हनुमत कृपा - अनुभव साधक साधन साधिये
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साधन -"भजन " ( २८४ )
भजनों की उपयोगिता के विषय में मेरी यह वार्ता पिछले कई अंकों से चल रही है
अस्तु नये पाठकों से अनुरोध है क़ि पूरी जानकारी के लिए
संदेशों के इस श्रंखला को वे
मेरे जनवरी १८, '११ के संदेश # २ ७ ० से पढ़ें !
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यूं तो अनेकानेक संतों ने अपनी रचनाओं द्वारा उपरोक्त भावना की पुष्टि की है , ह्म यहाँ पर अपने सद्गुरु स्वामी श्री सत्यानन्द जी महराज के "शब्द सुर ताल मय भजन गायन" विषयक अनमोल वचन उन्हीं के शब्दों में उद्ध्रत कर रहे हैं !
संतों की भगवान में सुरति स्वरों के संग
एक तार होकर बजे ,सहज न होवे भंग !!
गाते सुनते गीत को लूटें रस जो प्रेम !
रसिक समाधी में रमें तज कर आसन नेम !
अश्व स्वरों के रूढ़ हो सुरति चढ़े आकाश !
प्रभू प्रेम की सुधि पड़े ,संशय होवे नाश !!
संत सुजन सत्संग में बहे गीत की गंग !
शब्द पाठ सुर् राग के , उठे तरंग अभंग !!
राग रागिनी गाय कर ,जो भजते भगवान !
सफल जन्म उसका गिनों ,सफल कर्म शुभ ज्ञान !!
(स्वामी सत्यानन्द जी महराज के भक्ति प्रकाश से)
श्री स्वामी जी महाराज के चरण कमलों की शरण मुझे नवंबर १९५९ में मिली और फिर ग्वालियर के पंचरात्री सत्संग में उसी वर्ष मुझे उनका ६ दिवसीय सानिध्य प्राप्त हुआ !
मेरे जीवन का वह पहला साधना सत्संग था और उस सत्संग का मेरा प्रत्येक अनुभव अनूठा था ! भाई !आत्मकथा लिख रहा हूं कहीं न कहीं उनका सविस्तार वर्णन लिखूंगा , आज मैं केवल उस सत्संग के अपने "भजन" सम्बंधित अनुभव ही बताउँगा इसलिए क़ि उनके द्वारा हमे अपने सद्गुरु स्वामी जी की मधुर स्मृत होगी - तो सुनिए :
आज की तरह उन दिनों भी प्रातः कालीन सभा और रात्रि की सभा में साधकों के भजन होते थे ! और तब भी गुरुदेव ही इशारा करके उस साधक को आमंत्रित करते थे जिसका भजन वह सुनना चाहते थे ! उस सत्संग में मैं एक अकेला ऐसा साधक था जो पिछले ८ - १० वर्षों से आकाशवाणी के भजन कार्यक्रमों से जुडा था,स्वयं गाता तो नहीं था पर अपनी कलाकार छोटी बहेन को सिखाता था ! अस्तु जैसा स्वाभाविक है, भजन गाने में मैं अपने आपको "तीसमार खान" समझता था ! सत्य है यह क़ि उस समय मैं इस अहंकार से भरा था क़ि उस सत्संग में मैं सर्वश्रेस्ट भजन गायक था और सबसे बड़ी बात यह थी क़ि श्री महराज जी के ग्वालियर के अत्याधिक प्रिय साधक शिवदयाल जी की छोटी बहेन मेरी धर्मपत्नी थीं और उन्होंने स्वामी जी को मेरी गायकी के विषय में अवश्य बताया होग़ा !
इस प्रकार मुझे पूरा विश्वास था क़ि और किसी को चांस मिले या न मिले स्वामी जी मुझे तो ,प्रति दिन दो तीन बार अवश्य ही गवाएंगे !
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उस पंचरात्रि के बाद एक अर्ध शताब्दी से भी अधिक समय गुजर चुका है ! श्री राम कृपा से भरपूर इस दास के जीवन की गाडी अब ८० से ९० की ओर तीव्र गति से बढ़ रही है ! वह अकड वह अहंकार वह शारीरिक क्षमता अब नहीं है इसलिए शीघ्र थक जाता हूं ,पर गुरुजनों के आशीर्वाद से प्राप्त 'असीम आनंद' के भाव तब से अब तक मेरे मन में भरे पड़े हैं और जग जाहिर होने को उमड़ते घुमड़ते रहते हैं !
शेष कथा! अगले संदेशों में !
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निवेदक:- व्ही. एन श्रीवास्तव "भोला"
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