मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

समय का फेर

द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व, अपने जीवन के पहले ८-१० वर्षों में, (१९२९ से '३८-'३९ तक ), हम अपने बाबूजी के "राजयोग" का भरपूर आनंद लूटते रहे । १० वर्ष की अवस्था तक हम बड़े बड़े शानदार बंगलों और कोठियों में रहते थे । १९३७ से १९३९ तक हम छावनी में गंगा तट पर स्थित एक चार एकड़ के प्लाट में बनी १२ कमरों वाली भव्य कोठी में रहे । वह प्लाट इतना बड़ा था कि आज के दिन उसी में, उस पुरानी कोठी के साथ साथ एक बड़े से सरकारी सर्किट हाउस की इमारत भी खड़ी हो गयी है । उसके पहले ७ वर्ष की उम्र तक हम सिविल लाइन्स के स्मिथ स्क्वायर के एक बड़े बंगले में रहते थे । वह जीवन कुछ और था । 

हम पिताश्री के साथ के अंग्रेजों, पारसियों, मुसलमानों तथा भारत के भिन्न भिन्न प्रदेशों के पढ़े लिखे तबके के लोगों के बच्चों के साथ खेलते थे । पिताश्री के मित्र सिल्वर साहेब की पत्नी मेरी अम्मा की मित्र थीं, साथ के बंगले में रहती थीं। उनके कोई बच्चा नहीं था, वह अक्सर गोद में उठाकर मुझे अपने बंगले ले जातीं थीं और मुझे उनके पास, विलायत से आयी "मॉर्टन" के चोकलेट का डिब्बा ही दे देतीं थीं । "मित्रा" साहेब के यहाँ के छेने के रसगुल्ले ; "सरदार गुरु बचन सिंह" के यहाँ का हलुए का कढाह प्रसाद जो प्रति रविवार आता ही था ; "एन. के. अग्रवाल जी" के घर की दाल बाटी और चूरमा (जो पिकनिकों पर ही मिलती थी) तथा "अब्दुल हई साहिब" के घी में तले मोटे मोटे चौकोर पराठे, मूलीगाजर का खट्टा मीठा अचार और मीठे चावल (ज़र्दा) हमें बहुत प्रिय थे ।

उन दिनों आलम यह था कि हर महीने के पहले रविवार की शाम बंगले के पिछवाड़े के "पेंट्री" के दरवाजे पर एक 'ठेला' खड़ा होता था, जिसपर चार बच्चों वाले हमारे बाबूजी अम्मा के छोटे से परिवार के लिए महीने भर की रसद लदी होती थी । ( मित्रों, तब तक "हम दो, हमारे दो" वाला नारा ईजाद नहीं हुआ था ) । बाबूजी के विश्वास पात्र, घर के रसोइये, बलिया से आयातित, पंडित मोती तिवारी जी अपने सामने ही, कलक्टरगंज की आढतों से अनाज के बोरे, शुद्ध देशी घी और सरसों तथा तिल्ली के तेल के बड़े बड़े कनस्तर, तथा मसालों के कार्टन और विलायती चाय, हॉर्लिक्स, ओवलटीन, क्वेकर ओउट्स, तथा इंग्लेंड के "किंग जॉर्ज द फिफ्थ" द्वारा सम्मानित ओरिजिनल ब्रिटानिया कम्पनी के "डाइजेस्टिव" और "क्रीम क्रेकर" बिस्कुटों के टीन के सील बंद बक्से लदवाकर, ठेले के साथ साथ पैदल चल कर बंगले तक लाते थे । आपको यकीन नहीं होगा, उस ठेले पर लदा वह सारा सामान [जिनिस] उन दिनों मात्र ६० चांदी के रुपयों में आ जाता था । गजब की सस्ती का जमाना था वह । घी दूध की नदिया बहतीं थीं, अम्मा खुले हाथ खर्च करतीं थीं, इच्छानुसार दान दक्षिणा देतीं थीं, अपने परिवार के साथ साथ अड़ोस पड़ोस के जरूरतमंद लोगों को भी खिलाती पिलाती रहतीं थीं । किसी प्रकार की कोई रोक टोक नहीं थी उनपर ।

लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होते ही, पासा पलट गया । बाबूजी की कुंडली के सभी योगकारक ग्रह वक्री हो गए, जिसकी वजह से वे आर्थिक अभाव से ग्रसित हो गए । मित्र-वेशधारी शत्रुओं ने उन्हें घेर लिया । सब्ज़ बाग दिखा कर उनकी पीठ में छुरा भोंक दिया । पल भर में हमारे "राज योग" पर शनि देव की गाज गिरी और हम सब के सपने चकना चूर हो गए । बेचारे बाबूजी की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय हो गयी । 

ऐसी स्थिति में भी, बाबूजी ने अम्मा से उनकी दान-दक्षिणा में कोई कमी करने का आग्रह नहीं किया और अम्मा तंगी की इस वास्तविकता से सर्वथा अनभिज्ञ रहीं । वह धनाभाव के उन दिनों में भी अपने घर से परमट घाट के बीच के रास्ते के दोनों किनारों पर कतार से बैठे भिक्षुक बच्चों पर तथा गंगा घाट के संस्कृत विद्यालय के अनाथ निर्धन विद्यार्थियों पर अपनी करुणा, पूर्ववत लुटाती रहीं । परमट घाट के सभी दूकानदार, बाबूजी के समृद्धि के दिनों से परिचित थे, अतएव प्रति मास के आरम्भ में वे घर आकर अम्मा द्वारा खरीद कर निर्धनों में वितरित सामग्री की कीमत ले जाते थे । परिस्थिति चाहे अनुकूल रही या प्रतिकूल, अम्मा -बाबूजी का स्वभाव अपरिवर्तित रहा, उनकी परसेवा वृत्ति और भरसक अधिक से अधिक भूखों की क्षुधा पूर्ति करवाने की प्रवृत्ति आजीवन बनी रही ।

