एकत्रित देख कर अर्जुन के अंग शिथिल हो गए, मुख सूख गया ,तन काँप उठा और उसे एक इस विचार से कि उसके हाथों इन सभी स्नेही बाहुबली स्वजनों का हनन होने वाला है सर्वत्र अकल्याणकारी ,विनाशकारी तथा विपरीत लक्षण दिखने लगे ! उसने तभी बेझिझक हो कर श्री कृष्ण से अपनी मनोदशा व्यक्त करते हुए कहा :


निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव !

न च श्रेयो नुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे !!

(श्रीमदभगवद्गीता - अध्. १ ,श्लोक ३१)

भावार्थ

केशव ! सभी विपरीत लक्षण दिख रहे मन म्लान है !

रण में स्वजन सब मार कर , दिखता नहीं कल्याण है !!

(श्री हरि गीता)


स्वजनों का मोह अर्जुन पर इतना हावी हो गया कि वह निःसंकोच श्रीकृष्ण से कह बैठा कि, " इस युद्ध में "मैं" अपने सब परिजनों को मिटा कर जो अनर्थ करूंगा उसके लिए केवल "मैं" ही उस पाप का भागी बनूंगा, और फलस्वरूप "मैं" नरक में जाउंगा "आदि आदि !"अर्जुन की वार्ता से श्रीकृष्ण जान गए कि अर्जुन की समर्पण और शरणागति की भावना अब मोह और अहंकार की प्रलयंकारी बाढ में बह कर कहीं दूर निकल गयी है और कदाचित उसे भगवान की कृपा पर उतना भरोसा नहीं रहा है !


अर्जुन श्री कृष्ण का प्रिय सखा था, उनके साथ उठता बैठता खेलता कूदता खाता पीता था ! इतना घनिष्ट सम्बन्ध होते हुए भी श्रीकृष्ण ने (अर्जुन के डावाडोल भरोसे को देख कर) उसे तत्काल ही गीतामृत नहीं पिलाया ! जब आर्त भाव से वह श्रीकृष्ण की शरण गया और उनसे निश्चित कल्याणकारी कर्तव्य का निर्देश पाने की इच्छा व्यक्त की ,तब श्रीकृष्ण ने उसे अपना शरणागत स्वीकार किया और उसको "गीता" का सन्देश दिया ! उसे धर्म और सत्य की राह पर चलने की प्रेरणा दी ! अर्जुन को अपना विराट रूप दिखला कर श्रीकृष्ण ने उसका "भरोसा" पुष्ट किया और उसे अभय दान दिया !


इस दृष्टांत को हमने इसलिए याद किया क्यूंकि इसके द्वारा हमे "शरणागति" की भावना में "भरोसे" की अनिवार्यता समझ में आई ! हमे ज्ञात हुआ कि जब तक मानव मन में उसके निजी सामर्थ्य ,क्षमता ,बुद्धि तथा ज्ञान का अभिमान रहता है उसे अपने इष्ट की कृपा पर "भरोसा" नहीं हो सकता और जब तक साधक के मन में "इष्ट" के प्रति पूरा भरोसा नहीं होता उसका "इष्ट" भी उसे अपना "शरणागत" स्वीकार नहीं करता !

गुरुजनों ने बताया है कि :


भरोसा करो "अपने इष्ट" का और दृढ़ विश्वास रखो कि

"हमारा "इष्ट", सर्वशक्तिमान है ,सर्वग्य है ,सर्वत्र है और सर्वदयालु है !


" हमारा इष्ट",हर समय, हर स्थान पर हमारे अंग संग है !


"हमारा इष्ट" अभेद कवच के समान हर घडी संकटों से हमारी रक्षा कर रहा है !

कठिन परिस्थितियों में "हमारा इष्ट" हमारा मार्ग दर्शन कर रहा हैं !"


प्रियजन, पल भर को भी आप यह न भूलें कि :


"वह इष्ट" आपका है और आप "उसके' हैं -

"उस इष्ट के" अतिरिक्त आपका कोई अन्य अवलम्ब नहीं -

आपका तन ,आपका मन ,आपका प्राण , आपका समग्र जीवन सब "उस इष्ट का" ही है -


केवल आप ही नहीं बल्कि


सभी संसारी उस "एक" परमेश्वर के हैं , सृष्टि का सर्वस्व परमेश्वर का है

आप केवल "अपने इष्ट" के हैं और "आपका इष्ट" भी केवल आपका ही है-


आपको अहंकार और अभिमान यदि हो भी तो अपनी किसी उपलब्धि पर न हो;

आपको केवल इस बात का अभिमान होना चाहिए कि आपका इष्ट आप पर कृपालु है


आपको तुलसी का यह कथन हर पल याद रहे कि:


अस अभिमान जाहि जनि भोरे ! मैं सेवक रघुपति पति मोरे!!

अब कछु नाथ न चाहिय मोरे ! दीन दयाल अनुग्रह तोरे !!


इसके अतिरिक्त सदा याद रखिये कि आपके जीवन में जो कुछ शुभ और सुखकर

हो रहा है वह सब केवल आपके इष्ट की दया और कृपा से हो रहा हैं,

और उसी में आपका कल्याण निहित है !

