नहीं कह सकता आपको अब तक विश्वास हुआ कि नहीं कि हमारी हर एक सफलता के पीछे एक अनदेखी शक्ति का हाथ होता है । किसी किसी सौभाग्यशाली, प्रभु के प्यारे व्यक्ति विशेष को उस अदृश्य शक्ति का दाता कभी कभार नजर भी आ जाता है, लेकिन प्राय: ऐसा होता है कि लोग अपनी सफलता के उल्लास में विजय का समूचा श्रेय स्वयं को दे देते हैं और उस अदृश्य "शक्ति दाता" को बिल्कुल ही भुला देते हैं । परन्तु मेरे बाबूजी उस देवपुरुष को, जिनके मार्गदर्शन ने उनका जीवन संवारा था, आजीवन भुला नहीं पाए । तभी तो मुझे प्रोत्साहित करने के लिए १९५० में अपनी वह "हनुमत-कृपा की अनुभव-कथा" मुझे कह सुनायी । उसे सुनाते समय वह इतने भाव विभोर हुए कि उनका कंठ रुंध गया, उनकी आँखें भर आयीं । उनकी इस "अनुभव-कथा" से प्राप्त मार्ग दर्शन और प्रेरणा ने मेरा व्यक्तित्व, मेरे आदर्श, मेरा जीवन दर्शन, मेरी भावनाएं, मेरी आकांक्षाएं -- सभी को समूल बदल डाला ।
यथार्थ स्थिति यह थी कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद सारे विश्व की अर्थ व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गयी थी । भारत को बुरी तरह लूट कर और उसको दो टुकड़ों में बाँट कर ब्रिटिश सरकार भारत छोड़ कर जा चुकी थी । युद्ध के समय भारत में जो छोटे बड़े हजारों कारखाने आयुध एवं अन्य सामग्री बनाने के लिए चालू हुए थे, एक एक कर बंद हो गये थे । शहरों में बेकारी और गाँव में भुखमरी मुंह बाए जन साधारण को त्रस्त कर रही थी । ऐसे में, मैं सन १९५० में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ़ टेक्नोलोजी से केमिकल इंजिनीअरिंग की डिग्री प्राप्त कर कानपुर आया और काफी दिनों तक बेरोजगार बैठा रहा ।
तब मेरे जीवन में भी कुछ ऐसी ही समस्या आ गयी जैसी मेरे पिताश्री को रंगरेजी की पढायी करते समय हुई थी । जब जज, मजिस्ट्रेट, एडवोकेट, वकील, मुख्तियार, अध्यापको के परिवार के, और श्री चित्रगुप्त वंशीय मुंशियों के होनहार सपूत हमारे पिताश्री "रंगरेज़" बनने जा रहे थे, खानदान में, पडोसिओं में, जाति बिरादरी वालों में, काफी मजाक उड़ा था । हितेषियों ने सहानुभूति जताते हुए भोजपुरी भाषा में कहा " राम राम कायस्थ हो के रंगरेजी करिहें । ई ता अच्छा भइल कि महाबीर जी के किरपा से इनके बियाह हो गईल बा, ना ता के देत इनका के आपन लडकी," ऐसा था हमारे समाज का चिंतन और ऐसी थीं हमारी मान्यताएं तब उस जमाने - १९१५-१६ में ।
मैं अपने परिवार का छोटा और अविवाहित पुत्र था । इस कारण, सर्विस पर मुझे कानपुर से कहीं दूर भेजने के लिए घर वाले तैयार न थे और हालत यह थी कि उन दिनों पूरे विश्व के "जॉब मार्केट" में भयंकर मंदी चल रही थी । अपने देश में आज़ादी प्राप्ति के बाद १९५० तक मंत्री बने नेताओं की कृपा से आवश्यकता से अधिक लोग सरकारी कामों में लग चुके थे । कानपुर की निजी कम्पनियाँ और मिलें भी बंद हो रहीं थीं । कहीं भी नौकरियां उपलब्ध नहीं थीं । कितने महीने गुजर गये ।
