बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

पिताश्री पर हनुमत कृपा

बीसवीं शताब्दी के शुरू में भारत की आबादी लगभग ३०-३१ करोड़ थी । तब इस देश पर ब्रिटिश सम्राट जोर्ज पंचम का एक-छत्र आधिपत्य था । उन दिनों जब अँग्रेज़ी मिल्कियत के बड़े बड़े कल कारखाने, मिलें, रेल कम्पनियां, खदानें, चाय बगानें, ट्रेडिंग कम्पनियां और सबसे महत्वपूर्ण अंग्रेज़ी शासन-तन्त्र दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहे थे, तब सोने की चिड़िया भारत के नन्हे नन्हे बच्चे अपनी लुटी हुई माँ के उजड़े घोसले में भूखे प्यासे बैठे तत्कालीन अन्धकार में कोई ऐसी रजत रेखा खोज रहे थे जिसके प्रकाश में वह अपना भविष्य सँवार सकें ।

तत्कालीन स्थिति यह थी कि उन दिनों अधिक प्रभावशाली जमींदार, तालुकेदार परिवारों के प्रतिभाशाली युवकों को विलायत जा कर विद्याध्ययन करके "बार एट ला" से विभूषित हो कर "आई सी एस" आदि सेवाओं में आकर सीधे कलक्टर, जिला जज, पुलिस कप्तान या आर्मी कमांडर बन कर दिखाने का चैलेंज दिया जाता था। ऐसी ही परिस्थिति में हमारे पिताश्री के दो बड़े भाई तब तक मुख्तियार और मुंसिफ बन चुके थे । पर उन्हीं दिनों ग्रेजुएट न होने के कारण हमारे पिताश्री का एडमीशन नहीं हो पा रहा था, जिसके कारण उन्हें बहुत लज्जित होना पड़ा था । वे अपनी असफलताओं से उत्पन्न ग्लानि में डूबे हुए थे और यह निश्चित नहीं कर पा रहे थे कि ऐसी स्थिति में अब वह कहाँ जाएँ और, क्या करें? केवल दो जगह जा सकते थे । या तो आजमगढ़ अपने बड़े भाई सब-जज बाबू हरिहर प्रसाद जी के पास या बलिया अपने बड़े भैया बाबू हरनंदन प्रसाद जी (प्लीडर) के पास । यह सोच कर कि उन्हें आजमगढ़ में जज भैया की राय बात से भविष्य की योजना बनानी है, वह बलिया से आजमगढ़ के लिए चल दिए थे ।

आज से सौ, सवा सौ वर्ष पहले, बलिया जैसे पिछड़े जनपद के उस होनहार बालक ( हमारे १७-१८ वर्षीय पिताश्री ) जिसने बलिया, गाजीपुर, सुरेमनपुर, पटना के अतिरिक्त और कोई जगह देखी ही न थी, जो स्कूली पढायी के अलावा और कुछ जानता ही न था, उसकी मनःस्थिति वैसी विषम परिस्थिति में कितनी अस्थिर रही होगी, अनुमान लगाना कठिन है ।

किम्कर्तव्यविमूढ़ से हमारे पिताश्री आजमगढ़ कचहरी के पिछवाड़े वाली कच्ची सड़क पर स्थित प्राचीन कुँए की लखौरी ईटों वाली खंडहर हो रही जगत पर उदास बैठे थे । मुगलों या अवध के नवाबों के जमाने के उन खण्डहरात की तरह हमारे पिताश्री को उनके अपने भविष्य के सपनों का भग्नावशेष भी उतनी ही बेतरतीबी से बिखरा हुआ वहाँ दिखायी दे रहा था । उन्होंने अटूट श्रद्धा और विश्वास के साथ अपने कुलदेवता श्री ह्नुमानजी का सिमरन किया प्रार्थना की ---

"जय जय जय हनुमान गोसाईं,
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं"

