हनुमत कृपा - अनुभव साधक साधन साधिये
साधन- भजन कीर्तन (२ ९ २ )
जीवात्माओं पर परमपिता परमात्मा की उस बृहद कृपा की चर्चा मैंने की जिसमें उन्होंने हम भाग्यशाली जीवों को सत्कर्म तथा आमोद प्रमोद करने के लिए विविध उपकरणों से लैस यह "मानव शरीर" दिया है ! उन उपकरणों के उचित उपयोग की विधि सिखाने के लिए परमात्मा ने हमें "सद्गुरु" स्वरुप श्रेष्ठ प्रशिक्षक भी दिए जिनकी कृपा से हमें प्राप्त हुआ उस मानव-संयंत्र का "मैनुअल" ( रख-रखाव एवं संचालन विधि दर्शाती पुस्तिका ) और हमें मिली सद्गुरु स्वामीजी जी महाराज द्वारा रचित "अमृतवाणी" !
सृष्टि के आदि काल से ,मानवता के कल्याण की शुभेच्छा से "परमेश्वर"समय समय पर ह्मारे सद्गुरु सदृश्य महामानवों को इस धरती पर जन कल्याण हेतु भेजते रहे है ! ये महापुरुष अपनी कठिन साधना द्वारा अर्जित उस दिव्य ज्ञान का वितरण ,जन साधारण के आध्यात्मिक उत्थान हेतु करते रहे हैं !
भारत की हजारों वर्ष पुरानी पौराणिक वैदिक संहिता के प्रादुर्भाव के उपरांत विश्व के अन्य भागों में भी अनेकानेक देवपुरुषों ने अपने अपने अनुयायियों के लिए निज निज अनुभवोँ के आधार पर स्वधर्म पालन की विविध संहिताएँ प्रचलित कीं ! हिन्दुओं के श्रीमदभागवत, श्रीमदभगवदगीता ,रामचरितमानस ,विविध बौद्ध व जैन धर्म ग्रन्थ , गुरुग्रंथ सहिब तथा मुसलमानों के कुरानशरीफ और ईसाइयों के "बाइबिल" जैसे पवित्र धर्म ग्रन्थों में वर्णित समग्र आध्यात्मिक ज्ञान का समावेश महाराज जी की इस रचना "अमृतवाणी" में है !
अमृतवाणी रूपी इस आध्यात्मिक ज्ञान की छोटी सी गागर में दिव्य विचार -मणियों का आगार संजोये पूरा का पूरा महासागर समाया हुआ है ! महाराज जी ने अपने जीवन भर की तपश्चर्या के फलस्वरूप जिन रहस्यमय चिरन्तन तत्वों का साक्षात्कार किया उन्होंने उन्हें इस छोटी सी पुस्तिका में अंकित कर के मानवता के कल्याण के उद्देश्य से प्रसाद स्वरुप सर्वत्र वितरित किया !
मैंने यह प्रसाद पाया ,अपने ग्वालियर सम्बन्ध से ! मेरे पास से वह प्रसाद मेरे मुंह बोले बड़े भैया के पास पहुंचा ! उन्होंने इसे भारत सरकार के अनेक उच्चतम अधिकारियों तक पहुँचाया जिन्होंने भी केवल " नाम जप " की साधना से वह सब पा लिया जो जप तप व्रत संयम नियम आदि से योगियों को भी दुर्लभ है !
उदहारण स्वरूप भैया के एक मित्र थे ---जन्म से ब्राह्मण , एक पुरोहित - पुजारी वंश की सन्तान वह घर की सनातनी पूजा पद्धति से अत्यंत दुःखी थे और कर्मकांड की दृष्टि से उन्हीं के शब्दों में वह पूरे नास्तिक ही थे ! पर सरकारी सेवा को वह धर्म मानते थे और दिन रात उसी में जुटे रहते थे ( बक्सों में भर कर सरकारी कागज़ात दफ्तर से उनके साथ रोज़ शाम उनके घर आते थे , और वह घर पहुँच कर उन्हीं पर जुट जाते थे ) ! किसी प्रकार की पूजा आराधना तो छोड़िये काम के पागलपन में वह परिवार के सदस्यों के प्रति अपने कर्तव्य भी पूरे नहीं कर पाते थे ! "कर्म करना ही धर्म है "- गीता का यह उपदेश वह अति दृढ़ता से मानते थे पर :
"प्रभु की अखंड स्मृति और शरण में रह कर अपने वर्तमान कर्म करते रहो "
वाले श्रीगीता जी की इस सीख के अग्र भाग को वह बिल्कुल ही भूल जाते थे ! फल स्वरूप कर्तापन का अहंकार, उनसे कभी कभी उनके काम काज में बड़ी बड़ी भूलें भी करवा देता था और वह दुःखी हो जाते थे !