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क्रमशः

निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव

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मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011

शरणागति

शरणागतवत्सल परमेश्वर
"अर्जुन की शरणागति"

(गतांक से आगे)

संत महात्माओं और महापुरुषों का कथन हँ कि " भगवान की कुपा पर अटूट भरोसा रखना ही 'शरणागति' है" ! आध्यात्मिक आख्यानों में "शरणागति" के अनेकानेक उदहारण मिलेंगे ,पर इस संदर्भ में हम् यहाँ पर आपको महाभारत की एक कथा सुना रहे हैं :

महाभारत के युद्ध में एक दिन, दुष्ट दुर्योधन के कटाक्षों से आहत होकर, आजीवन कुरुवंश की रक्षा हेतु वचनबद्ध पितामह भीष्म ने प्रतिज्ञा कर ली कि अगले दिन के युद्ध में वह या तो अर्जुन को मार देंगे या स्वयम हताहत होंगे ! भीष्म की इस प्रतिज्ञा ने श्रीकृष्ण को विचलित कर दिया और उनकी आँखों की नींद गायब हो गयी ! उनके प्रिय सखा अर्जुन और उसके चारों भाईयों के लिए यह अति संकट का काल था ! श्रीकृष्ण को चिंता हुई ! तत्काल ही अश्वों के सेवा की व्यवस्था कर के पार्थसारथी कृष्ण मध्यरात्रि में ही पांडवों के शिविर में पहुंच गए !
श्रीकृष्ण सोच रहे थे कि भीष्म प्रतिज्ञा सुन कर पांडू शिविर में कोहराम मचा होगा , विचार विमर्श व गहन चिंतन हो रहा होगा कि कैसे इस संकट से निपटा जाये ! लेकिन श्रीकृष्ण को पांडु शिविर में वैसा कुछ भी नहीं दिखा ! सब निश्चिन्त हो , दिन की थकावट मिटाते हुए , गहरी नींद में सो रहे थे ! कैसे सम्भव है यह शांति ? श्रीकृष्ण चक्कर में पड़ गए !

कौतूहलवश श्री कृष्ण ने सर्वप्रथम अपने प्रियतम सखा अर्जुन को जगाया ! अर्जुन घबरा कर उठ बैठा और इस सोच में पड़ गया कि , इतनी रात को श्रीकृष्ण यहाँ क्यों आये होंगे ? अर्जुन के बिन बोले ही कृष्ण उसका मनोभाव जान गए , और बोले "पार्थ क्या तूने पितामह की वह प्रतिज्ञा नहीं सुनी ,वह कल तक तुम को समाप्त करने की योजना बना चुके हैं ! पर तुझे तो जैसे उनकी प्रतिज्ञा से कुछ लेना देना ही नहीं है ! तुझे कोई चिंता नहीं कोई भय नहीं कोई घबराहट नहीं, तू निश्चिन्त होकर खर्राटे भर रहा है ! देख मै कितनी चिंता कर रहा हूँ पार्थ ! मैं तुझसे कल के युद्ध की योजना जानने आया हूँ !"

अर्जुन ठहांका मार कर हंसते हुए बोला ," मेरी योजना ? मैं कौन हूँ योजना बनाने वाला ?"

कृष्ण ने कुछ क्रोधित होकर उत्तर दिया ," भीष्म प्रतिज्ञा के प्रत्युत्तर में अपनी कल की योजना, पार्थ ! तू नहीं तो और कौन निर्धारित करेगा कल की रण नीति ?"

अर्जुन ने सहज भाव से कहा कि " बहुत भुलक्कड़ हो गए हो तुम कृष्ण ! अपनी कही बात ही भूल गए , तुम्हे याद नहीं, तुमने ही तो उस दिन मुझसे कहा था

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज !
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच :!

भावार्थ :

तज धर्म सारे एक मेरी ही शरण को प्राप्त हो !
मैं मुक्त पापों से करूँगा तू न चिंता व्याप्त हो !!
(श्री हरि गीता )

अर्जुन ने मुस्कुराते हुए कृष्ण से कहा " जब मेरे लिए चिंता करने वाला तथा मेरा योगक्षेम करने वाला मेरा बाल सखा कृष्ण हर घडी मेरे अंग संग है तब मुझे काहे की चिंता ? और फिर तुमने मुझसे खुद ही कहा है :

अय पार्थ न कर फ़िक्र न कर दिल में जरा सोच
श्री कृष्ण के होते हुए क्या फ़िक्र है क्या सोच

अल्ताफे इलाही पे भरोसा करअय अर्जुन
इकरामें कृष्ण देख , न कर मर्दे खुदा सोच

इक वख्त मुकर्रर है हरिक काम का अय पार्थ
बेकार तेरी फ़िक्र है बेकार तेरी सोच

कोई क्युंकरे फ़िक्र खुदअपनी बता तूही
जब मालिके आलम करे है सब्की फिक्रोसोच

(नानाजी मरहूम मुंशी हुबलाल साहेब "राद"की एक गजल का संशोधित प्रारूप )
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क्रमशः
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला
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रविवार, 16 अक्टूबर 2011

शरणागति

"शरणागतवत्सल परमेश्वर"
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१९३४-३५ में जब मैं ५ वर्ष का था , आजकल के "डे केयर सेंटर" जैसे एक घरेलू विद्यालय में मेरा दाखिला कराया गया ! उन दिनों हमारे बाबूजी (पिताश्री) एक अंग्रेजी कम्पनी के उच्च अधिकारी थे और हम एक बड़े बंगले में अंग्रेज परिवारों के बीच रहते थे ! लेकिन आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि उस जमाने में भी ,"सान्दीपन आश्रम ","बाल्मीकि आश्रम"और "गांधी आश्रम " की तरह ,हमारे उस "डे केयर सेंटर" का नाम था ,"बाल शिक्षा आश्रम"!उसके संस्थापक थे एक खादीधारी,गांधीवादी देश भक्त नवयुवक और उनकी नवविवाहिता देविओं जैसी स्वरूप वाली पत्नी आश्रम के प्रति उतनी ही समर्पित थीं ;! उस आश्रम जैसे "डे केअर" में हमारे गुरुजी और गुरुमाँ ,हम बच्चों से नित्य प्रातः जो प्रार्थना करवाते थे ;उसके बोल थे----

शरण में आये हैं हम तुम्हारी ,दया करो हे दयालु भगवन !
सम्हालो बिगडी दशा हमारी , दया करो हे दयालु भगवन !!