उनकी पुकार सुन ली गयी। उनकी प्रार्थना चल ही रही थी कि किसी ने पीछे से पिताश्री के कंधे पर हल्के से थपथपाया । पिताश्री ने चौंक कर पीछे देखा और संभल कर उस आगंतुक से पूछा " कहिये, क्या बात है?" ठेठ अवधी भोजपुरी में वह बोला "आप कहो बाबू, आपकेर कौन बात है, जोन आप इहाँ उहाँ, लुक्का छुप्पी खेल रहे होऊ । जावो घरे लौट जाओ" । स्थानीय जज साहब के छोटे भाई थे, चुप क्यों रहते, थोड़े अभिमान से पिताश्री ने उन्हें उत्तर दिया " हम कहीं भी उठें बैठें, तुमसे क्या, तुम पानी पीयो और अपना रास्ता पकड़ो" । आगंतुक ने भी कुछ गुस्से के साथ उनसे कहा "बाबू कौउ तुम्हार रस्ता देखत होई और तुम इहाँ मुंह छुपाये बैठ हो, जाओ घरे लौट जाओ" । पिताश्री चौंक गये । कौन है यह अजनबी, जो इतना अपनत्व दिखा रहा है और इतनी गम्भीरता से उन्हें आदेश दे रहा है? पिताश्री पुनः चिंता में डूब गये । वह व्यक्ति था कि बोले ही जा रहा था । "का बदुरी बाबू, काहे पलात फिरत होऊ इहाँ से उहाँ । बलिया वारे वकील भइया से बहुत डेरात होऊ, एह खातिर इहाँ जज भइया के पास भाजि आये होऊ । का होई भागे भागे, कछु आगे केर बिचारे के च ही"।

उस अजनबी के विचित्र हावभाव और आदेशात्मक वक्तव्य से पिताश्री को ऐसा लगा जैसे वह व्यक्ति उनके परिवार का कोई अति वरिष्ठ स्वजन है जो "हरबंस भवन" परिवार वालों की सभी गतिविधियों से भलीभांति परिचित है । पिताश्री के लिए सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि उन्होंने अपने १७ - १८ वर्ष के जीवन में उस व्यक्ति को उस दिन से पहले, कहीं भी और कभी भी नहीं देखा था । आश्चर्य के साथ साथ अब पिताश्री के हृदय में उस व्यक्ति के प्रति थोड़ी थोड़ी श्रद्धा जाग्रत हो रही थी । अपनत्व प्रदर्शित करते हुए पिताश्री ने उस अजनबी व्यक्ति से कहा, "बाबाजी आपने पानी तो पिया ही नहीं, बड़ी गर्मी है, थोड़ा पनापियाव हो जाये" । मुस्कुराते हुए वह व्यक्ति बोला "का बाबू सुख्खे पानी पियईहो ? क्छू ख्वईहो नाहीं का ? आज मंगरवार है, महाबीर जी के दीन है, हम बिना परसाद पाए कुछु खात पियत नहीं हन । जाओ बाबू, पांच पैसा के गुड़ चबेना के प्रसाद चढाय लावो, जब लगी हम कुइयां से जल काढ़त हन "

पिताश्री तुरत चल पड़े । वहीं कुँए के पास वाली भडभूजे क़ी दुकान से उन्होंने पाँच पैसे का गुड़-चबेना लिया और कचहरी के गुमटी पर स्थित हनुमान मन्दिर की मूर्ति पर चढ़ाकर, अखबारी कागज़ की पुड़िया में प्रसाद ले कर, कुँए की ओर मुड़़ गये, जहाँ वह अजनबी व्यक्ति उनकी प्रतीक्षा कर रहा था । दूर से ही पिताश्री को उस आगंतुक व्यक्ति की आवाज़ सुनाई दी । वह कह रहे थे "बड़ा देरी लगायो बाबू । हम सुना तुम पूरा हनुमान चालीसा सुनाय आयो उनका । ऊ जरूर बहुत खुश भये होइहें । लाओ प्रसाद देव ।" 

पिताश्री ने उन्हें पुड़िया पकड़ा दी । खोल कर थोड़ा प्रसाद लिया और फिर कुछ देर तक वह अख़बार के उस टुकड़े पर गहरी नजर जमाये हुए कुछ देखते रहे । बाबाजी तथा पिताश्री ने बड़े प्रेम से हनुमान मंदिर का वह प्रसाद पाया । उसके बाद काफी देर तक उनमें और पिताश्री में एकतरफा बातचीत चलती रही । बोलने का काम उन्होंने किया और पिताश्री ने सुनने का । उनकी वाणी इतनी मधुर और शब्द इतने सारगर्भित थे कि पिताश्री मंत्रमुग्ध हो उनकी बातें सुनते रहे । 

