कौन है वह जिसे अपनी माँ प्यारी नहीं लगती? मुझे विश्वास है कि सम्भवत : आप भी मेरी भांति या मुझसे कहीं ज़्यादा ही अपनी माता को प्यार करते होंगे । यदि, किसी कारणवश, कोई अपनी माँ को प्यार नहीं कर पाता, उस प्यारे पाठक से मैं अनुरोध करूँगा कि वह सबसे पहिले अपने आप को टटोलें, अपने आप में उस कमी को खोजने का प्रयास करे जिसके कारण वात्सल्य के उस दिव्य सुख से वह वंचित रह गया है । वह अपनी उस कमी को दूर कर के देखे कि, उसकी "माँ" का वात्सल्य निर्झर कैसे अपने पुत्र पर अपनी अपार प्रीति की वर्षा करता है और कैसे वह माँ पुत्र को अपने आशीर्वादों के आंचल से ढक कर उसके जीवन के भावी संकटों को टाल सकती है, उसका भविष्य सँवार सकती है ।
माँ केवल हमारी जन्मदात्री, हमारे शरीर की निर्मात्री ही नहीं है । भ्रूणावस्था से शैशव तथा युवा अवस्था तक वह हमारी पोषक है, शिक्षिका है, मार्ग -दर्शिका है । माँ के इन्हीं दिव्य -गुणों के कारण वेदों में कहा गया है" मातृ देवो भव " । भ्रूणावस्था से ही वह हमारी प्रथम गुरु है । गर्भ में ही माँ, सद्गुणों एवं सुसंस्कारों से हमे दीक्षित कर देती है । असंख्य उदाहरण हैं इसके । भगवान श्री कृष्ण के भांजे, अर्जुनपुत्र अभिमन्यू ने माता सुभद्रा के गर्भ में ही चक्रव्यूह भेदन का विज्ञानं सीख लिया था । महर्षि वेदव्यास के पुत्र शुकदेवजी को भी गर्भ में ही समग्र वेद का तथा ब्रहम तत्व का ज्ञान प्राप्त हो गया था । हम भी अभिमन्यू एवं शुकदेवजी की तरह अपनी माँ के उदर से ही कुछ न कुछ ज्ञान अर्जित करके इस धरती पर उतरे हैं ।
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