महीनों की बेकारी के बाद एक सरकारी चर्म उद्योग से मुझे ऑफिसर्स एप्रेंटिस की जॉब का ऑफर आया । १९१५ में हमारे पिताश्री खानदानी लिखा पढ़ी का पेशा छोड़ कर मिल कारखाने में "रंगरेज़" का काम करने गये थे और १९५० में मैं "चर्म शोधन" का कार्य करने जा रहा था । परिजन भूले नहीं थे कि पिताश्री की रंगाई की पढाई के पीछे कितना हल्ला गुल्ला मचा था । मेरे "चर्म शोधन" कार्य में लगने पर मेरा क्या हश्र होगा इसकी चिंता सबको सताने लगी ।
एक २० वर्ष का होनहार युवक जिसकी हिन्दी गीत रचनाएँ तब आकाशवाणी के प्रमुख कलाकारों द्वारा गायीं जाती थीं, जिसके प्रतिभाशाली शिष्य आकाशवाणी व फिल्मों के नामी गायक बने, एकाध फिल्मों एवं केसेट कम्पनियों के संगीत निदेशक भी बन गये, वह युवक रोज़ी रोटी के चक्कर में चर्म उद्योग में एप्रेंटिसशिप करने जा रहा था ।
उस समय कुल देवता श्री हनुमानजी की प्रेरणा से पिताश्री ने मेरा मार्ग दर्शन करते हुए समझाया कि कोई काम छोटा बड़ा नहीं होता । संसार में सब जीवों को अपने अपने प्रारब्धानुसार और विगत जन्मों की कमाई के अनुसार वर्तमान जन्म में जीवन जीने के विभिन्न साधन और विविध सुविधाएं प्राप्त होती हैं । आवश्यक नहीं कि एक परिवार में सभी प्राणी एक से गुणों के स्वामी हों, एक से काम करें, एक सी कमाई करें, इसलिए वर्तमान काल में, प्यारे प्रभु, तुमसे जो कार्य करवाना चाहते हैं उसे सहर्ष स्वीकार कर, उसे प्रभु का आदेश, प्रभु की सेवा मान कर अपनी पूरी योग्यता, बल बुद्धि लगा कर उत्साह के साथ करो ।
"मेरे प्यारे प्रभु" ने मुझे जो काम सौंपा, मैंने उसे शिरोधार्य किया और ६० वर्ष की अवस्था तक "उनके" द्वारा निर्धारित, वह तथाकथित नीच काम करता रहा । मैंने कभी कोई गिला शिकवा नहीं किया । शायद संत रैदास जी के कार्य से भी कई स्तर नीचे का कार्य मुझे सौंपा गया था । रैदास जी तो पके हुए चमड़े के जूते बनाते थे - लेकिन मुझे गाय-भैंस और भेड़-बकरियों की कच्ची खाल को पका कर उसमे रंग रोगन लगा कर उसे जूता बनाने लायक चमकदार चमड़े का स्वरूप प्रदान करने का काम मिला था । सप्ताह के छः दिवस, प्रात ७ बजे से शाम के ५ बजे तक उस आयुध निर्माणी की ऊंची ऊंची दीवारों के पीछे, फौजियों के लिए 'आर्मी बूट' बनाने और उन बूट्स के लिए, गाय भैंस की कच्ची 'खालों' [Hides and skins] का शोधन [Tanning] करवाकर, उनसे 'चमड़ा' [ Leather] बनवाने के काम में व्यस्त रहने लगा ।
