हनुमत कृपा - अनुभव
पद्म भूषण
उस्ताद गुलाम मुस्तफा खान
साधक साधन साधिये हमारी साधना - भजन कीर्तन (३ ० ० )
जब १९५०-६० के दशक में मैं पहली बार मुस्तफा साहेब से मिला तब मेरी उम्र रही होगी २४-२५ के दरमियाँ और उस्ताद मुझसे एकाध वर्ष छोटे २२ -२३ वर्ष के रहे होंगे ! उन दिनों मैं अपनी छोटी बहन माधुरी श्रीवास्तव का अभिभावक और संगीत शिक्षक बनकर उनका रेडिओ कार्यक्रम करवाने जाया करता था ! अन्य कलाकारों की अपेक्षा माधुरी उस समय उम्र में काफी छोटी थी ! वह १५ - १६ वर्ष की अवस्था में ही रेडिओ पर गाने लगी थी और हाँ थोड़ा जादू मेरी सरस "शब्द एवं स्वर रचनाओं " का भी था (क्षमा प्रार्थी हूँ ,अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने का अपराध जो कर रहा हूँ ) जिसके कारण हम दोनों भाई बहन ," भोला माधुरी", उन दिनों लखनऊ रेडिओ स्टेशन में काफी प्रसिद्द हो गये थे !
शायद उन्ही दिनों मुस्तफा साहेब भी रेडिओ स्टेशन से जुड़े थे ! अस्तु हम दोनो 'हमउम्र' व्यक्तियों में भाइयों का सा सम्बन्ध होना स्वाभाविक ही था ! और एक बात थी कि दोनों ही संगीत में रूचि रखते थे ! अंग्रेज़ी में एक मशहूर कहावत है "Birds of the same feather flock together" (इसके बराबर की हिंदी कहावत नहीं याद आ रही है, कृपया कोई बताये प्लीज़) ! हम दोनों - गुलाम मुस्तफा साहेब और मैं,उस समय से आज तक इस कथन को भली भांति चरितार्थ कर रहे हैं !
प्रियजन , वह मुझे मित्रों जैसा भरपूर स्नेह देकर मुझे "भोला भाई" कह कर संबोधित करते थे ! "मौसीकी' के किसी कोण से मैं उनका मुकाबला नहीं कर सकता !सच पूछिए तो वह तब (आज से ५०-६० वर्ष पहले भी ) संगीत के आकाश में वैसे ही प्रकाशमान थे ! मैं मानता हूँ कि वह संगीत के सूर्य हैं और मैं एक जुगनू भी नहीं हूँ !
अनेकों पीढ़ियों से संगीत की सेवा करने वाले बदायूं के इस होनहार संगीतग्य का मित्र कहला पाना भी मेरे लिए बड़े गर्व की बात तब भी थी और आज भी है ! मेरे विषय में तो आप सब जानते ही हैं कि मैं , सांसारिक उत्तरदायित्व निभाने और अपने परिवार की परवरिश करने के लिए ज़िन्दगी भर, पेशे से "चर्मकार" बना रहा और रोज़ी रोटी के सिलसिले में देश-विदेश भटकता रहा , और परमात्मा की इच्छा से मेरा "संगीत" केवल भजन लेखन और गायन तक सीमित रहा जिनमे मुझे असाधारन उपलब्धियां भी हुई,!
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सो सब तव प्रताप रघुराई , नाथ न कछू मोरि प्रभुताई
अब मुझे ऐसा लगता है जैसे ईश्वर ने मुझे "संगीत" का दान केवल सन्मार्ग दिखाने और उस राह पर चलते हुए स्वयम स्वधर्म पालन करने और अपने प्रिय स्वजनों को भी उस पथ पर सतत चला कर उनके साथ मिलकर समवेत स्वरों में "हरि गुणगान" करने के लिए ही दिया है !
हाँ ,तब १९५०-५५ में ,जब मैं कानपूर में ही था,मेरे पुरजोर अनुरोध पर गुलाम मुस्तफा साहेब मुझे संगीत सिखाने को राजी हो गये ! यह मेरा सौभाग्य था और मेरे लिए बड़े गर्व की बात थी !
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क्रमशः
निवेदक: वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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