"प्रयास, पुरुषार्थ, परिश्रम, प्यारे प्रभु एवं गुरुजन की कृपा" तथा "प्रार्थना" के सहारे जीव अपना भाग्य और प्रारब्ध भी बदल सकता है, यह सीखा है और अपनाया है मैंने अपने पिता श्री की छत्रछाया में । उदारता और परम्परा का अदभुत सम्मेल था मेरे पिताश्री के जीवन में । संत तुलसीदास रचित रामचरितमानस की चौपाई -- सरल सुभाव न मन कुटिलाई । जथा लाभ संतोष सदाई ॥ और देत लेत मन संक न धरई ॥ बल अनुमान सदा हित करई ॥ -- में पिताश्री का जीवन और व्यक्तित्व प्रतिबिम्बित है ।
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं के शुरू के ब्रिटिश शासन काल में जमींदारों के उत्पीडन झेलते यू . पी .और बिहार राज्य के काश्त्कार्रों की दशा अत्याधिक दयनीय थी । वे निर्धन थे, अशिक्षित थे, असहाय थे । दोनों ही राज्यों का ग्रामीण अंचल पूर्णतः अविकसित था । यू . पी . में गाजीपुर के "नील"(INDIGO) उद्योग को अंग्रेजों ने पूरी तरह हथिया लिया था । बिहार के भागलपुर की Raw Si।k Industry को भी, ढाका के मलमल वालों की तरह अंग भंग कर निष्क्रिय किया जा रहा था । बिहार की कोयले की खदानें अंग्रेजी कम्पनीयों की हो चुकी थीं । गाँव के चरखे और हथकरघे ईंधन में जल चुके थे और उनकी कमी पूरी करने के लिए, ब्रिटिश कम्पनीयों ने कानपुर बम्बई और अहमदाबाद में कताई और बुनाई की बड़ी बड़ी Texti।e Spinning & Weaving मिलें लगा लीं थीं ।
उसी अविकसित और अशिक्षित पूर्वी यू . पी . के एक अति साधारण व्यक्तित्व वाले हमारे पिताश्री ने जीविका के लिए वह धंधा अपनाया जो तब तक परिवार में किसी अन्य ने नहीं किया था । पढ़े लिखे कायस्थ परिवार के ग्रेजुएट युवक I.C.S., P.C.S. बनने का मोह भंग होने के बाद ज्यादातर साफ़ सुथरे लिखा पढी के काम ही खोजते थे । मेट्रिक तक पढ़े युवक छोटे व्यापारिओं के मुंशी बनना या सरकारी दफ्तरों में क्लर्क, बड़े बाबू, खजांची, इंस्पेक्टर, दरोगा बन पाना बड़े सौभाग्य की बात मानते थे ।
हमारे पिताश्री जिन्हें हम बाबूजी कहते थे, हमारे दादा श्री गोपालशरण लालजी के पुत्र थे । उनका जन्म वाजिदपुर गाँव, बलिया जिले में १० अक्टूबर १८९५ में हुआ था । उन्होंने टेक्सटाइल इंस्टिट्यूट कानपूर से डिप्लोमा प्राप्त किया था । हमारे पिताश्री के तीनो बड़े भाई लिखापढ़ी का काम करते थे । एक ताऊ जी जज थे, एक वकील थे, एक ओनररी स्पेशल मजिस्ट्रेट । हमारे पिताश्री अंग्रेजों की टेक्सटाइल मिल, “म्योर मिल्स कम्पनी लिमिटेड कानपुर” में रंगाई विभाग के अध्यक्ष थे । उन्हें डाइंग मास्टर और डाई एक्सपर्ट कहा जाता था । उस समय उन्हें वह सारी सुविधाएं उपलब्ध थीं जो विलायत से आये उस संस्थान के अँगरेज़ अधिकारियों को प्राप्त थीं ।
द्वितीय विश्व युद्ध के छिड़ने के अंतराल में मेरे बाबूजी ने १९३६ में अँगरेज़ अफसर के अन्याय पूर्ण व्यवहार से तंग आ कर ब्रिटिश कम्पनी छोड़ दी। फिर उत्तर प्रदेश की एकमात्र पहिली ओद्योगिक कोओपरेटिव इकाई की स्थापना की, जिसमे कार्यरत थे अल्पसंख्यक बुनकर, जो इस इकाई के साझेदार भी थे । इसके साथ ही दूसरी टेक्सटाइल इकाई इटावा में लगाई जो इटावा के बुनकरों द्वारा बुने कपड़ों की रंगाई और फिनिशिंग करती थी ।
“यू . पी . कोऑपरेटिव निटिंग एंड वीविंग सोसाइटी लिमिटेड कानपुर” उस समय कानपुर की एकमात्र और पहिली सहकारी सोसाइटी थी, जिसके संस्थापक तथा चेयरमेन और मेनेजिंग डायरेक्टर थे, हमारे पिताश्री, श्री बद्री नाथ श्रीवास्तव । भाग्यचक्र कहिये या काल चक्र उनके सभी व्यापार और सभी विनियोग असफल रहे। ४०-४१वर्ष की उम्र में ही समृद्धिपूर्ण जीवन उनसे मुह मोड़ गया ।
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