सोचा था क्या, क्या हो गया? आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास । सोच यह थी कि ऑयल टेक्नोलोजी पढ़ी है, डिग्री लेने के बाद, "केंथरायडीन " जैसा खुशबूदार हेयर आयल और "पियर्स" जैसा ट्रांसपेरेंट बाथ सोप बनाने का कारखाना लगाएंगे । पर हुआ यह, कि चमड़ा पकाना पड़ा । और फिर उपरोक्त लोकोक्ति चरितार्थ करने के लिए मैं, कारखाना लगाने और ईश्वर प्रदत्त संगीत-कला की साधना के स्थान पर " कपास ओटने लगा" । ऑयल टेक्नोलोजिस्ट, संगीतनिदेशक - सिने कलाकार - बनने का स्वप्न संजोये "भोला", बन गया "रैदास" ॥ "रोज़ी रोटी कमाने के लिए 'भोला' पकाने लगा चमड़ा ।" कुछ निकटतम सम्बन्धी ताने भी मारने लगे, " इनके पिताश्री अपने व्यापार में, बाहर से १००, सवा सौ रूपये के मेट्रिक पास कर्मचारी नियुक्त करते हैं और ये यूनिवर्सिटी ग्रेजुएट भोला बाबू, ८५ रूपये वाली सरकारी गुलामी कर रहें हैं, वो भी एक चमड़े के कारखाने में ।" देख रहे हैं आप कि मेरे कुलदेवता ने मुझे कहाँ कहाँ घुमाया, किस किस घाट का पानी पिलाया? परन्तु अन्ततोगत्वा उसने अपने इस भोले बालक को उसके गंतव्य तक पहुँचा ही दिया ।
यहाँ यह विचारणीय है कि मेरी और मेरे पिताश्री की आजीविका अर्जन के क्षेत्र के चुनाव की अनुभव कथा में कितनी समानता है । मेरे पिताश्री के समक्ष उनके इष्टदेव महावीरजी अनजान देवपुरुष के रूप में साकार प्रगट हुए, उनका मार्ग प्रदर्शित किया, उनके जीवन का प्रेय निश्चित किया और मेरे समक्ष मेरे कुलदेवता हनुमानजी पिताश्री की वाणी में सूक्ष्म रूप में अवतरित होकर मेरा मार्ग दर्शन कर गये और मेरी आजीविका के अर्जन का मार्ग चुन गये ।
अपने जीवन में पिताश्री अवैतनिक एप्रेंटिस से अपनी कम्पनी के चेयरमेन कम मैनेजिंग डायरेक्टर बने और इष्टदेव की कृपा से मैं एक साधारण अंडर ट्रेनिंग ऑफीसर से लेदर एक्सपर्ट बना तथा अन्तोगत्वा पिताश्री के समान ही भारत के सबसे बड़े सरकारी "चर्म शोधन कारखाने" का चेयरमैन कम मेनेजिंग डायरेक्टर बना ।
ऑयल टेक्नोलोजी, जिसमे मैंने कॉस्मेटिक प्रोडक्ट बनाने में दक्षता प्राप्त की थी, उसमें ग्रेजुएट हो जाने के बाद जानवरों की कच्ची खाल को पका कर चमड़ा बनाने का काम ही "मेरे इष्ट देव राम और कुलदेवता श्री हनुमान" ने मेरी आजीविका के लिए चुना था । मैंने "उनकी" आज्ञा का पालन किया और "उनकी" कृपा देखिये "उनका" वरद हस्त मेरे माथे पर सदा सर्वदा बना रहा । अपने कार्य काल में १९७५ में भारत सरकार ने मुझे दो वर्ष के लिए दक्षिण अमेरिका के एक प्रदेश गयाना में विदेशी सरकार का औद्योगिक सलाहकार बना कर एक चमड़े का कारखाना लगवाने के लिए नियुक्त किया, जहां १९७६ में अष्टसिद्धि नवनिधि के अधिपति पवनपुत्र श्री हनुमान जी ने ही "नन्हे फरिश्ते" के रूप में प्रगट होकर साउथ अमेरिका के उस कैटल स्लॉटर हॉउस में मुझे गौ हत्या जैसे दुष्कर्म से बचाया और भारत के सम्मान की रक्षा की ।
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