वह बाबा जी कह रहे थे -- "बद्री जी, बीती ताहि बिसारिये, आगे की सुधि लेहु, ऐसा है कि मनुष्य संसार में आता है कभी हंसता खेलता है, कभी रोता है, कभी भयभीत होता है, कभी हारता है, कभी जीतता है और इन सबसे अकेले ही जूझते हुए वह जीवन जीने का मार्ग खोजता रहता है । कभी कभी वह माया के खिलौनों से खेलने में अपना ध्येय, अपना पथ और मार्ग दर्शन करने वाले परमेश्वर से भी बिछुड़ जाता है और इस प्रकार जीवन के कुरुक्षेत्र में धराशयी हो जाता है । इसके विपरीत संसार के संस्कारी व भाग्यशाली प्राणी जीवनपथ पर लडखडाते तो हैं पर अपने इष्टदेव "संकटमोचन" का सहारा पाकर शीघ्र ही सम्हल जाते हैं और अपने मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के चारों घोड़ों की बागडोर प्रभु को सौंप देते हैं । फिर क्या बात है वे जैसा भी चाहते हैं, भगवान उन्हें वैसा ही देते रहते हैं । परन्तु प्रत्येक अवस्था में कर्म मनुष्य को ही करने पड़ते हैं ।" फिर कुछ देर रुक कर वह बोले " कौने सोच माँ पड़ी गयो बद्री बाबू, आपन काम करो, जोंन काम करे वास्ते आये हो इहाँ । जावहू जज भैया से बात कर लेहू, सब ठीके होई, चिंता जिन करो"।

पिताश्री पुनः गम्भीर चिंता में पड़ गये । पिताश्री के जीवन के गहन अंधकार को श्रीमद् भगवत गीता के ज्योतिर्मय राजमार्ग पर लाकर उन साधारण से दिखने वाले बाबाजी ने बातों ही बातों में पिताश्री को ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्ति योग के व्यावहारिक परिवेश से परिचित करा कर एक प्रकार से पिताश्री को जैसे महाभारत के कुरुक्षेत्र में ही उतार दिया । वह बोले, "आज असफल रहे तो क्या हुआ ? बद्रीजी, अभी केवल एक दरवाज़ा ही बंद हुआ है, जीवन के रंगमंच के अनेक दरवाजे हैं और अनगिनत खिड़कियाँ हैं, तुम्हारे लिए कोई न कोई अन्य खिड़की किवाड़ी भगवान जी ने ज़रूर खुली छोड़ दी होगी । ऐसे अकर्मण्य हो कर बैठ जाओगे तो क्या पाओगे, खाली हाथ मलते, पड़े रह जाओगे । "

पिताश्री अरजुन की भांति एकाग्र चित्त हो सुन रहे थे और वह बाबाजी योगेश्वर श्री कृष्ण के समान धारा प्रवाह बोले जा रहे थे । "कर्तापन और कर्मफल की आसक्ति त्याग कर कर्म करने चाहिए । परम सत्य को जानते हुए पूरी क्षमता सामर्थ्य और विवेक बुद्धि के साथ समर्पण भाव, सम भाव, शुभ भाव एवं निष्काम भाव से किया हुआ कर्म, करने वाले को कर्मयोग एवं धर्मयोग दोनों के लाभ एक साथ ही दिला देते हैं । गुरु कृपा से साधक को, परमसत्य स्वरूप परमेश्वर का ज्ञान होता है । इस योग से परमेश्वर को जानकर, उनकी सृष्टि के संवर्धन व उन्नयन के लिए धर्ममय कर्म करना और इन सभी कर्मों के फल दृढ़ विश्वास के साथ परमेश्वर को समर्पित करना ही सर्वोच्च धर्म है । अपना धर्म निभावो, बद्रीजी । आगे बढ़ो, पीछे मुड़़ के मत देखो, आगे बढ़ो, घर जाओ, जज भैया को प्रसाद खिलाकर, प्रसाद की पुड़िया के कागज़ में जो छपा है उन्हें जरूर पढ़ा देना । तुम्हारा काम बन जायेगा, देर मत करो, जाओ जल्दी जाओ ।"

इतना कह कर बाबा जी उठ कर चलने को हुए । तब तक पिताश्री बाबाजी की बातों से बहुत प्रभावित हो चुके थे । बाबाजीकी के रूप में उन्हें कभी अपने इष्ट देव हनुमान जी का और कभी योगेश्वर भगवान श्री कृष्णजी का स्वरुप प्रतिबिम्बित होता दीख रहा था । उनके प्रति पिताश्री के मन में धीरे धीरे एक विशेष श्रद्धा सुमन अंकुरित हो गया था । आगंतुक के प्रेरणाजनक संभाषण ने पिताश्री को निर्भय होकर आगे बढ़ते रहने को प्रोत्साहित किया था । उनके जाते ही पिताश्री पुनः अपने भविष्य के गहन अंधकारमय खोह में प्रवेश कर गये पर उनके कानों में बाबाजी का वह अंतिम वाक्य "पीछे मुड़़ कर मत देखो, आगे बढ़ो " देव मन्दिर के घंटे घड़ियालों के समान बड़ी देर तक गूंजता रहा ।