हम् सब "तोते" के समान इस प्रार्थना को नित्य प्रति गाते रहे ! आश्रम के बालकों में मैं सर्व श्रेष्ठ गायक था अस्तु गुरु माँ बाजा बजातीं थीं और मुझे आगे आगे प्रार्थना गानी पडती थी ! सो मैंने यह प्रार्थना इतनी गायी कि उसका एक एक शब्द मुझे जीवन भर के लिए कंठस्थ हो गया !कोई सवाल ही नहीं है कि तब ५ -६ वर्ष की अवस्था में हम में से कोई एक बच्चा इस प्रार्थना का सही अर्थ समझ पाता ; इसके गहन भाव को ,ईश्वर की असीम कृपा को हृदय में समा पाता! प्रियजन ,इस प्रार्थना में व्यक्त शरणागति की उच्चतम भावना तो हमें , इस भौतिक जगत की विषम वास्तविकताओं से अनेकों वर्षों तक जूझ लेने के बाद ही समझ में आयीं !

बाल शिक्षा आश्रम की अपनी उन "गुरु माँ" को और गुरु को मैं शत शत नमन करता हूँ जिन्होंने शैशव में ही मेरे मानस में शरणागति के विशाल वटवृक्ष का बीजारोपण कर दिया !

सच तो यह है कि शरणागति का महत्व तो मुझे वर्षों बाद भी तब समझ में आया जब मुझे गुरुजनों की महती कृपा से सद्बुद्धि, सद्ज्ञान एवं विवेक की प्राप्ति हुई ! मुझे अहसास हुआ कि प्रभु का शरणागत होने के लिए ऐसी ही प्रार्थना तो त्रेता युग में राक्षस राज रावण के छोटे भाई विभीषण ने अपने प्रभु बनवासी श्री राम से की थी तथा द्वापर में पांडुपुत्र अर्जुन ने योगेश्वर श्री कृष्ण से की थी !
"श्रीकृष्ण का शरणागत अर्जुन"

महाभारत के युद्ध में ,कायरपने के भावावेश में आकर व्याकुल अर्जुन ने अपना क्षत्रिय धर्म छोड़ दिया , और विषम परिस्थितियों से घबरा कर उसने शंकर जी से प्राप्त अपना अजेय गांडीव धनुष भी धरती पर डाल दिया ;किंकर्तव्यविमूढ़ हो अति कातर वाणी में वह श्री कृष्ण से बोला

" कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः -----------------मां त्वां प्रपन्नं "
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय .२ ,श्लोक - ७ )

भावार्थ :
कायरपन से नष्ट हुआ मम सदस्वभाव है
मोहित मन ने भुला दिया निज धर्म भाव है

शरणागत हो ,शिष्य बना मैं पड़ा सरन में
निश्चित कहो ,करूं क्या भगवन ,मैं ऐसे में
(भोला)

अर्जुन जब पूर्ण रूप से श्री कृष्ण के शरणागत हुआ तभी योगेश्वर ने अपने भ्रमित सखा को उसके लिए निश्चित कल्याणकारी सूत्र बतलाये ! शरणागत होते ही कृष्ण ने उसे अपनाया और विशेष कृपा कर के उसका मार्ग-दर्शन किया ,उसे दिव्य दृष्टि दी और पूर्णत : समर्पित हो कर अपना कर्म करते रहने की प्रेरणा दी -और उसे विश्वास दिलाया कि :

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पयुर्पासते !
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् !!
(गीता ,अध्याय १८, श्लोक २२)
भावार्थ
जो जन मुझे भजते सदैव अनन्य भावापन्न हो !
उनका स्वयम मैं ही चलाता योग-क्षेम प्रसन्न हो !!
(दीना नाथ दिनेश)
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद भक्त : संग वर्जित: !
निरबैर: सर्व भूतेषु य: स मामेति पांडव :!!
(गीता - अध्याय ११ ,श्लोक ५५ )
भावार्थ
मेरे लिए ही कर्म करते और मेरे भक्त हैं !
वे मिलेंगे मुझे जो जन वैरहीन विरक्त हैं!!
(भोला)
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भक्तवत्सल श्रीकृष्ण ने तो अपने उपरोक्त आश्वासन से सभी उन शरणागत भक्तों के लिए निज धाम के द्वार खोल दिए जो पूर्ण निष्ठा व समर्पण के साथ अपना स्वधर्म निभातेहैं,निष्काम भाव से अपने सभी कर्तव्य कर्म तत्परता से करते हैं तथा
जो सभी प्राणियों से प्रीति करते हुए भी पूर्णतः विरक्त हैं ,आसक्ति रहित हैं और जो पूर्णत :अपने इष्टदेव के आश्रित हैं !!
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क्रमशः
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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बुधवार, 12 अक्टूबर 2011

नाम महिमा


आखिर ये तन ख़ाक मिलेगा कहाँ फिरत मगरूरी में

मेरे प्रियजनों !

पिछले आलेखों में मैंने राम परिवार की प्रार्थना पुस्तिका "उत्थान पथ" से श्रीमदभगवदगीता और श्री रामचरितमानस में से चुने हुए कुछ ऐसे अंश प्रस्तुत किये, जिनमें जीवन जीने की कला के सूत्रों का निरूपण हुआ है ! इन सूत्रों में उच्चतम धर्म के व्यावहारिक दर्शन का सार है जिसके पठन ,मनन और अपने दैनिक जीवन में उतारने से मानवता का सर्वांगी विकास (आध्यात्मिक तथा लौकिक उत्थान) तो होगा ही ,साथ साथ व्यक्ति को "आत्म ज्ञान" होगा और उसे श्री ,विजय ,विभूति, समृद्धि तथा सम्पन्नता की प्राप्ति भी होगी !