उनका "परम धर्म" था "परहित",
 उनकी पूजा "परसेवकाई" ।
"काबाकाशी" था "तन" उनका ,
"मन" ही था "हरि मंदिर" भाई ॥

सांसारिक दृष्टि में उनका जीवन कष्टप्रद था, क्योंकि जो व्यक्ति अनेकों नौकर चाकरों से घिरा रहता था, अब स्वयं हाथ में झोला लटका कर बाज़ार जाता था । जिसके घर में आने जाने वालों और भिक्षा देने के लिए ठेलों में लाद कर महीने भर का खाने पीने का सामान आया करता था, उसके घर में अब रसोई बनते समय गली की दूकान से सामान मंगवाना पड़ता था । जो व्यक्ति मक्खन जीन के सूट पहनता था, वह अब मोटी धोती और कुरता पहन कर सब जगह आता जाता था । उनकी विशेषता यह थी कि उनके चेहरे पर कभी कोई शिकन नहीं आई और उन्होंने कभी किसी व्यक्ति को अपनी उस दुर्दशा का कारण नही बताया । उलटे परिवार के और सदस्यों को वह यह शिक्षा देते रहते थे कि शत्रु-मित्र, मान-अपमान, सुख-दुःख, शीत-उष्णता, सभी में व्यक्तियों को सम रहना चाहिए । गीता जी का यह श्लोक वह अक्सर हम सब लोगों को सुनाया करते थे ।

समः शत्रो च मित्रे च तथा मानापमानयो: 
शीतोष्णसुख 
दुःखेषु समः संग विवर्जित: ॥

(श्रीमद भगवद्गीता - १२/१८)

विद्वान् ज्योतिषियों के मतानुसार, "शनि देवता" के दोहरे प्रहार झेल रहे थे उन दिनों मेरे बाबूजी ( पिता श्री ) । पहला प्रहार था "शनि की महादशा" का जो उन्हें १९३६ से दुखी कर रहा था और दूसरा था "साढ़े साती" का जो अब उनके जले पर नमक जैसा प्रभाव छोड़ रहा था । पिताश्री को "शनि" के उग्र प्रभाव ने, एक विश्व विख्यात ब्रिटिश कम्पनी का स्थायी ऊंचा ओहदा, जिसपर वह निश्चिन्तिता से पिछले १० -१२ वर्षों से काम कर रहे थे, एक झटके में छोड़ देने को मजबूर कर दिया । 'गुरु' की महादशा में पूरा "राज योग" भोगने वाले परिवार को 'शनि महराज' ने निर्धनता के कगार पर ला कर खड़ा कर दिया ।

दुनिया वालों की नजर में पिताश्री को शनिदेव की कुदृष्टि के कारण कष्ट थे । लेकिन वास्तव में उन्हें कोई कष्ट महसूस नहीं होता था । वह अपने इष्टदेव श्री हनुमान जी की क्षत्रछाया में सदा आनंदित ही रहते थे । जब कभी हम बच्चे और अम्मा तनिक भी दुखी दीखते वह हमें समझाते और कहते थे कि, " बेटा जब 'उन्होंने' दिया हमने खुशी खुशी ले लिया, आज वापस मांग लिया तो हम दुखी क्यों हो रहे हैं? मैंने किसी गलत तरीके से कमाई नहीं की थी ये बात 'उनसे' अच्छी तरह और कौन जानता ? हमें "उनकी" कृपा पर पूरा भरोसा है । आप लोगों की भी सारी आवश्यकताएँ और उचित आकांक्षाएँ महाबीर हनुमानजी समय आने पर अवश्य पूरी करेंगे । आप लोग भविष्य की सारी चिंता उन पर ही छोड़ दें ।" 

तभी पड़ी मेरे भविष्य की वह "नींव", जिसे मैंने जिया, और जो श्री हनुमंत कृपा से मुझे प्राप्त हुई । मैंने सोचा और पाया कि सचमुच ही उतनी कष्टप्रद स्थिति में भी बाबूजी ने अपने कुलदेवता श्रीहनुमान जी का अवलम्ब नहीं छोड़ा । बुरे दिनों में भी वह नित्यप्रति हनुमान चालीसा और अष्टक का पाठ उतनी ही भक्ति के साथ करते रहे जितनी भक्ति से ओतप्रोत हो कर वह अपने अच्छे दिनों में करते थे । उनकी प्रार्थना में हमें कभी भी किसी प्रकार का आक्रोश अथवा गिला शिकवा और पीड़ा की प्रतीति नहीं हुई । वह पूर्ववत उसी विश्वास के साथ श्री हनुमान जी से कहते रहे :

बेगि हरो हनुमान महा प्रभु जो कछु संकट होय हमारो ।
को नहीं जानत है जग में कपि संकट मोचन नाम तिहारो ॥

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