निजी अनुभव की पृष्ठभूमि पर बतलाऊं तो मेरे जीवन में भी कुछ कुछ ऐसी स्थिति आयी थी । मैं भी लगभग १९ वर्ष का था जब मैं अपनी फाइनल ग्रेजूएशन परिक्षा में एक ऐसे विषय में फेल हुआ जिसमें तब तक के मेरे विश्वविद्यालय के इतिहास में कभी कोई फेल हुआ ही नहीं था । मैं अति दुख़ी था । मेरे सहपाठी और शिक्षक सभी आश्चर्यचकित थे । डरते डरते मैंने पिताश्री को अपना नतीजा बताया । बजाय क्रोधित होने के पिताश्री ने मुझे स्वयं अपने फेल होने की और आजमगढ़ में उन बाबाजी से मिलने की पूरी कहानी सुनाई जिसको मैं आप लोगों को सुना रहा था । आपको याद होगा, अंतर्ध्यान होने से पहिले उन बाबाजी ने पिताश्री से कहा था "आगे बढ़ो, पीछे मुड़ कर मत देखो"

पिताश्री ने मुझे भी वही बाबाजी वाला संदेश दिया । मुझे याद है उन्होंने मुझसे मुस्कुराते हुए कहा था, "गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में ",  "बेटा जो घोड़े पर चढ़ेगा ही नहीं, वह कैसे आगे बढ़ पाएगा ?" मुझे और प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने कहा, "हार मान कर निष्क्रिय न हो जाओ, अपनी कोशिश करते रहो" और फिर वह गुनगुनाये थे -- "बढ़ते रहे तो पंहुंच ही जाओगे दोस्तों, जो रुक गये तो हार ही पाओगे दोस्तों" -- पिताश्री ने ३०-४० वर्ष पूर्व बाबाजी के जिन शब्दों से प्रोत्साहित होकर अपना जीवन संवारा था, उन्हीं शब्दों से उन्होंने मेरा मार्ग दर्शन किया ।

उन बाबाजी के अदृश्य हो जाने के बाद हमारे पिताश्री अति दुख़ी मन से उस दिन भर के सारे घटनाक्रम पर पुनर्विचार करते हुए अनमने से खोये खोये अपने बड़े भैया स्थानीय सब-जज साहेब की कोठी की ओर चल पड़े । पिताश्री के ये भैया मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के उपासक थे और उस जमाने की अंग्रेज़ी हुकूमत में भी स्वधर्म की मर्यादाओं को वह अपनी निजी रहनी में तथा अपने इजलास और कोर्ट कचहरी की कार्यवाहियों में भंग नहीं होने देते थे । उनका इजलास ही उनका मन्दिर था और उनके लिए उनका कर्म ही उनका धर्म था । वह स्वभाव से अति सौम्य थे, उनकी वाणी क्रोधावेश में भी मधुर ही बनी रहती थी । न्यायाधीश थे, अस्तु घर हो या कचहरी, वह अपने सभी निर्णय पूरी तरह नाप जोख कर, समझ बूझ कर देते थे ।

पिताश्री को आता देख कर बड़े पिताश्री ने उनसे पूछा "कहां रह गये इतनी देर तक ? " उत्तर में बिना कुछ बोले पिताश्री ने हनुमान जी के प्रसाद की पुड़िया उनकी ओर बढ़ा दी । श्री राम के परम भक्त बड़े पिताश्री के लिए राम दूत श्री हनुमान जी के प्रसाद के समान मधुर और कोई उपहार हो ही नहीं सकता था । पुड़िया को माथे से लगा कर उन्होंने प्रसाद के सिन्दूर की बिंदी लगाई और गुड़ चने का प्रसाद अति श्रद्धा सहित ग्रहण किया । बड़े पिताश्री के हाव भाव से ऐसा लग रहा था कि जैसे वह कहीं और से पिताश्री का रिजल्ट जान गये थे और वह उनसे नतीजे की पूछ ताछ कर उनको एम्बेरेस नहीं करना चाहते थे । जो हो, बड़े पिताश्री ने बात आगे बढाते हुए पूछा "फिर, अब आगे क्या करने का विचार है? " पिताश्री ने मौका देख कर प्रसाद की पुड़िया के अखबारी कागज़ को दिखाते हुए बड़े पिताश्री से अपनी उस अनजान व्यक्ति से भेंट की पूरी कहानी सुना दी और अंत में ये भी बताया कि उन महापुरुष ने वह अखबार बड़े पिताश्री को पढ़ाने की बात पर कितना जोर दिया था ।