पिछले ५० वर्षों से "उत्थान पथ" में प्रतिपादित इन सिद्धांतों के अनुसरण से मैं आज अपने निजी अनुभव के आधार पर पूरे विश्वास से कह सकता हूँ कि रामायण और गीता हमारे जीवन की हर परिस्थिति में, सुख में दुःख में ,मान-अपमान में ;खुशी और गम में हमे सत्य और प्रेम से जीने की राह दिखाते हैं , हमे भले और बुरे का ज्ञान कराते हैं तथा तुष्टि व पुष्टि से भरा आनंदपूर्ण जीवन जीने की सहज विधि बताते हैं ! तुलसी ने रामचरित मानस में हमे बार बार यह् सूत्र याद दिलाया है कि जो व्यक्ति अपना अहंकार मिटा कर सच्ची श्रद्धा भक्ति, तत्परता और समन्वय के साथ जीवन जीता है, परमात्मा ऐसे व्यक्ति का साथ कभी नहीं छोड़ते ,उसकी वैसी ही "सहज सम्भार" करते हैं जैसे एक माँ अपने अबोध बालक की करती है ! कुरुक्षेत्र की भूमि पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय सखा अर्जुन की , न केवल, वैसी ही "सहज सम्भार" की अपितु उन्होंने अर्जुन को वह "गीतामृत"का पान कराया जिसकी संजीवनी शक्ति ने उस ज्ञान को आज तक विश्व के कोने कोने में जीवित रखा है !

सतयुग और द्वापर की बात छोड़ कर यदि हम आज अपने कलियुग पर ही दृष्टि डालें तो पायेंगे कि पिछले ढाई तीन हजार वर्षों में ही विश्व में अनेकों ऐसे संत महात्मा प्रगट हुए जिन्होंने अपने सात्विक आचरण से उस "परम" को प्रसन्न किया और प्रसाद स्वरूप उनको "ब्रहमानंद' की प्राप्ति हुई ! भगवान बुद्ध , महाबीर स्वामी से ले कर पिछली शताब्दियों में भारत भूमि पर जन्मे संत महात्माओं में गुरु नानक देव ,संत रैदास , श्रीकृष्ण प्रेम दिवानी "मीराबाई " , संत कबीर दास आदि ने निष्काम प्रेमभक्ति की वह सरिता प्रवाहित की जिसमे मज्जन करने वाले सोते जागते ,उठते बैठते ,चलते फिरते , यूं कहिये अपने सभी सांसारिक कार्य करते समय प्रति पल अपने "इष्ट" को अपने अंग संग अनुभव करते हैं !

संत कबीरदास ने अपने आचार व्यवहार से प्रमाणित किया कि छल कपट तज कर किया हुआ कर्म ही यज्ञ कर्म है ! साधक का सरल जीवन ही "प्रभु"को प्रिय लगता है ! चमड़े की जूतियाँ गाँठते समय "कैसे छूटे राम रट लागी " गाकर संत रैदास ने अपने "राम" को रिझा लिया ! उसी प्रकार "कबीर" ने अपने करघे पर बुनी " झीनी चदरिया" को , मन ही मन केवल नाम जाप करके ,कभी न छूटने वाले "राम रंग" में रंगवा लिया ! इस प्रकार कपड़ा बुनते बुनते संत कबीर ने "राम " को ऐसा रिझाया कि अंत समय में कबीर की पवित्र आत्मा के साथ साथ उनके पार्थिव शरीर को भी प्रियतम "प्रभु" ने अपने उत्संग में ले लिया !
प्रभु को प्रिय लगता है वह व्यक्ति, जो सरल स्वभाव का हो जिसके मन में कोई कुटिलता न हो , जो संतोषी हो और जो सबके प्रति सद्भावना रखे ,सबसे प्रेम करे ,विनम्र हो ,पवित्र आचार विचारवाला हो, जिसमे अपमान सहने की शक्ति हो ! ऐसे सात्विक वृत्तियों वाले व्यक्ति को जप तप, योग ,यज्ञादि साधनों को अपनाये बिना ही केवल "नाम सिमरन" एवं "राम भजन" द्वारा ही सब सिद्धियों का सुख मिल जाता है ! तभी तो कबीर ने यह पद गाया : -- "जो सुख पाऊँ राम भजन में सो सुख नाहिं अमीरी में "

१९८७ में मुझे संत कबीर दास जी की "मगहर" (उत्तर प्रदेश- भारत) स्थित समाधि के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ ! समाधि स्थल के निकट पहुंचते ही वहाँ के शांत वातावरण में तरंगित "नाम- प्रेम-भक्ति" की सुधामयी धारा ने हमारे मन में एक अलौकिक भाव जगा दिया और मैं अस्पष्ट शब्द और स्वरों में कबीर साहिब की एक रचना गुनगुनाने लगा :
मन लागो मेरो यार फकीरी में!!
जो सुख पाऊँ राम भजन में ,सो सुख नाहि अमीरी में ,
मन लागो मेरो यार फकीरी में !!
भला बुरा सब का सुन लीजे ,कर गुजरान गरीबी में ,
मन लागो मेरो यार फकीरी में !!
आखिर यह तन खाक मिलेगा,कहां फिरत मगरूरी में,
मन लागो मेरो यार फकीरी में !!
हाथ में कुण्डी बगल में सोंटा ,चारो दिश जागीरी में,
मन लागो मेरो यार फकीरी में !!
कहत कबीर सुनो भाई साधो ,साहिब मिलें सबूरी में,
मन लागो मेरो यार फकीरी में !!

(महात्मा कबीर दास)


निवेदक :- व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
आलेख में सहयोग :- श्रीमती डॉक्टर कृष्णा भोला ,
चित्रांकन :- श्रीमती श्रीदेवी तथा श्री व्ही .व्ही.कुमार
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शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

दैनिक प्रार्थना (शनिवार)


श्री मदभगवत गीता
वास्तविक "तप" से "सुख" प्राप्ति के सूत्र


योगेश्वर कृष्ण ने अर्जुन को बताया कि घर बार त्याग कर , पर्वत की कन्दराओं में , घने जंगलों में जा कर कष्टमय जीवन जीना "तप" नहीं है !