एक दिन ऐसे ही दुःख के प्रवाह में बहते हुए वह भैया के घर आये ! भैया उस समय अमृतवाणी का पाठ कर रहे थे ! -----
क्रमशः
निवेदक : व्ही.एन.श्रीवास्तव "भोला"
भारत की हजारों वर्ष पुरानी पौराणिक वैदिक संहिता के प्रादुर्भाव के उपरांत विश्व के अन्य भागों में भी अनेकानेक देवपुरुषों ने अपने अपने अनुयायियों के लिए निज निज अनुभवोँ के आधार पर स्वधर्म पालन की विविध संहिताएँ प्रचलित कीं ! हिन्दुओं के श्रीमदभागवत, श्रीमदभगवदगीता ,रामचरितमानस ,विविध बौद्ध व जैन धर्म ग्रन्थ , गुरुग्रंथ सहिब तथा मुसलमानों के कुरानशरीफ और ईसाइयों के "बाइबिल" जैसे पवित्र धर्म ग्रन्थों में वर्णित समग्र आध्यात्मिक ज्ञान का समावेश महाराज जी की इस रचना "अमृतवाणी" में है !
अमृतवाणी रूपी इस आध्यात्मिक ज्ञान की छोटी सी गागर में दिव्य विचार -मणियों का आगार संजोये पूरा का पूरा महासागर समाया हुआ है ! महाराज जी ने अपने जीवन भर की तपश्चर्या के फलस्वरूप जिन रहस्यमय चिरन्तन तत्वों का साक्षात्कार किया उन्होंने उन्हें इस छोटी सी पुस्तिका में अंकित कर के मानवता के कल्याण के उद्देश्य से प्रसाद स्वरुप सर्वत्र वितरित किया !
मैंने यह प्रसाद पाया ,अपने ग्वालियर सम्बन्ध से ! मेरे पास से वह प्रसाद मेरे मुंह बोले बड़े भैया के पास पहुंचा ! उन्होंने इसे भारत सरकार के अनेक उच्चतम अधिकारियों तक पहुँचाया जिन्होंने भी केवल " नाम जप " की साधना से वह सब पा लिया जो जप तप व्रत संयम नियम आदि से योगियों को भी दुर्लभ है !
उदहारण स्वरूप भैया के एक मित्र थे ---जन्म से ब्राह्मण , एक पुरोहित - पुजारी वंश की सन्तान वह घर की सनातनी पूजा पद्धति से अत्यंत दुःखी थे और कर्मकांड की दृष्टि से उन्हीं के शब्दों में वह पूरे नास्तिक ही थे ! पर सरकारी सेवा को वह धर्म मानते थे और दिन रात उसी में जुटे रहते थे ( बक्सों में भर कर सरकारी कागज़ात दफ्तर से उनके साथ रोज़ शाम उनके घर आते थे , और वह घर पहुँच कर उन्हीं पर जुट जाते थे ) ! किसी प्रकार की पूजा आराधना तो छोड़िये काम के पागलपन में वह परिवार के सदस्यों के प्रति अपने कर्तव्य भी पूरे नहीं कर पाते थे ! "कर्म करना ही धर्म है "- गीता का यह उपदेश वह अति दृढ़ता से मानते थे पर :
"प्रभु की अखंड स्मृति और शरण में रह कर अपने वर्तमान कर्म करते रहो "
वाले श्रीगीता जी की इस सीख के अग्र भाग को वह बिल्कुल ही भूल जाते थे ! फल स्वरूप कर्तापन का अहंकार, उनसे कभी कभी उनके काम काज में बड़ी बड़ी भूलें भी करवा देता था और वह दुःखी हो जाते थे !
एक दिन ऐसे ही दुःख के प्रवाह में बहते हुए वह भैया के घर आये ! भैया उस समय अमृतवाणी का पाठ कर रहे थे ! -----
क्रमशः
निवेदक : व्ही.एन.श्रीवास्तव "भोला"
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