बड़े पिताश्री ने अखबार के उस टुकड़े को पूरा फैला कर उस में छपा एक एक विज्ञापन ठीक से पढ़ा । एक विशेष विज्ञापन पर उनकी दृष्टि जम के रह गयी । विलायत के इम्पीरिअल कॉलेज ऑफ़ टेक्नोलोजी के पाठ्यक्रम के आधार पर भारत की टेक्सटाइल मिलों में अंग्रेज अफसरों की जगह ऊंचे पद पर भारतीयों को ही लगाने के लिए उचित शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से एक टेक्निकल स्कूल उसी वर्ष से चालू हो रहा था । बड़े पिताश्री ने विज्ञापन कई बार पढ़ा । लखनऊ से निकलने वाले अंग्रेज़ी अखबार में वह इश्तहार यू. पी. सरकार के उद्योग विभाग के टेक्निकल एज्युकेशन डिपार्टमेंट ने छपवाया था । वे बोले, "जरा गौर से देखो, इस अख़बार में एक ऐसा विज्ञापन है जो मुझे लगता है यू . पी . सरकार ने सिर्फ तुम्हारे लिए ही निकाला है ।"

पिताश्री को परेशान देख कर उनके बड़े भैया ने पुनः कहा " बद्रीजी तुम धन्य हो । अब तो मुझे इस बात में जरा भी शक नहीं है कि तुम्हें कुँए पर जो मिले थे वह वास्तव में हम लोगों के कुलदेवता श्री महाबीर जी ही थे । सोच कर देखो, उन्होंने तुम्हारे भूत और वर्तमान की जो गोपनीय बातें बतायीं वह कितनी सच थीं । सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने तुम्हे एक तरह से धक्का दे कर मेरे पास यह विशेष आदेश दे कर भेजा कि तुम मुझे वह कागज़ किसी तरह से भी जरूर पढ़वा दो । "

उस जमाने की रीति रिवाज़ के अनुसार पढ़ लिखकर घर के लड़के कमाई करने के लिए बड़े शहरों में जाते थे लेकिन उनके परिवार बाल बच्चों के साथ गाँव के खानदानी-पुश्तैनी घरों में ही रहते थे । इसी नियम के अनुसार बड़े पिताश्री भी आजमगढ़ में अकेले ही रहते थे । उनका घर एक सुव्यवस्थित "अविवाहितों का डेरा" था जहाँ खाने पीने की, खेलने कूदने की और पूजा पाठ की सभी सुविधाएँ मौजूद थीं । सरकार की ओर से उन्हें घर के कामकाज के लिए दो दो अर्दली मिले थे जो चौबीसों घंटे उनकी सेवा में रत रहते थे । उनकी कोठी में बैठक के बांये हाथ वाला कमरा उनका दफ्तर था और दायें हाथ वाला उनका छोटा सा मंदिर । कोठी के मन्दिर में दोनों भाइयों ने बड़ी श्रद्धा के साथ अपने इष्ट देव श्री हनुमानजी की वन्दना की और उनकी महती कृपा के लिए उन्हें अनेकानेक धन्यवाद दिये ।

बड़े पिताश्री के ही निर्णय और आदेश से बाबूजी कानपुर गये जहां उनका एडमीशन कानपुर डाईंग स्कूल में हुआ, डिप्लोमा मिला, अवैतनिक अप्रेंटिसशिप से प्रारम्भ कर विभागीय अध्यक्ष के पद पर नियुक्त हुए, सूटरगंज कानपुर में घर बनवा लिया, हम सब कानपुर निवासी हो गये ।

पिताश्री के जज भैया बहुत सुलझे विचारों के समझदार व्यक्ति थे, रामभक्त होने के कारण उनकी सोच, उनकी प्रेरणा, उनका निर्णय शत प्रतिशत सत्य ही होता था । १९३७ से १९३९ तक वह कानपुर के डिस्ट्रिक्ट एंड सैशन जज के पद पर कार्यरत थे । कानपुर आते ही उन्होंने बड़े प्यार से पिताश्री को अपने साथ ही, गंगातट पर स्थित सरकारी, ५७ केंटोमेंट वाली विशाल कोठी में रहने को मजबूर किया था । मैं तब ८ -९ वर्ष का ही था, पर बड़े पिताश्री के अनुकरणीय रहनी से मुझे बचपन में ही बहुत कुछ सीखने को मिला । 


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