तन, मन और वाणी के "वास्तविक तप"

निर्मल तन-मन से , नम्रता के साथ ,ब्रह्मचर्य व अहिंसा का पालन करते हुए देवताओं तथा विद्वान गुरुजनों का पूजन तन अथवा "शरीर" की तपस्या है !! स्वाध्याय का अभ्यास करते हुए ऐसे प्रिय और हितकर सत्य वचन बोलें जो किसी को दुःख न पहुंचाएं ,यह "वाणी" की तपस्या है ! प्रसन्नता से , शुद्ध व शांत भाव से ,मौन रहकर अपने मन को नियंत्रित रखना "मन" की तपस्या है !

प्रथम अनुभव में जो विष सा कसैला प्रतीत हो परन्तु अंत में मन और बुद्धि को अमृत सदृश्य लगे और मधु सा मीठा हो ,वह "आनंद" ही वास्तव में "सात्विक सुख"है ! विषय इन्द्रियों के संयोग से मिला क्षणिक सुख प्रारम्भ में अमृत सा मीठा लगता है परन्तु अंत में विष के समान कड़वा हो जाता है , इस सुख को "राजस" सुख कहते हैं !! आलस्य , निंद्रा , और प्रमाद जनित सुख जो जीव के मन में मोह जगा कर शुरू और अंत दोनों में ही मीठे लगते हैं , उन्हें "तामस" सुख कहते हैं !!

अंत में श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि " मेरी और तुम्हारी इस धर्म चर्चा को ध्यान से पढ़कर अपने जीवन में उतारना ही साधक द्वारा विधि विधान से किया हुआ "ज्ञान यज्ञ" है और यही "मेरी" (उसके इष्ट की ) वास्तविक पूजा आराधना भी है !

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राम चरितमानस से नाम महिमा


राम कौन ?

इस जगत के सभी जड़ चेतन तत्वों में तथा इस सृष्टि के सभी जीव जन्तुओं में जो सामान्य रूप में व्याप्त है वह है "राम" ! अस्तु आइये हम इस समस्त सृष्टि को तथा इसमें के सभी नर नारी को राम रूप मान कर उनको समुचित आदर दें तथा उनकी चरन वन्दना करें!

"ब्रह्म" ऐश्वर्य , यश, श्री ,धर्म , वैराग्य एवं ज्ञान से युक्त है , अविकारी , अजन्मा, अजेय , अनादि तथा अनंत हैं और सर्वत्र व्याप्त हैं ,शिव जी का कथन है कि यह ब्रह्म भी "प्रेम" के वश होकर कभी कभी इस धरती पर प्रगट होते हैं ! इस ब्रह्म के अनेक नाम हैं जो एक से एक बढ़ कर हैं ! नारद के विचार में तो "राम नाम" से बढ़ कर अन्य कोई नाम है ही नहीं ! उनके कथनानुसार राम नाम पाप रूपी जंगली पंछियों के समूह को उड़ा देने के लिए बधिक के समान भयकारी हैं ! राम नाम लेते ही सब अमंगल समूल नष्ट हो जाते हैं , तथा अर्थ , धर्म , काम तथा मोक्ष, ये चारों पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं ! नीच कामदेव को उसकी धृष्टता के कारण दण्डित करने वाले "शिव जी " कहते हैं कि इस " समग्र जगत के मातापिता श्री सीता रामजी हैं, इनका नाम जाप करने से विवेकी मनुष्यों के जनम मरण के बंधन कट जाते हैं ! संकट से घबराए आर्त भक्तजन जब नाम जप करते हैं तब उनके भारी से भारी संकट भी टल जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं" ! तुलसी कहते हैं "यदि तू भीतर-बाहर सर्वत्र उजाला चाहता है तो अपने मुख रूपी द्वार की जीभ रूपी चौखट पर राम नाम का मणि दीपक रख "!

हमारे गुरुदेव स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने भी कहा :

राम नाम दीपक बिना जन मन में अंधेर!
रहे इससे हे मम मन नाम सुमाला फेर!!

नवरात्रि भर आपको मानस के अंश गाकर सुनाता रहा, आज भी अपनी आराधना अधूरी नहीं रहने दूँगा ! अस्वस्थता के कारण कंठ अवरुद्ध है , सांस लेने में भी कठिनाई हो रही है , फिर भी आज के दिन अपनी पूजा न करूं ये कैसे होगा (और हाँ ,स्वयम अति अस्वस्थ होते हुए भी कृष्णा जी ने बखुशी केमरा चलाया है) ,जैसा भी है , प्लीज़ जितनी देर सुन सकें सुन लें :


धन्यवाद
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"क्रमशः
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला , श्रीदेवी कुमार ,प्रार्थना ,माधव
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बुधवार, 5 अक्टूबर 2011

दैनिक प्रार्थना (शुक्रवार)

जय श्री राम
विजय दशमी की हार्दिक बधाई
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श्रीमद भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा बताये
तीन प्रकार के "कर्म" और "कर्ता'
"सात्विक , राजस , तामस"
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फल की आशा त्याग कर,बिना किसी राग द्वेष के , असंग हो कर किये गए नियमित सभी कर्म "सात्विक" कहे जाते हैं !! जो कर्म अहंकार बुद्धि से , फल की आश लगा कर, अधिक परिश्रम से किये जाते हैं , वे "राजस कर्म " है !! अज्ञानता से किये हुए कर्म , जिन्हें करते समय हानि लाभ, पौरुष, परिणाम तथा हिंसा का विचार न हो उसे "तामस कर्म" कहते हैं !

