बचपन में अपनी प्यारी प्यारी, पोपली (दंत मुक्ता हीन) मुखारविंद वाली, गोरी गोरी दादी ‘ईया” श्रीमती सूरजमुखी की गोदी में लेटे लेटे, उनकी गुड़गुड़ी की मधुर गुड़गुड़ाहट के बीच, मैंने जागते सोते, अपने पूर्वजों पर हनुमानजी की कृपा की ऐसी अनेकों कहानियाँ सुनीं थीं, जिनका विस्तृत विवरण पहिले ही दे चुका हूँ जिसमें एक अनजान व्यक्ति न जाने कहां से अचानक प्रगट होकर, विपत्ति के समय हमारे परिजनों की मदद करके अंतर्ध्यान हो जाता था । थोड़ा बड़े होने पर हमारे बाबूजी ( पिताश्री ) ने भी यही कहानियाँ वैसे ही दुहरा कर हमें सुनायीं । दादी और बाबूजी की, सभी कथाओं की भाषा में, शब्दों का कुछ अन्तर रहा होगा पर कथा की मूल भावना में कोई भेद नहीं था ।
इन विचित्र चमत्कारिक कथाओं को सुन कर, हमारे दादा, परदादा तथा पिताश्री पर विशेष अनुकम्पा करने वाले महाबीर जी के प्रति मेरी श्रद्धा और प्रीति दिन प्रतिदिन बढने लगी । मुझे भी अपने जीवन के हर पल में उनकी कृपा का अहसास होने लगा । मेरे जीवन के इन ८७ वर्षों में "मारुती नंदन" ने मेरी, कब किस क्षेत्र में कितनी और कैसी कैसी मदद की, उसका लेखा जोखा देना मेरी साधारण मानव बुद्धि के लिए असंभव है ।
प्रायः हम यह शिकायत करते हैं कि हमे वह नहीं मिला जिसे पाने की पूरी योग्यता हममें है । दुखों से घबड़ा कर कभी कभी हम भगवान पर भी दोषारोपण कर देते हैं । प्रभु की कृपा से प्राप्त सत्संगों में गुरुजनों से सुने श्रीमद्भागवत गीता के प्रवचनों से मुझे यह बोध हुआ कि जीव अपने पिछले जन्म में जो भी शुभ-अशुभ कर्म करता है उनके फल स्वरूप ही उसके अगले जन्म का, उसके कार्य क्षेत्र का एवं कर्मों का चयन होता है । इसके अतिरिक्त पिछले जन्म में शरीर छोड़ते समय मनमें जो भाव शेष रहते हैं उन्ही वासनाओं और अतृप्त तृष्णाओं को अपने मन में संजोये हुए जीव अपने अगले नये शरीर में प्रवेश पाता हैं ।
अंतिम समय तन त्यागता जिस भाव से जन व्याप्त हो ।
उसमे रंगा रह कर सदा, उस भाव ही को प्राप्त हो ।।
मुझे अपने पूर्व जन्मों के संचित कर्मों और अंतकालींन भावनाओं के अनुरूप इस जन्म में एक तरफ जीवनयापन के लिये "चर्म शोधन" का कर्म मिला और दूसरी तरफ जन्म जन्मान्तर के संचित सुसंस्कारों के कारण इस जन्म में ईश्वर भक्ति, गायन संगीत, साहित्य स्रजन, शेरो-शायरी आदि विरासत में मिले ।
प्यारे प्रभु हमें यह दुर्लभ मानव जन्म देते हैं, मित्र-स्वजन-सम्बन्धियों से मिलवाते हैं, जिनके संसर्ग में हम आजीवन अनेकानेक अनुभव संचित करते रहते हैं और आनंदमय जीवन जीते हैं । मैं जिन लोगों के बीच में पाला पोसा गया, बड़ा हुआ, उन माता पिता, सगे भाई बहन, स्वजन संबंधी आदि से मुझे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मार्ग दर्शन एवं प्रोत्साहन मिला । हनुमत कृपा, मातापिता एवं गुरुजनों के आशीर्वाद, उनकी सिखावन, उनकी बहुमूल्य दीक्षा से हम चारों भाई-बहिनों में परस्पर प्यार-दुलार, मनुहार-व्यवहार, आत्मीय विश्वास जैसे विशिष्ट गुणों का सम्वर्धन हुआ पर इन सबसे परे एक और विशिष्ट प्रतिभा का निखार हुआ, वह था संगीत प्रेम । संगीत-कला के प्रति निष्ठा और गायन के लिए मधुर कंठ तथा एक बार सुन कर राग रागनियों को सदा के लिए मन में बसा लेने की क्षमता तो प्रभु ने हम चारों को बचपन से ही दे दी थी ।
इतनी कृपा करी है तुमने कैसे धन्यवाद दू तुमको ।
मोल चुकाऊ किस मुद्रा मे सब उपकारो का मै तुमको ।।
लख चौरासी योनि घुमाकर, तुमने दिया हमे नर चोला ।
बुद्धि विवेक ज्ञान भक्ति दे, मेरे लिये मुक्ति पथ खोला ।।
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