अप्रैल में वार्षिक परीक्षा होने वाली थी कि मेरे अध्ययन की कर्मभूमि पर अनायास ही एक और बिजली आ गिरी । मेरा और वीरेन्द्र का एक और मित्र था "शिव स्वरूप" । एक विशेषता उसमें यह थी कि वह हम दोनों के अतिरिक्त किसी अन्य सहपाठी से आत्मीय संबंध नहीं रखता था और हमसे भी वह यह अपेक्षा रखता था कि हम दोनों भी उसके अतिरिक्त किसी अन्य सहपाठी से अंतरंग सम्बन्ध न रखें । वह अंतर्मुखी प्रवृत्ति का अति भावुक व्यक्ति था, छोटी से छोटी अप्रिय बात को भी अपने मन की गहराइयों में सदा के लिए संजो लेता था ।
एक शाम को अनहोनी घटना घटी । मैं ब्रोचा हॉस्टल में अपने भाई-बंधुओं के साथ मनोविनोद में व्यस्त था कि मौर्वी होस्टल से हमारा सहायक समाचार लाया कि हमारी घंटे भर की गैरहाजिरी में शिव स्वरूप ने मर्क्यूरिक क्लोराइड (पारे का विष) खा लिया है, आत्महत्या का प्रयास किया है । खबर सुनते ही मेरे होश उड़ गये, किसी तरह साहस जुटा कर उससे मिलने गया । वह विश्वविद्यालय के अस्पताल में अचेतन अवस्था में पड़ा था, होश आने पर केवल दो शब्द ही अति कठिनाई से बोलता था, "भोला और वीरेंद्र " । सर सुन्दरलाल अस्पताल में उपलब्ध अच्छे से अच्छे उपचार भी काम न आये, शीघ्र ही वह ब्रह्मलीन हो गया । इकलौता पुत्र था, पुत्र निधन से आहत पिताश्री रोते बिलखते आये । एकांत में सबसे पूछ ताछ की । पिता थे, पुत्र की मनःस्थिति और उसके नैसर्गिक स्वभाव से पूर्णतः अवगत । अस्तु किसी अन्य को अपने पुत्र के आत्महत्या का कारण न मान कर उन्होंने विश्वविद्यालय अथवा वहाँ के किसी व्यक्ति पर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की ।
जब हमारे जीवन में कोई ऐसी घटना घटती है जहाँ हमारा सामर्थ्य, हमारा बल, हमारा विवेक, हमारा विचार सभी निष्फल हो जाता है तब उस समय कोई अनजान अदृश्य शक्ति हमें उस आपत्ति से निकाल कर हमारी रक्षा करती है । मेरे कुलदेव महाबीर हनुमानजी ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष स्वरुप में प्रकट हो कर एक से एक भीषण आपत्तियों से मुझे निकाल कर हर बार की तरह इस बार भी मेरी रक्षा की । "वह" सर्वदा मुझे सुबुद्धि और विवेक प्रदान करते रहे जिससे मुझे कठिन से कठिन परिस्थिति से जूझने की क्षमता मिली । दो वर्षों तक प्रतिपल अपने निकट रहे एक मित्र के निधन के पश्चात, मेरे मन की स्थिति कैसी हो गयी होगी, यह अनुमान तो लगा ही सकते हैं । दुखी, भयभीत और आतंकित मन के कारण विद्याध्ययन के लिए अपेक्षित एकाग्रता लुप्त हो गयी, पठन-पाठन कठिन हो गया फिर भी किसी प्रकार अपने इष्टदेव हनुमानजी का आश्रय ले कर जी जान से पढाई करने की कोशिश करने लगा ।
मेरा अटूट विश्वास था कि श्री हनुमान जी का स्मरण करते ही साधक को बल-बुद्धि, यश-कीर्ति, निर्भयता, सुदृढ़ता, आरोग्यता आदि की प्राप्ति होती है अत: बेचेलर डिग्री की परीक्षा के दिनों में अपने आत्मविश्वास और विवेकबुद्धि को प्रबुद्ध करने की अभिलाषा से सहपाठियों के साथ प्रति सप्ताह मंगलवार को हनुमानजी के संकटमोचन मन्दिर जाने लगा । वहां मैं पूरे जोर शोर से हनुमान चालीसा का और हनुमान अष्टक का पाठ करता और उसके बाद मन ही मन कभी कभी बिलकुल अकेले ही रामचरितमानस के अंतिम तीन छंद जिसकी प्रथम पंक्ति है :”पाई न केहि गति पतित पावन, राम भज सुनु शठ मना” अवश्य गुनगुना लेता । ज्यों ज्यों परीक्षा निकट आती गयी, हनुमत भक्ति का वेग दिनों दिन बढ़ता गया और सप्ताह में दो बार मंगलवार और शनिवार को मन्दिर जाना शुरू कर दिया, जहां हनुमान चालीसा का पाठ अधिक लगन और निष्ठा के साथ होने लगा । "हम आज कहीं दिल खो बैठे" जैसे फिल्मी गीत गाने वाले मेरे जैसे किशोर बालक ने अब बाथरूम में भी फिल्मी गीत गाने बंद कर दिए और प्रतिपल गुनगुनाने लगा --
“एक आसरा तेरा हनुमत, एक आसरा तेरा ।
कोई और न मेरा, तुझ बिन कोई और न मेरा ।।"
इन प्रार्थनाओं के माध्यम से वाराणसी में पढाई के दौरान पूरे समय मैंने अपने इष्ट श्री हनुमान जी को अपने अंग संग रखा जिनके सम्बल से मैं विषम से विषम कठिनाइयों में भी मैं अपने पठन -पाठन के ध्येय से विलग नहीं हुआ । समय पर वार्षिक परीक्षा दे दी, ग्रीष्मकाल की छुट्टी होते ही सकुशल घर पहुँच गया ।
अम्मा ने शैशव काल में ही मेरी यह दृढ धारणा बना दी थी कि सब जीवधारिओं पर उनके परम पिता "प्यारे प्रभु" की असीम अनुकम्पा जन्म से ही रहती है । माँ के आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त इस अटूट प्रभु कृपा के कवच और अपने पूर्व जन्म के संस्कार तथा प्रारब्ध के अवशेषों के फलस्वरूप मेरे मन में बालपन से ही यह भाव घर कर गया था कि मेरे जीवन में मेरे साथ जो कुछ भी हुआ है, हो रहा है और भविष्य में, जो कुछ भी होगा, कडुआ या मीठा, वह सब प्रभु की इच्छा से ही होगा; उनकी अनन्य कृपा से ही होगा और उसमे ही मेरा कल्याण निहित होगा ।
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