जो धीरजवान व्यक्ति , उत्साह से , बिना किसी लाग लगाव के , सिद्धि असिद्धि के विकारों से मुक्त हो कर अपने सभी कर्म करता है वह "सात्विक कर्ता" कहा गया है !! वह कर्ता जो विषयी हो, लोभी हो तथा हर्ष विषाद की मलिन भावनाओं से युक्त हो और कर्म करते समय फल प्राप्ति की कामना में लींन रहे उसे "राजस कर्ता" कहा गया है !! जो कर्ता स्वभाव से ही आलसी ,शठ , विषादी , घमंडी, लम्बी हांकने वाला , हिंसक प्रवृत्ति का हो , अशिक्षित और अविवेकी हो ,वह "तामसी" कह्लाता है !

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विजय रथ


विजयदशमी का यह गौरवपूर्ण पर्व , सात्विक=दैवी-शक्ति के हाथों तामसी-आसुरी- शक्ति की पराजय का एक जीवंत कथानक है ! नंगे पाँव बनवासी राम ने रथारूढ़ लंकापति रावण को पराजित कर के यह साबित कर दिया कि छोटी से छोटी दिखने वाली , दैवी शक्ति भी बड़ी से बड़ी आसुरी शक्ति को बात ही बात में पराजित कर सकती है !

राम चरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने श्री राम की वाणी से ऐसे धर्ममय "विजय रथ" के गुणों की उद्घोषणा करवाई है जिस पर सवार हो कर एक साधारण पैदल सिपाही बड़े बड़े अभेद सैन्य उपकरणों से सुसज्जित ,अजेय रिपुओं को भी पराजित कर सकता है !

श्री राम ने बताया कि " इस धर्म मय ,विजय रथ के पहिये हैं -शौर्य और धैर्य ; ध्वजा पताका हैं सत्य और शील ! इस रथ के घोड़े हैं : बल , विवेक , इन्द्रीय दमन और परोपकार - इन घोड़ों को क्षमा , दया और समता रूपी डोरी से जोडा गया है ! ईश्वर का भजन इस रथ का सारथी है ! वैराग्य उसकी ढाल है और संतोष तलवार है ; दान फरसा है, बुद्धि शक्ति है तथा विज्ञानं धनुष है ; निर्मल मन तरकस है जिस में संयम , अहिंसा ,पवित्रता के वाण पड़े हैं !सद्गुरु का आधार कवच है ! श्री राम ने अंततः कहा कि जिस वीर के पास इन दिव्य सनातन जीवन मूल्यों से लैस रथ है , उसे कोई सांसारिक शत्रु परास्त नहीं कर सकता !"


मानस में तुलसीदास जी ने निम्नांकित पदों में उपरोक्त सन्देश दिया है :


विजय रथ के इस विवरण को "भोला" की भोजपुरी धुन में सुनिए !


पुनः
प्यारे स्वजनों , अतिशय प्रिय ब्लोगर बंधुओं
राम राम
विजय दशमी के शुभ अवसर पर हमारी हार्दिक बधाई स्वीकार करें
प्यारे प्रभु की असीम कृपा आप पर सदा सर्वदा बनी रहे
आप धर्ममय विजय रथ पर आरूढ़ हो सफलता के उच्चतम शिखर चढ़ लें !

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क्रमशः
निवेदक : व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा जी तथा रानी बेटी श्री देवी (चेन्न्यी)
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दैनिक प्रार्थना (गुरुवार)

श्रीमदभगवत गीता में निरूपित "देवता तथा असुर" के लक्षण
तथा
रामचरित मानस से , मानव के लिए निर्धारित "सद्नीति"
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श्रीमदभगवद गीता में श्रीकृष्ण ने दैवी सम्पदा युक्त सत्व गुणी मानव को उनके सत्कर्मों के कारण "देव" की संज्ञा दी है और आसुरी सम्पदा युक्त तमोगुणी मानव को उनके दुष्कर्मों के कारण "असुर" कह कर संबोधित किया है !


श्रीमद भगवत गीता के उपरोक्त श्लोकों का रानीबेटी प्रार्थना तथा पुत्र माधव द्वारा पाठ



श्रीमदभगवत गीता के उपरोक्त श्लोकों का भावार्थ

निर्भयता , अन्तःकरण की शुद्धि ,ज्ञान और योग में स्थिति ,सात्विक दान , इन्द्रिय-दमन, यज्ञ ,स्वाध्याय , तप, सरलता , अहिंसा , सत्य , अक्रोध , त्याग ,शांति ,अपैशुन ,भूतों में दया भाव ,लोभ् - लालसा रहित होना , कोमलता ,लज्जा , अचंचलता , तेज , क्षमा, धैर्य , पवित्रता , द्रोह न करना , अभिमानी न होना; ये गुण जिस मानव के आचार -व्यवहार में पाए जाते हैं ,वे देवता की श्रेणी में आते हैं !अज्ञानी होकर , दम्भ -दिखावा करना , घमंड और अभिमान करना , अकारण क्रोध करना , तथा अतिशय कठोर स्वभाव का होना आदि अवगुण से भरपूर मानव असुर की श्रेणी में आते हैं ! काम, क्रोध और लोभ ही नरक के तीन दरवाजे हैं ;जो आत्मा का नाश करने वाले हैं ! अस्तु विवेकी व्यक्ति को इन तीनों को छोड़ देना चाहिए !(अ - ६, श.२१)!

स्वार्थ की सिद्धि में बाधा आने पर ,आपसी कलह और क्लेश होने पर क्रोध आता है , क्रोध के आवेश में मनुष्य को उचित अनुचित कर्तव्य -कर्म का विचार नहीं रहता ! ऐसे अविवेक से उसकी स्मृति भ्रष्ट हो जाती है और उसकी बुद्धि का नाश हो जाता है, और अंत में उसकी आत्मा का उत्थान नहीं हो पाता इसलिए यह त्याज्य है अ-२,श ६३) !!

जिस मनुष्य ने शरीर छोड़ने से पहले (मृत्यु से पूर्व) ही कामना और क्रोध से उत्पन्न वेग को सहन कर लिया ,जो तृष्णा और वैर के वशीभूत नहीं हुआ ,वह योगी पुरुष ही वास्तव में सुखी है !(अ-५ श.२३)

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मानस में परिलक्षित मानवता के लिए अनुकरणीय नीति

रामचरितमानस में दैवी गुणों की सम्पदा प्राप्त करने के लिए कुछ नीतिप्रद सूत्रों का निरूपण इन पदों में हुआ है :---


मानस के उपरोक्त प्रसंग का "भोला" द्वारा नवरात्रि में सस्वर गायन


मानस के उपरोक्त अंश का भावार्थ

ग्रह-नक्षत्र ,औषधियां, जल, पवन आदि शक्तिशाली विभूतियाँ भी सूक्ष्म से सूक्ष्म कुयोग से बिगड़ जाती हैं तथा सुयोग से संवर जाती हैं ! कुलक्षण व्यक्तियों के संग से सुवस्तु भी बिगड कर कुवस्तु बन जाती है ! अस्तु विचारशील सात्विक व्यक्ति को कुमित्रों का परित्याग करना और सद्गुणी मित्रों का संग करना चाहिए !

सरल स्वभाव,निर्मल चित्त ,संतोष,निर्बैर, राग द्वेष रहित हो,सुख -दुःख में सम-व्यवहार करना ,मीठी वाणी बोलना आदि गुणों को जो मानव जीवन में चरितार्थ कर लेता है ;वह दैवी गुणों की सम्पदा पा लेता है !इसके लिए सदनीति है कि "कुपंथ पर मत चलो अपितु श्रेष्ठ महापुरुषों के द्वारा दिखाई राह पर चलो ! ऐसे कुमित्र का परित्याग करो जो धर्म और सत्य की राह पर चलने में बाधा उपस्थित करे! अपने सामर्थ्य के अनुसार सबकी सेवा करो ! किसी से द्रोह करना ,पराई स्त्री और पराये धन पर अपना अधिकार जमा कर उसे हड़प लेना , दुसरे की निंदा करना आदि त्यागने योग्य दुष्कर्म है ! ऐसे दुष्कर्म करने वाले व्यक्तियों को मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने राक्षस अर्थात असुर की संज्ञा दी है !
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क्रमशः
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा जी , श्रीदेवी (चेन्न्यी) ,प्रार्थना (दिल्ली) ,माधव (हंगरी)
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रविवार, 2 अक्टूबर 2011

दैनिक प्रार्थना (बुधवार)

ईश्वर की कृपा प्राप्ति के लिए
मानस में प्रतिपादित संत लक्षणों को अपनाकर
श्री कृष्ण के प्रिय बनो
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महापुरुषों का कथन है कि मानव जीवन का समग्र उत्थान करके उसे परमानंद से परिपूरित कर देने के लिए "ईश्वर" का "कृपा पात्र" बनना आवश्यक है ! इस परिप्रेक्ष्य में योगेश्वर श्री कृष्ण ने श्रीमदभागवत गीता के निम्नांकित श्लोकों के द्वारा अर्जुन को बताया कि "ईश्वर" का "प्रेमपात्र" बनने के लिए तथा 'परमानंद' की प्राप्ति के लिए जीव को क्या क्या करना है तथा उसे अपने जीवन तथा आचार व्यवहार में किन किन गुणों का समावेश करना होगा !

audio

श्रीमद भगवत गीता के उपरोक्त श्लोकों का भावार्थ

जो करुणावान जीव ,मद - ममता से रहित , सुख-दुःख से परे, बिना द्वेष के , सब जीवों से मैत्री भाव रखता है , क्षमाशील है तथा मन बुद्धि से मुझमे लगा पूर्णतः संतुष्ट ,दृढ़ निश्चयी तथा संयमी वह "मुझे" ("इष्ट"/भगवान को ) अतिशय प्रिय है !! (१२/१३-१४) !! जो जीव किसी को क्लेश न दे और न स्वयम किसी से क्लेश पाए ,जो भय ,क्रोध, हर्ष , विषाद आदि से मुक्त हो ,वह जीव मुझे बहुत प्यारा है !! जो जीव पवित्र , पक्षपात एवं इच्छा रहित ,चतुर, सर्व आरम्भ त्यागी हैं , वे मुझे अति प्रिय हैं !!१२/१५-१६)!!जो जीव किसी से द्वेष नहीं करता, जो फालतू की कामनाओं से मुक्त है और छोटी छोटी बातों से न तो हर्षित होता है न शोकाकुल होजाता है और जो जीव अपने कर्मों के शुभ और अशुभ सभी फलों को"मुझे" समर्पित कर देता है ,वह भक्त मुझे बहुत प्यारा लगता है !! जो शत्रुओं और मित्रों से सम व्यवहार करता है , जिसको सम्मान और अपमान एक से लगते हैं ,जिसे "सुख-दुःख" और "सर्दी - गर्मी" , समान लगते हैं , जो आसक्ति रहित है ,ऐसा मतिमान जीव मुझे प्रिय है !!
वह जीव जिसे "निंदा - प्रशंसा सम प्रतीत हो ,जो अधिक न बोले और जिसकी बुद्धि उसे बहुत भटकाए नहीं तथा सांसारिक विषयों के प्रति जिसका अधिक लगाव न हो ऐसा बुद्धिमान जीव मुझे अतिशय प्रिय है !! (१२/१७-१८-१९)

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राम चरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी संतजनों के विविध लक्षणों का निरूपण किया है ! इन्हें अपनाकर जीव अपने 'इष्ट' का प्रेम पात्र बन कर उनकी अहेतुकी कृपा का अधिकारी बन जाता है ! "उत्थान पथ" के आज की प्रार्थना में इनका समावेश है :


प्रियजन ! आइये रामायण के इस अंश का गायन सुनें :


यदि हम इनमें से कुछ गुण अपनी साधना तथा दैनिक जगत व्यवहार में उतार पाते हैं तो योगेश्वर श्रीकृष्ण तथा मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के प्रिय पात्र बन सकते हैं !
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव 'भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा जी, श्री देवी,प्रार्थना, माधव
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शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

दैनिक प्रार्थना (मंगलवार)

दैनिक प्रार्थना
(गतांक से आगे)

कल पहली अक्टूबर को , पूज्यनीय "बाबू"- दिवंगत श्रद्धेय श्री शिवदयाल जी की पुण्यतिथि पर , हमने गीता व राम चरित मानस के वे विशेष सूत्र आपको बताये थे जिनका पालन करके श्री राम परिवार का सर्वान्गीण विकास हुआ ! स्वयम मैं ,तथा मेरे परिवार के सभी जन इनसे प्रतिपादित सूत्रों को सच्चाई से अपने जीवन में उतार कर कितने लाभान्वित हुए हैं , अपने मुंह से कहना उचित नहीं है !

चलिए आगे बढते हैं , हमारी अगले दिन की प्रार्थना में "गीता" से "इन्द्रियों व मन का निग्रह" तथा "मानस" से "सदाचार" के सूत्रों को उध्रत किया गया है ! सर्वप्रथम "गीता" प्रस्तुत है :



उपरोक्त श्लोकों का भावार्थ

इन सूत्रों से श्री कृष्ण ने हमसे कहा : वह व्यक्ति जो कर्म का त्याग करके विषय के चिंतन में लगा रहता है वह दम्भी है 'पाखंडी" है और वह व्यक्ति जो मन से अपनी इन्द्रियों को काबू में करके अपने कर्म करता रहता है वह "श्रेष्ट" है !!वह व्यक्ति दृढ़ प्रग्य है जो अपनी इन्द्रियों को वश में कर के योग युत होकर अपने सभी कर्म करता है !! चंचल और संशयवान मन को साधना कठिन है परन्तु नियमित अभ्यास से यह साधना सम्भव है !! आपका मन जहां जहां से भागता है , उसे रोक कर ,पुनः वहीं ले आओ और फिर उसे अपनी आत्मा के आधींन कर दो !! जो सभी को मुझ में देखता है और सर्वत्र ,सब में मुझे देखता है "मैं" उस व्यक्ति से दूर नहीं और वह "मुझसे" दूर नहीं !! द्वेश और इच्छाओं से मुक्त व्यक्ति ही नित्य सन्यासी है ! द्वनदों को तज कर मानव सर्व बंधन मुक्त हो जाता है !!

प्रार्थना और माधव की आवाज़ में उपरोक्त गीता का पाठ वैसे ही सुनिये
जैसे उनोने अपने बड़े मामा से बचपन में सीखा था !


मानस से "सदाचार"के सूत्र :-

मानस के निम्नांकित सूत्रों में तुलसी का कहना है कि "प्यारे प्रभु" तब ही प्रसन्न होते हैं जब साधक पूरी श्रद्धा से उनकी चरन वन्दना करते हैं ! वह व्यक्ति जो काम क्रोध मद मान मोह लोभ क्षोभ राग द्रोह दम्भ कपट और माया का परित्याग करता है उसके हृदय में ही "प्रभु" का निवास होता है !! जो सबके प्रति प्रेम रखे और सबका हितकारी हो , जो दुःख-सुख , प्रसंशा और बदनामी में सम भाव रहे , सोच विचार कर सत्य और प्रिय वचन बोले ,और एक मात्र प्रभु की शरण में ही रहे ,ऐसे जन के मन में "प्रभु" का निवास होता है !! जो पर स्त्री को मा तथा पर धन को "विष" समझे तथा अन्य लोगों की समृद्धि से प्रसन्न हो , जिनका मन दुखियों को देख कर व्यथित हो जाए ,और जो अपने प्रभु से असीम प्रीति करे ऐसे व्यक्तियों के "मन सदन" में "प्रभु" का निवास होता है !"( हम इन प्रभु को "राम नाम" से सम्बोधित करते हैं - आप अपने "इष्ट" को सिमर कर इसे पढ़ें - अवश्य कल्याण होगा )

मानस से "सदाचार" के सूत्र

सब करि मांगहि एक फलु राम चरन रति होउ !
तिन के मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ !!

काम कोह मद मान न मोहा , लोभ न छोभ न राग न द्रोहां !!
जिन्ह के कपट दम्भ नहि माया, तिन्ह के हृदय बसों रघुराया !!
सब के प्रिय सबके हितकारी , दुःख सुख सरिस प्रसंसा गारी !!
कहहि सत्य प्रिय वचन बिचारी ,जागत सोवत सरन तुम्हारी !!
तुम्हहि छाड़ी गति दूसर नाहीं ,राम बसहु तिन्ह के मन माही !!
जननी सम जानहिं पर नारी , धन पराव विष तें विष भारी !!
जे हरषहिं पर सम्पति देखी , दुखित होहिं प्र विपति विशेषी !!
जिनहि राम तुम प्रानपियारे, तिन के मन सुभसदन तुम्हारे !!

स्वामि सखा पितु मातु गुरु जिनके सब तुम तात
मनमंदिर तिनके बसहु सीय सहित दोउ भ्रात !!
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सदाचार के उपरोक्त सूत्र अपनाकर अपना जीवन सुधारने की मंत्रणा हमारे पूज्यनीय बाबु ने हम सब को दी थी ! हमे गर्व है कि राम परिवार के अधिकाधिक सदस्य इससे लाभान्वित हुए चलिये इन सूत्रों को एक बार मेरे साथ गा लीजिए


धन्यवाद !
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा जी, श्री देवी , प्रार्थना , माधव